गुरुवार, 30 अगस्त 2012

औषधि है 'सॉरी'

जीवन में अनेक प्रकार के तनावों के कारण हम जाने-अनजाने ऐसा व्यवहार कर बैठते हैं जिससे दूसरों की भावनाएं आहत होती हैं। भीड़ वाली जगहों पर अक्सर,कंधे या हाथ टकरा जाते हैं,पर कई लोग इसकी फ़िक्र नहीं करते। कुछ कदम चलने के बाद एक-दूसरे को टेढ़ी नज़रों से देखा और फिर चलते बने। ग़लती करने में कुछ भी ग़लत नहीं है। वस्तुतः,हमेशा कोई सही नहीं होता। मगर हममें से अधिकतर के लिए इसे स्वीकारना मुश्किल होता है कि हमने ग़लती की। कई बार,हम जानते हैं कि हमने जो किया,सही नहीं था। मगर मन खुद को सही ठहराने के सौ बहाने ढूंढ लेता है क्योंकि अगर अपने किसी व्यवहार से हमने बुरा महसूस किया,तो फिर सॉरी कहना होगा। सॉरी कहने का अर्थ ही इस बात को स्वीकारना है कि हमने ग़लती की। लेकिन अगर आप सॉरी चलताऊ अंदाज़ में कहते हैं जिसका मक़सद ख़ुद को अगली बार सुधारने से क़तई न हो(जिसकी ओर इस पोस्ट में संकेत किया गया है),तो हम न सिर्फ दूसरे का विश्वास खो देंगे,आत्म-विकास भी अवरूद्ध होगा।

आस्ट्रेलिया में तो बच्चों की शिक्षा पर दिए जाने वाले समय का एक बड़ा हिस्सा सॉरी का महत्व सिखाने में बीतता है। वहां अच्छी आदतों के लिए भी सॉरी कहने का चलन है। मसलन,यदि कोई बिल्कुल समय पर पहुंचे,तो कहेगाःI am sorry to be so punctual.सॉरी कहने से ज़्यादा ज़रूरी है उसे महसूस करना। किंतु,अगर आपने ग़लती की है तो सॉरी कहना ही चाहिए- अगर आप दिल से इसे न कहना चाहें,तब भी कहें क्योंकि आपके इस एक शब्द से तुरंत ही सामने वाले के घाव पर मरहम लग जाता है। सॉरी कहने का मतलब है कि आप अहं का त्याग कर रहे हैं और आपके लिए संबंधों की अहमियत है। सॉरी कहना अगर लोग जानते तो कितनी ही शादियां बचाई जा सकती थीं। इन्हीं तमाम पहलुओं पर,नई दुनिया के नायिका परिशिष्ट में 29 अगस्त,2012 को प्रकाशित संध्या रायचौधरी का आलेख(आशोधित रूप में) देखिएः

"सॉरी या माफ कीजिएगा, कहने के लिए बहुत आसान और सहज शब्द/ वाक्याँश हैं। हम कहना चाहते हैं, लेकिन कह नहीं पाते, क्योंकि जितना आसान इन्हें उच्चारना होता है, "कहना" उतना ही मुश्किल होता है । अपना सारा अहं भूलकर, मिटाकर ही इन्हें कहा जा सकता है, पर कह देने के बाद बहुत तरल और हल्का महसूस हुआ करता है। कहने को ये शब्द बहुत छोटे हैं, लेकिन माफी, सॉरी या प्लीज़ जैसे शब्द घावों को भरने का काम करते हैं। "अवर जर्नी टू वि़ज़्डम" जैसी किताब की लेखिका कैरोल आर्सबोर्न के अनुसार शर्म, बेइज्जती, माफी आदि पर सालों से शोध चल रहा है कि इन शब्दों में आखिर ऐसा कौन सा राज छुपा है जो अद्भुत तरीके से दूरियों को मिटा देता है।" कई बार इसके चमत्कारिक परिणाम देखे गए हैं क्योंकि यही वह शब्द है जिससे घृणा-चक्र टूटता है और जिसकी बदौलत कुछ एकदम ब्रांड-न्यू सामने आ सकता है।

प्लीज़ शब्द में है जादुई शक्ति
वास्तव में क्षमा माँग लेने के लिए भी साहस की जरूरत है। यह ईमानदारी भरा काम है, क्योंकि हमें यह स्वीकारने में कि हम गलत हैं, बहुत समय लगता है, बहुत सोचना पड़ता है और मन का द्वंद्व अनवरत चलता रहता है। लेकिन सॉरी कहने के बाद हमारे आपसी रिश्तों में नई उम्मीद जागती है। यह समर्पण का काम है क्योंकि यह आपको चीजों को बनाए रखने में मदद करता है और संबंधों को मजबूती प्रदान करता है। ब्रिटिश मनोचिकित्सक डेलिस अब्राम के अनुसार सॉरी कहना बेहद मुश्किल है। यह आपके अहम से जुड़ा होता है। आप गलत हैं और अपने व्यवहार के लिए शर्मिंदा हैं, यह अहसास आपको शर्मिंदगी से भर देता है। लेकिन सही मौका, सही समय, साहस और दिल से माँगी गई माफी आपको अपराधबोध से मुक्त कर राहत की साँस लौटाती है। बैंगलुरू के रिलेशनशिप एक्सपर्ट डॉ. बाबूजी राम, सॉरी को लेकर बहुत ही अच्छी व्याख्या करते हैं। उनके अनुसार जश्न के मौके हमेशा लोगों को करीब लाते हैं। माफी और सॉरी बोलने के लिए किसी खास आयोजन का समय सबसे अच्छा होता है। इसके लिए दीपावली, होली या नए साल का विशेष अवसर सबसे अच्छा मौका देता है, क्योंकि त्योहारों की खुशियों में आसानी से मतभेदों को भुलाया जा सकता है, एक-दूसरे के गले मिला जा सकता है । बाकी फिर हमारी संवेदनाएँ अपने आप जुड़ ही जाती हैं।

कनाडाई लेखिका मारग्रेट लॉरेंस के अनुसार विदेशों में प्लीज शब्द को जादुई शब्द के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। ब्रिटेन में लोग एक दिन में आठ बार सॉरी बोलते हैं यानी साल में लगभग २९२० बार और जीवन भर में लगभग ३० लाख बार सॉरी बोलते हैं। कई बार तो उनकी गलती नहीं भी होती है फिर भी वे सॉरी कहकर सामने वाले को एक पल में हक्का-बक्का कर देते हैं।

रिश्ते में आ जाती है मिठास 
"सॉरी" बोलना भी एक कला है जो हर किसी को नहीं आती। हमें पता ही नहीं होता कि सॉरी बोलें तो कैसे? हम कई बार सॉरी बोलते हुए काफी असहज महसूस करते हैं। लेकिन सॉरी बोलने से आत्मा तो पवित्र होती ही है, साथ ही मन की पीड़ा भी दूर हो जाती है। सॉरी बोलने का सही तरीका आपके जीवन में आने वाली अनेक कठिनाइयों को दूर कर सकता है जिससे काफी हद तक रिश्तों में आई कड़वाहट कम हो सकती है। हम सॉरी बोलने से केवल इसलिए कतराते हैं कि कहीं हम गलत साबित न हो जाएँ, लेकिन ऐसा नहीं है। जब हम सॉरी बोलते हैं तो वास्तव में हम महानता की ओर बढ़ते हैं। 

छोटों से माफी माँगने में कैसी शर्म? 
कई माता-पिता सोचते हैं कि बच्चों से माफी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि वे बड़े हैं और इसलिए वे जैसा चाहें,बच्चों के साथ बर्ताव कर सकते हैं। स्थिति का सामना करना तब कठिन हो जाता है जब बड़ों को छोटों के सामने अपनी गलती स्वीकार करना पड़ती है या उन्हें सॉरी बोलना पड़ता है, क्योंकि इसमें अहम आड़े आ जाता है। लेकिन हमारा सॉरी बोलना उन्हें ज़िंदगी में एक बड़ी सीख दे जाता है और भविष्य में उन्हें यह बात हमेशा स्मरण रहती है कि जब हमसे इतना बड़ा व्यक्ति सॉरी कह सकता है तो हम क्यों नहीं? मगर बच्चों से सम्मान पाने के लिए उन्हें सम्मान देना ज़रूरी है। 

औषधि की तरह है 
पाकिस्तानी लेखिका नाजिया ने अपनी किताब "अनसैड वर्ड्स हेल्प यू एंड योर लव" की भूमिका में सर्वप्रथम अपना ही उदाहरण दिया है कि सॉरी शब्द कहना हमें हमारी माँ रोज स्कूल जाने से पहले सिखाती थी। मां का कहना होता था कि अपनी ग़लती हो तो सॉरी कहना बहुत ज़रूरी है लेकिन अपनी ग़लती न भी हो तो सॉरी कहने से तुम्हारी इज्ज़त ही बढ़ेगी। इसलिए,जब कभी असावधानीवश मैं कुर्सी,टेबल या दरवाज़े से टकराती थी तो अपनी कुहनी या घुटने मसलते हुए उन बेज़ुबान चीज़ों को भी सॉरी बोलती थी। एक और उदाहरण नाज़िया ने अपनी क़िताब में दिया है कि जब भी उनकी अंग्रेज़ी की टीचर ब्लॉकबोर्ड पर चॉक से कुछ लिखती थीं और चॉक से घिसटने की आवाज़ होती थी जो बड़ी ख़राब लगती थी और अनायास ध्यान प्रश्न से हट जाता था,तब वो टीचर अपना सिर पीछे घुमाती थीं और चॉक को हमें दिखाकर सॉरी बोलती थीं। हालांकि इसमें गलती उनकी नहीं थी,लेकिन उनकी मिठास भरी सॉरी बहुत असर करती थी। वास्तव में,साहस के साथ माफी मांगने में समय ज़रूर लगता है,लेकिन यह औषधि का काम भी करती है और जीवन-पर्यन्त हमें रिलैक्स किए रहती है"। 

ध्यान रहे कि सॉरी कहना आपकी हार नहीं है। उल्टा,यह इस बात का प्रतीक है कि आप ज़िम्मेदारी ले रहे हैं। इसलिए, इसकी पहल करने में भी संकोच नहीं होना चाहिए। करके देखिए,आप तुरंत बेहतर महसूस करने लगेंगे।

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बुधवार, 29 अगस्त 2012

परिवार और समाज के लिए भी फ़ायदेमंद है स्तनपान

पृथ्वी पर रहने वाला हर स्तनपाई अपने बच्चों को स्तनपान कराता है। इससे शिशुओं को ताकत व संरक्षण मिलता है। शिशुओं में जन्म से रोग प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती। यह क्षमता उन्हें माँ के दूध से प्राप्त होती है। जन्म से ६ माह तक शिशु के लिए माँ का दूध सर्वोत्तम आहार होता है। स्तनपान से न केवल शिशु को लाभ होता है, बल्कि यह माँ के लिए भी ज़रूरी है। 

माँ के दूध में अनेक खूबियाँ हैं। इसमें शिशु की ज़रूरत के हिसाब से सभी पोषक तत्व मौजूद होते हैं। यह आसानी से पच जाता है। माँ का दूध शिशु को हर समय उपलब्ध रहता है। वो जब चाहता है, उसे दूध मिल जाता है। स्तनपान शिशु को संक्रमण से बचाता है। यह डायबिटीज व हाई ब्लडप्रेशर जैसी कई गंभीर बीमारियों की आशंका को भी कम करता है। माँ का दूध पीने वाले शिशु के मस्तिष्क का विकास सही ढंग से होता है। इससे बच्चे की दृष्टि एवं आईक्यू भी बढ़ता है। जिन बच्चों को बचपन में पर्याप्त रूप से माँ का दूध पीने को नहीं मिलता,उनमें बचपन में होने वाली डायबिटीज़ का खतरा अधिक होता है। ऐसे बच्चों की बुद्घि ठीक से विकसित नहीं हो पाती है। स्तनपान से शिशु में दमा व कान की बीमारी से बचाव होता है। कुछ शिशुओं को गाय या भैंस के दूध से एलर्जी हो सकती है, लेकिन माँ के दूध से किसी तरह की एलर्जी नहीं होती।

माँ के लिए भी है ज़रूरी 
स्तनपान न सिर्फ शिशु के लिए बल्कि माँ के लिए भी लाभकारी है। स्तनपान कराने से प्रसव पश्चात पीड़ा कम होती है। नई माताओं द्वारा स्तनपान कराने से उन्हें गर्भावस्था के बाद होने वाली परेशानियाँ कम होती हैं। इससे माताओं का तनाव भी कम होता है। माँ एनीमिया से भी सुरक्षित रहती है। स्तनपान एक प्राकृतिक गर्भनिरोधक के रूप में काम करता है। यह दूसरे गर्भधारण को रोकता है। स्तनपान कराने वाली माँ को स्तन कैंसर व गर्भाशय के कैंसर की संभावना कम होती है। 

परिवार के लिए लाभ 
स्तनपान कराना परिवार के लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद होता है। माँ के दूध के लिए उन्हें किसी तरह के पैसे खर्च नहीं करने पड़ते। साथ ही रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने से बच्चा बीमार कम पड़ता है, जिससे इलाज पर होने वाला भारी भरकम खर्च भी कम हो जाता है। स्तनपान से माँ और शिशु का रिश्ता मज़बूत होता है।

समाज को भी फायदा 
स्तनपान सिर्फ शिशु का पेट नहीं भरता बल्कि यह समाज को भी फायदा पहुँचाता है। स्तनपान इको-फ्रेंडली होता है। इसे तैयार करने में किसी तरह का प्रदूषण नहीं होता।

कितनी देर पिलाएँ दूध
बच्चा जब रोए तब उसे दूध जरूर पिलाएँ। इसे डिमांड फीडिंग कहा जाता है। दूध बच्चे की ज़रूरत के हिसाब से पिलाया जाना चाहिए। एक दिन में कम से कम ८ से १० बार दूध पिलाया जाना चाहिए। बच्चा जब तक खुद से दूध पीना न छोड़ दे तब तक उसे स्तनपान कराते रहें। कम वज़न के बच्चे देर तक दूध पीते हैं,जबकि स्वस्थ्य बच्चे जल्दी अपनी जरूरत का दूध पी लेते हैं। 

पोषक तत्वों से भरपूर 
माँ के दूध में एनर्जी,फेट,प्रोटीन,विटामिन-ए,विटामिन-बी व विटामिन-सी होता है। विटामिन-बी की मात्रा थोड़ी कम होती है, क्योंकि बच्चों को इसकी ज़रूरत कम होती है। मां के दूध में आयरन भरपूर मात्रा में होता है। ऊपरी दूध के मुकाबले शिशु का शरीर इसे ज्यादा अवशोषित कर पाता है। गाय का दूध जहां 10 प्रतिशत अवशोषित हो पाता है,वहीं मां का दूध 50 फीसदी अवशोषित होता है। मां के दूध में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले प्रोटीन होते हैं(सेहत,नई दुनिया,अगस्त 2012 द्वितीयांक)।

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मंगलवार, 28 अगस्त 2012

कई रोगों का इलाज़ हो रहा है फोटोथैरेपी से

फोटोथैरेपी त्वचा संबंधी परेशानियों में लाभकारी हो सकती हैं। अब विशेषज्ञ रोशनी का उपयोग विभिन्न रोगों के इलाज के लिए कर रहे हैं। इन दिनों स्ट्रोक, मुँह की दुर्गंध और कैंसर जैसे रोगों के इलाज के लिए भी रोशनी को उपयोग में लिया जा रहा है। शुरूआत में त्वचा रोग विशेषज्ञ लाइट थैरेपी का उपयोग सोराइसिस के इलाज के लिए करते थे। इसके बाद सर्दी के मौसम में होने वाले सीज़नल डिप्रेशन के उपचार के लिए भी इसका उपयोग किया गया। अब विभिन्न तकलीफों में राहत के लिए लाइटथैरेपी का इस्तेमाल किया जा रहा है।

कमर दर्द 
कमर दर्द से निजाद दिलाने के लिए चिकित्सक नीली रोशनी का उपयोग कर रहे हैं। सफेद रोशनी के बिखरने पर इसके सात अलग-अलग रंगों को देखा जा सकता है। नीली रोशनी बहुत शक्तिशाली होती है, यह ऊतकों को नुकसान पहुँचााए बिना शरीर पर प्रभाव डालती है। इसीलिए इसका उपयोग विभिन्न प्रकार के उपचार के लिए किया जा रहा है। युनिवर्सिटी हॉस्पिटल ऑफ हेडिल्बर्ग के चिकित्सकों ने नीली रोशनी उत्सर्जित करने वाला पैच विकसित किया है। इस पैच को दर्द की मदद से चिकित्सक दर्द का उपचार कर रहे हैं। 

यह पद्धति शुरूआती अध्ययनों पर आधारित है जिनमें यह सामने आया था कि रोशनी से शरीर में नाइट्रिक ऑक्साइड का उत्पादन बढ़ता है। नाइट्रिक ऑक्साइड माँसपेशियों के तनाव को दूर करता है। इससे रक्त धमनियाँ चौड़ी हो जाती है जिससे रक्त संचार बेहतर होता है। हेडिल्बर्ग में पैच पर अध्ययन जारी है, नई ट्रायल में १४ दिनों में पैच का उपयोग ५ बार किया जाएगा। मरीज़ों को इसे हर बार आधे घंटे के लिए लगाया जाएगा। अमेरिका में रोशनी के ज़रिए ओस्टियोआर्थ्राइटिस के कारण घुटने में होने वाले दर्द का इलाज खोजा जा रहा है। एक अन्य शोध से सामने आया कि कंधे का दर्द दूर करने के लिए फोटोथैरेपी असरदार है, वो भी बिना किसी दुष्प्रभाव के।  

पेट के छाले 
पेट के छालों के इलाज के लिए एक ऐसा उपकरण मददगार हो सकता है जिसके ज़रिए पेट के अंदर तक नीली रोशनी पहुँचाई जा सके। इस रोशनी के प्रभाव से अल्सर के लिए ज़िम्मेदार बैक्टीरिया नष्ट होने लगते हैं। यह तकनीक पेट के कैंसर के इलाज में भी फायदेमंद हो सकती है। अध्ययन बताते हैं कि प्रभावित हिस्से पर एक घंटे से भी कम समय के लिए यदि नीली रोशनी डाली जाए तो यह हानिकारक बैक्टीरिया को नष्ट करने के लिए पर्याप्त होती है। ख़ास बात यह है कि इससे बैक्टीरिया तो नष्ट हो जाता है लेकिन शरीर के स्वस्थ ऊतकों पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होता है। यह नया उपकरण हाल ही में विकसित किया गया है और इसपर शोध-अध्ययन व ट्रायल जारी हैं। अमेरिका में हुए शोध बताते हैं कि इस इलाज के बाद बैक्टीरिया की संख्या में ९१ प्रतिशत तक की कमी देखी गई है।

मिर्गी 
मिर्गी के उपचार के लिए फोटोथैरेपी को विकल्प के रूप में देखा जा रहा है। जिन मरीज़ों को मिर्गी-रोधी दवाओं से ख़ास फायदा नहीं होता है, उनके लिए फोटोथैरेपी फायदेमंद साबित हो सकती है। युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में हुई एक ट्रायल में मिर्गी के मऱीजों को तीन महीने तक रोज़ ३० मिनिट के लिए लाइट-बॉक्स से एक्सपोज़ किया गया। इस लाइट बॉक्स से तेज़ सफेद रौशनी निकलती है। मिर्गी का यह उपचार पहले हुए शोध-अध्ययनों पर आधारित है जिससे यह पता चलता है कि जिन दिनों में बादल छाए रहते हैं, तब मरीज़ों को मिर्गी के दौरे अधिक पड़ते हैं। जिन दिनों में तेज़ धूप निकलती है, तब मरीज़ों को कम दौरे पड़ते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि तेज़ रोशनी के प्रभाव से विटामिन-डी और मेलाटोनिन आदि का स्तर बढ़ जाता है जिससे दिम़ाग में दौरों को नियंत्रित करने वाले रसायन स्त्रावित होने लगते हैं।

घाव  
मधुमेह रोगियों के पैरों में बने गंभीर घाव, अधिक दबाव पड़ने पर बनने वाले घाव व अन्य प्रकार के गंभीर घावों के इलाज के लिए लाइट थैरेपी असरकारी है। स्टॉकहोम में हुए इस शोध अध्ययन के अनुसार लाल रोशनी और इंफ्रारेड रोशनी के कॉम्बिनेशन से घाव तेज़ी से भरते हैं। इससे प्रेशर अल्सर ५४ प्रति तेज़ी से ठीक हो गए थे। प्रेशर अल्सर का ९० प्रतिशत हिस्सा केवल ५ हफ्तों में ही भर गया था। जिन मरीज़ों को लाइट थैरेपी नहीं दी गई थी, उनमें घाव भरने के लिए ९ हफ्तों का समय लगा था। 

मुँह की दुर्गंध  
जेरूसलम की हीब्रू युनिवर्सिटी के डेंटल स्कूल के अध्ययनकर्ताओं ने एक शोध में पाया कि नीली रोशनी से मुँह की दुर्गंध को कम किया जा सकता है। दंत चिकित्सक अक्सर दाँतो को सफेद बनाने के लिए इन पर दो मिनिट तक नीली रोशनी डालते हैं। नीली रोशनी न सिर्फ दाँतों को सफेद बनाती है बल्कि थूक में मौजूद दुर्गंधकारी बैक्टीरिया भी इससे ख़त्म होते हैं। इसीलिए अब इसे मुँह की दुर्गंध के इलाज के रूप में देखा जा रहा है। अध्ययनकर्ताओं ने थूक के ५० नमूनों पर शोध कर पाया कि इनपर नीली रोशनी डालने पर दुर्गंध काफी कम हो जाती है। उन्होंने पाया कि रोशनी डालने के बाद थूक के नमूनों में दुर्गंधकारी बैक्टीरिया की संख्या काफी कम हो गई थी। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने शोध अध्ययन में पायाका कि नीली रोशनी से मसूड़ों में बीमारी पैदा करने वाले बैक्टीरिया को ख़त्म किया जा सकता है। शोधकर्ताओं का मानना है कि यह रोशनी मुंह में होने वाले पेरियोडोन्टिस नामक संक्रमण से बचाव और उपचार के लिए भी असरकारी हो सकती है। इस संक्रमण से दांत और हड्डियां क्षतिग्रस्त होने लगती हैं। 

शोध प्रमुख डॉ. निकोस सूकोज के अनुसार,रोशनी डालने पर मुंह में मौजूद कई नुकसानकारी बैक्टीरिया कुछ सेकेंड्स में ही ख़त्म हो जाते हैं। रोशनी से बैक्टीरिया का सुरक्षा-कवच नष्ट हो जाता है जिससे ये नष्ट होने लगते हैं। 

कैंसर का इलाज़ 
लाइट के उपयोग से कैंसर के इलाज के लिए एक विशेष प्रकार के ट्रीटमेंट का उपयोग किया जा रहा है, इसे फोटो-डायनामिक थैरेपी कहा जाता है। इसका सबसे अधिक उपयोग त्वचा कैंसर के इलाज के लिए किया जाता है। इस ट्रीटमेंट में रौशनी के साथ ही एक विशेष प्रकार के ड्रग का इस्तेमाल किया जाता है। यह ड्रग कैंसर की असामान्य कोशिकाओं को रोशनी के प्रति संवेदशील बनाता है। कैंसर के मरीज़ों को दिए जाने वाले इस ड्रग की विशेषता यह है कि इसे केवल कैंसर की कोशिकाएँ ही अवशोषित करती हैं। 

इसके बाद मरीज़ के प्रभावित हिस्से पर नीली रोशनी डाली जाती है। रोशनी के प्रभाव में कैंसर कोशिकाओं द्वारा अवशोषित यह ड्रग एक विशेष प्रकार की ऑक्सीजन उत्सर्जित करने लगता है, जिससे कैंसर की कोशिकाएँ मरने लगती हैं। यह ट्रीटमेंट ट्यूमर को सिकोड़ने और नष्ट करने के लिए प्रभावी है। शरीर के भीतरी हिस्सों में मौजूद कैंसर के लिए ऑप्टिक फाइबर द्वारा रोशनी को शरीर के अंदरूनी हिस्सों में भेजा जा सकता है(सेहत,नई दुनिया,अगस्त,2012 द्वितीयांक)।

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सोमवार, 27 अगस्त 2012

महिलाएं और मोटापा

क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कि आपको पार्टी में जाना हो और आप अलमारी से ऐसे कपड़े ढ़ूँढ़ रही हों जो आपको सुंदर तो दिखाए लेकिन साथ ही आपके मोटापे को भी छिपा ले। अगर जवाब हाँ में है तो यह पीड़ा आपकी भी है। 

हर पाँच में से एक महिला का वज़न ज़्यादा होता है और दस में एक महिला मोटी होती है। ज्यादातर महिलाएँ अनियमित जीवनशैली के कारण मोटापे का शिकार हो रही हैं। आजकल महिलाओं का कामकाज इस तरह का हो गया है कि वो लगातार कई घंटों तक काम करती है या फिर काम के सिलसिले में लगातार सफर करती है। इस दौरान वे अकसर खाना नहीं खाती या फिर तला भुना भोजन कर लेती है, जिससे शरीर में कई मेटाबॉलिक बदलाव आ जाते है। इस तरह जंकफूड के खानपान या फिर लंबे समय तक भूखे रहने से मोटापा बढ़ जाता है। 

इस तरह महिलाएं कुछ किलो वज़न बढ़ा लेती है जो न सिर्फ देखने में बुरा लगता है बल्कि ये कई स्वास्थ संबंधि समस्याओं को भी बुलावा देता है। मोटापे से महिलाओं में दिल की बीमारी का जोखिम, लिपिड असुंतलित होना, ब्लड शुगर अनियमित होना, हारमोन असंतुलन और गर्भधारण न हो पाने जैसी कई समस्याएँ हो जाती है। हालाँकि मोटापे की शिकायत किसी भी आयुवर्ग में हो सकती है लेकिन जब महिलाएँ तीस की उम्र पार कर जाती है, तब ये समस्या ज़्यादा होने की आशंका रहती है। उम्र के इस दौर में अक्सर महिलाएँ परिवार, प्रोफेशन और बच्चों में इस कदर उलझ जाती है कि अपने बढ़ते वज़न की ओर ध्यान ही नहीं दे पातीं। 

फिर वज़न बढ़ने पर ज़्यादातर खाने-पीने के मेन्यू में बदलाव करती हैं या लगातार जिम जाकर पसीना बहाती है। इससे मोटापे पर कोई असर नहीं पड़ता, मांसपेशियाँ ज़रूर मजबूत हो जाती है। खानपान में बदलाव या जिम भी सिर्फ कुछ दिनों तक ही हो पाता है और वज़न कम न होने पर निराशा हो जाती है। कई मोटी महिलाएँ पारिवारिक कार्यक्रमों, ऑफिस की मींटिंग या कई बार ज़रूरी प्रस्तुतिकरणों में हिस्सा नहीं लेती क्योंकि वे मोटापे के कारण आत्मविश्वास की कमी महसूस करती है। आत्मविश्वास न होना बहुत बार महिलाओं को भावनात्मक रूप से तनाव में ला देता है। कई बार तो महिलाएँ इसी कारण अवसाद की भी शिकार हो जाती हैं।


क्या करें 
१. मेटाबॉल्ज़िम पर ध्यान देना बेसल मेटाबॉलिक रेट ( बी एम आर) वो ऊर्जा है जो कोई काम न करने पर भी इस्तेमाल हो जाती है। कई लोग बैठे रहते हैं लेकिन मोटे नहीं होते। इसलिए मेटॉबॉलिक रेट बढ़ाएँ। मिर्च और काली मिर्च खाने से बी एम आर बढ़ता है इसलिए अगली बार जब आप खाना खाएँ तो मीठे की बजाए तीखा चुनें। इसके अलावा व्यायाम भी बी एम आर बढ़ाता है। 

२. फाइबरयुक्त भोजन चुनें ज़्यादा से ज़्यादा फाइबरयुक्त भोजन करें। इससे आप लंबे समय तक खुद को भूखा महसूस नहीं करेंगे। 

३. लिफ्ट का इस्तेमाल न करें हमेशा सीढ़ियों का प्रयोग करें। इससे आपका पसीना बहेगा और ऊर्जा का क्षय होगा। इसलिए समझें कि सीढ़ियों से जाना भी एक तरह का व्यायाम है। 

४. कसरत करें ध्यान से अधिक समय तक कसरत करने वालों को पानी की कमी हो जाती है। इसलिए पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थ लेते रहें। 

५. सेहतमंद जैविक सप्लिमेंट चुने जैविक सप्लिमेंट वज़न कम करने में काफी मदद करते है। इनका सेवन किसी योग्य डाइटीशियन की सलाह से करें(डॉ. अनुजा अग्रवाल,चीफ डाईटीशियन,एम्स का यह आलेख सेहत,नई दुनिया,अगस्त,2012 द्वितीयांक में प्रकाशित है)।

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रविवार, 26 अगस्त 2012

न्यूरॉल्जिया में होम्योपैथी

इस ३५ साल महिला को छह महीनों से गले और छाती की बाईं ओर दर्द रहने की समस्या थी। दर्द बिना कारण ही शुरू हो गया था। एक दिन जब वह सुबह उठी तब उसे गले में कुछ भारीपन महसूस हुआ। उसने सोचा कि यह मौसम के परिवर्तन की वजह से हो सकता है। उसने इस ओर ध्यान नहीं दिया। अगले दिन उसे फिर से गले में दर्द और जलन हो रही थी। इस घटना के बाद दिन ब दिन उसे दर्द और जलन में वृद्घि होती गई। पारिवारिक चिकित्सक को दिखाने पर जाँच में कोई रोग पकड़ में नहीं आया। चिकित्सक ने बताया कि दर्द और जलन किसी संक्रमण की वजह से हो सकती है। इलाज के तौर पर मरीज को एंटीबायोटिक्स और एंटीइन्फ्लेमेटरी औषधियाँ दी गईं। उपचार से लक्षणों में सुधार तो आया लेकिन दर्द पूरी तरह से नहीं गया।

एंटीबायोटिक की पूरी खुराक लेने के बाद मरीज ने औषधियों का सेवन बंद कर दिया। अगले ही दिन से तीव्र दर्द महसूस हुआ। धीरे-धीरे दर्द की तीव्रता बढ़ने लगी। अब हर सुबह वह दर्द के साथ ही उठती थी। दर्द अब इतना तीव्र होता था कि वह दैनिक दिनचर्या के काम करने में सक्षम नहीं थी। दर्द आधा घंटे से लेकर एक घंटे तक बना रहता था। दर्द के दौरान वह बहुत बेचैन हो जाती थी। 

परिवारजनों ने समस्या के हल के लिए नाक कान गलारोग विशेषज्ञ से परामर्श लेने का फैसला किया। जांच के बाद वे दर्द का कोई कारण नहीं जान पाए। जाँचें भी करवाई गईं लेकिन कोई नतीजा सामने नहीं आया। नाक कान गलारोग विशेषज्ञ ने न्यूरॉल्जिया यानी तंत्रिकातंत्र का दर्द मानकर इलाज शुरू किया। मरीज को औषधि के तौर पर अधिक शक्तिशाली दर्दनिवारक एवं एसिडिटी को ख़त्म करने वाली गोलियां दी गईं। उपचार में थोड़ी राहत मिली लेकिन जैसे ही दवा की खुराक कम होती थी,मरीज़ का दर्द फिर उठ खड़ा होता था। एक महीने के इलाज़ के बाद एक दिन सुबह जब उसकी नींद खुली तो उसे गले कीं बायीं ओर एक तीव्र दर्द का एहसास हुआ। 

दर्द अब बायीं छाती के पूरे क्षेत्र में हो रहा था। दर्द इतना तीव्र था कि वह हाथ-पैर चलाने में भी असमर्थ हो गई थी। दर्द के दौरान रह-रहकर बिजली के झटके जैसे भी लग रहे थे। मरीज़ को किसी तरह की कोई राहत नहीं मिल रही थी। 

उसके पास इलाज़ के तौर पर केवल दर्द-निवारक ही शेष रह गया था। परिजनों ने एक दूसरे चिकित्सक का परामर्श लिया। नियमित रूप से

दर्द निवारक औषधियां लेते रहने के कारण मरीज़ का पाचन-तंत्र बुरी तरह प्रभावित हो चुका था। अत्यधिक अम्ल बढ़ जाने के कारण पेट में जलन बनी रहने लगी। पेट की नली में जलन,मिलती आना और उल्टियां आना उसके लिए रोज़ की बात हो गई। पारिवारिक मित्र के आग्रह पर मरीज़ के परिजनों ने होम्योपैथिक इलाज़ कराने का फैसला किया। 

मरीज़ की केसहिस्ट्री और लक्षणों के आधार पर लेकेसिस नामक दवा से इलाज़ शुरू हुआ। मरीज़ को दवा से आराम मिलने लगा। तीन महीने तक उपचार होने के बाद,उसका दर्द पूरी तरह ग़ायब हो गया(इंदौर के डॉ. कैलाश चंद्र दीक्षित का यह आलेख नई दुनिया के अगस्त,2012 के सेहत परिशिष्ट से साभार है। डॉ. दीक्षित कई सालों से अनेक असाध्य रोगों का इलाज दक्षतापूर्वक कर रहे हैं। उन्हें जटिल रोगों के इलाज में महारत हासिल है)।

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शनिवार, 25 अगस्त 2012

मुखरोग का सीधा संबंध तनाव से है

तनाव का असर पूरे शरीर पर पड़ता है। यह मुंह की सेहत भी खराब कर देता है। तनाव की अधिकता की वजह से सिरदर्द, पेटदर्द या उच्च रक्तचाप होने के साथ-साथ ही दाँतों, मसूड़ों और मुँह में छाले भी हो जाते हैं।

तनाव और बेवजह की चिंताओं से मुँह की अंदरूनी सतह पर खराशें पड़ सकती हैं। केंकर सोर या कोल्ड सोर हो सकते हैं। दाँत भींचने की भी शिकायत हो सकती है। दाँत भींचने और सोते समय दाँत पीसने से दाँत खराब हो सकते हैं या मुँह में घाव हो सकते हैं। दाँतों की नियमित सफाई न होने एवं नियत समय पर भोजन न कर पाने के कारण मुँह में संक्रमण हो सकता है। केंकर सोर संक्रामक नहीं होते। 

क्या करें 
केंकर सोर आमतौर पर १० दिन में अपने आप खत्म हो जाते हैं। राहत पाने के लिए केमिस्ट से पूछकर छालों की कोई क्रीम लगाई जा सकती है। खुजली से बचने के लिए तीखा मसालेदार, बहुत गर्म या टमाटर जैसे अम्लीय खाद्य पदार्थों का सेवन न करें।

कोल्ड सोर 
ये हर्पीज सिम्पलेक्स वायरस के संक्रमण की वजह से होते है तथा एक से दूसरे तक पहुँचते हैं। ये ऐसे छाले होते हैं जिनमें तरल पदार्थ भरा रहता है। ये अक्सर मुंह के आसपास होठों के किनोर पर उभरते हैं। ये नाक के नीचे और ठोड़ी के आसपास भी हो जाते हैं। भावनात्मक तनाव की अधिकता के कारण इनकी संख्या बढ़ जाती है। एंटीवायरल औषधियाँ से राहत मिलती है। जैसे ही कोल्ड सोर की शुरूआत हो उनका इलाज चालू कर दें। इससे संक्रमण को सीमित करने में मदद मिलेगी और घर के दूसरे सदस्य इससे बच सकेंगे। 

दाँत किटकिटाना 
तनाव के कारण दाँत भींचना एक आम लक्षण है। कई लोग तनाव को सोते समय भी दूर नहीं रख पाते और दाँत किटकिटाते हैं। गंभीर अवस्था में मरीज दिन में ही अनजाने में दाँत किटकिटाने लगते हैं। दाँत किटकिटाने की समस्या के कारण जबड़े के जोड़ पर अनावश्यक दबाव पड़ता है और दर्द रहने लगता है। चिकित्सक की सलाह से दाँत भींचने और किटकिटाने की समस्या से निजात मिल सकती है।

मुँह से दुर्गंध आना 
अतिरिक्त तनाव के कारण मरीज का मूड भी ठीक नहीं रहता, इस वजह से वह रोज सुबह टूथब्रश वगैरह पर ध्यान नहीं दे पाता। अधिक समय तक टूथब्रश करने या कुल्ले करने जैसी आवश्यक क्रियाओं से मुँह मोड़ने से मुँह के स्वास्थ पर बुरा असर पड़ता है। मसूड़े सड़ने लगते हैं और सूज जाते हैं। यदि पायरिया पहले से ही हो तो समस्या और गंभीर हो जाती है। तनाव के कारण नियमित भोजन करने की आदतें भी बिगड़ जाती हैं। तनावग्रस्त लोग आलू की चिप्स जैसे अस्वास्थप्रद स्नैक्स खाते हैं, कोला ड्रिंक्स पीते हैं और जंकफूड खाते हैं। इसकी वजह से दाँतों में समय से पहले खराबी आने लगती है। मुँह की नियमित साफ सफाई की आदतें पुर्नस्थापित करें। नियमित कसरत करने की आदत डालें। इससे तनाव कम करने में मदद मिलेगी। कसरतों से शरीर की रोग प्रतिरोधक प्रणाली को ताकत मिलती है।

मसूड़ों की बीमारी 
एक शोध अध्ययन के मुताबिक अतिरिक्त तनाव भले ही अल्प समय के लिए ही हो लेकिन इसके कारण दाँतों में प्लॉक बनने की शिकायत होती है। लंबे समय तक तनाव बना रहे तो मसूड़ों से खून रिसने एवं जिंजीवाइटिस जैसी समस्याएं खड़ी होने का जोखिम रहता है। यह स्थिति मसूड़ों के स्वास्थ के लिए खतरनाक है। याद रखें कि नियमित रूप से संतुलित आहार लेना और दंत रोग विशेषज्ञ से समय-समय पर जाँचें कराते रहने से मुँह की सेहत भी बनी रहती है। दिन में दो बार टूथब्रश करना याद रखें। एंटीबैक्टेरियल माउथ रिंस से प्लॉक बनाने वाले बैक्टेरिया की सफाई हो जाती है। इसलिए दिन में एक बार इससे गरारे करना ना भूलें।

ताकि स्वस्थ रहें दाँत :  
पाचन क्रिया मुँह से ही शुरू हो जाती है। खाने को ठीक से पचाने के लिए इसका स्वस्थ होना काफी ज़रूरी होता है। यह खाना पचाने के लिए होता है और कार्बोहायड्रेट का पाचन भी यहीं से शुरू हो जाता है। दाँत खाने को चबाकर पचने में आसान बनाते हैं। लेकिन कई लोग इन्हें खाना चबाने के अलावा भी कई तरह के कामों के लिए उपयोग करते हैं, जिससे ये कमज़ोर पड़ने लगते हैं। दाँतों को स्वस्थ रखने के लिए इनका उपयोग कभी भी इस तरह से न करें : 

-बर्फ का चूरा करने के लिए

-प्लायर एवं हैंगर से दाँत खुरचना

-चिप्स के पैकेट खोलने के लिए

-कठ्ठी गठाने खोलने के लिए

-ट़ेढे-मेढ़े छुरी-कांटों को सीधा करने के लिए

-धूम्रपान से बचें : यह दाँतों और मुँह के लिए काफी नुकसानकारी हैं।

-हर २-३ महीने में टूथब्रश बदलते रहें।ज़्यादा समय तक एक ही ब्रश का इस्तेमाल करने से इसमें बैक्टीरिया पनपने लगते हैं।

-सुबह उठते ही व सोने से पहले दाँतों को ब्रश करना बेहद ज़रुरी है । इससे मुँह में बैक्टीरिया पनपने की दर व दाँतों पर प्लाक बनने की प्रक्रिया को नियंत्रित किया जा सकता है(सेहत,नई दुनिया,अगस्त द्वितीयांक 2012)।

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शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

सीने में जलन से बचाव के 10 उपाय

सीने में जलन हर किसी की चिर-परिचित समस्या है। कोई बिरला ही होगा जिसने यह कष्ट नहीं भोगा होगा। खाने-पीने में थोड़ी बदपरहेज़ी बरतते ही यह तकलीफ हो सकती है। इससे कलेजा मुँह को आ जाता है, सीने में जलन होने लगती है, मुँह में खारा-खट्टा पानी भर आता है और भोजन ऊपर छाती में चढ़ आता है। ऐसे में मरीज़ अनायास ही एंटासिड या हाजमे की गोली लेने को अग्रसर हो जाता है। 

खाने की नली और आमाशय बीच बना वॉल्व इस समस्या की जड़ है। इस वॉल्व का काम भोजन को आगे आमाशय में बढ़ने देना और फिर ऊपर लौटने से रोकना है। वॉल्व के कमज़ोर होने से भोजन ऊपर की ओर लौटने लगता है। इसके साथ ही पाचन के लिए आमाशय में बना तेज़ाब उलट कर खाने की नली में जाने लगता है। नली की अंदरुनी सतह इसे सह नहीं पाती और उसमें जलन होने लगती है। पेट से भोजन मुँह में आने लगता है। मुँह में लार की मात्रा बढ़ जाती है। खट्टा-खारा पानी मुँह में भर आता है। खाने की नली की यह जलन सीने में भी दर्द पैदा कर देती है। यह दर्द गर्दन और बाँहों में भी फैल सकता है। इससे बचने के लिए यह उपाय किए जा सकते हैं - 

१.टमाटर, प्याज़, लाल मिर्च, काली मिर्च, संतरा, चॉकलेट व पेपरमिंट भोजन- नलिका के निकास पर स्थित वॉल्व को कमज़ोर बना देते हैं। इन चीज़ों को खाने से तकलीफ होती हो तो समझ लें कि इनसे परहेज़ करने में ही भलाई है। 

२.इसी प्रकार तले हुए वसा-युक्त व्यंजन भी कई लोगों को रास नहीं आते। इन्हें कम से कम लें।

३.चाय, कॉफी और कोला ड्रिंक्स में पाई जाने वाली कैफीन अन्न नली के वॉल्व की कार्यक्षमता को चौपट कर देती है। यदि सीने में जलन रहती है तो इन पदार्थों से दूरी बना लें। 

४.तंबाकू हर रूप में खाने की नली के वॉल्व का दुश्मन है। यह पेट की सुरक्षा प्रणाली को भी ठेस पहुँचाता है। इसके दुष्प्रभावों से आमाशय तेज़ाब को सहने के काबिल नहीं रहता। 

५.व्यक्ति को विवेकशून्य बनाने के साथ-साथ शराब भोजन-नली के वॉल्व को भी सुस्त कर देती है। यह तकलीफ "नीट" पीने वालों तथा मदिरा के साथ सिगरेट के कश खींचने वालों में सबसे प्रबल होती है। ऐसे में पेट में अम्ल भी अधिक बनता है जिससे स्थिति और भी बदतर हो जाती है।

६.यह छोटी सी बात गांठ बांध लें कि भोजन करने के दो-ढाई घंटे बाद तक लेटने और उलटे झुकने-मुड़ने से परहेज़ करें। गुरुत्वाकर्षीय प्रभाव के आगे वॉल्व को नतमस्तक होना ही पड़ता है। भोजन करने के बाद कुछ देर टहलना सबसे अच्छा है।टहलने न जा पाएँ तो पीठ टेककर सीधे बैठें। इसके लिए यह नियम बना लें कि रात्रि-भोज सोने के समय से कम से कम दो-ढाई घंटे पहले ही कर लें। काम धंधे से देर से लौटना और भोजन करके चटपट बिस्तर में लेट जाना एसिडिटी का कारण बनता है। 

7.खाना कितना ही स्वादिष्ट हो और पकवान कितने ही प्रकार के हों, भोजन करते समय पेट के साथ कभी ज़्यादती नहीं करें। पेटू होने से स्वास्थ्य तो बिगड़ता ही है, पेट भी भोजन को नहीं संभाल पाता। जिनकी भोजननली का वॉल्व कमजोर उन्हें इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए। 

८.कलेजे की जलन से छुटकारा पाने के लिए थोड़ी-थोड़ी देर में पानी पीते रहें। हर आधे-एक घंटे में एक-दो घूँट पानी पीते रहने से एसिडिटी से बच सकते हैं। 

९.मोटापा स्वास्थ्य का बहुत बड़ा शत्रु है। इसके कारण भोजननली का वॉल्व भी काम करना बंद कर देता है। पेट पर लदी चर्बी वॉल्व को शिथिल बनाती है, डायफ्राम के पेशी तंतुओं में भी छितरा-पन पैदा करती है, जिससे पेट कई बार उचक कर छाती में जा बैठता है। इसे ही हायेटस हर्निया कहते हैं। ऐसे में आमाशय से भोजन के उलटकर खाने की नली में जाने पर रोक-टोक खत्म हो जाती है। 

१०.ढीले आरामदायक वस्त्र पहनें। तंग कसी हुई पेंट और जीन्स फैशनेबल ज़रूर दिख सकती हैं, पर पेट के लिए कष्टकारी है। कमर अधिक कसी रहे तो खाने की नली का वॉल्व ठीक से काम नहीं करता। 

एंटासिड लेने के नियम 
कभी-कभार की जलन और बदहज़मी से निपटने के लिए एंटासिड लिया जा सकता है। डायजीन, म्यूकेन, जेल्युसिल आदि सभी इस दृष्टि से उपयोगी हैं पर इन्हें लगातार लेना ठीक नहीं होता। कुछ एंटासिड कब्ज़ पैदा करते हैं, कुछ सोडियम होने के कारण रक्तचाप को प्रभावित करते हैं। जलन लगातार बनी रहती हो जो चिकित्सक से परामर्श लें। हर समय अपने मन से एंटासिड लेना उचित नहीं है। ऐसे में सही प्रकार से जांच-पड़ताल कर समुचित उपचार कराना अनिवार्य हो जाता है। एंडोस्कोपी जांच में विशेषज्ञ खाने की नली में दूरबीन डालकर आहारनली और वॉल्व की सही स्थिति जान सकता है। 

कभी-कभी जलन की जड़ में गंभीर रोग छिपा होता है। बहुत दिनों तक जलन बनी रहने और उसका इलाज़ न होने से खाने की नली के निचले हिस्से में ज़ख़्म बनने का ख़तरा रहता है। इन ज़ख़्मों के बिगड़कर कैंसर में भी तब्दील होने की आशंका रहती है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति में जलन दूर करने की कई प्रभावी दवाएं हैं। कुछ दवाएं अम्लरोधी हैं व अन्य आमाशय में भोजन को आगे बढ़ाने की गति को तेज़ कर स्थिति में सुधार लाती है। सोते समय पलंग का सिरहाना छह इंच ऊपर उठाकर रखने से भी अम्ल खाने की नली में नहीं जाता। यह सरल-सा नुस्ख़ा भी बहुत लोगों में फ़ायदेमंद साबितहोता है(डॉ. यतीश अग्रवाल,सेहत,नई दुनिया,अगस्त २०१२)। 

आयुर्वेदिक उपाय 
3 जनवरी,2012 के दैनिक भास्कर(उज्जैन संस्करण) में,इससे बचने के कुछ कारगर आयुर्वेदिक नुस्खे बताए गए हैं- 

- ताजा पुदीने के रस का रोज सेवन करना है। 

- एक ग्लास पानी में दो चम्मच सेब का सिरका तथा दो चम्मच शहद मिलाकर खाने से पहले सेवन करें, यह भी एक बेहतरीन उपाय है 

- खाना के बाद आधा चम्मच सौंफ चबाएं। 

- भोजन के पहले अलो वेरा जूस का सेवन करें । 

- अदरक का प्रयोग भरपूर मात्रा में करें । पीसी हुई अदरक चाय में प्रयोग करने से भी सीने की जलन कम होती है। 

- मुहं में एक लौंग रखकर धीरे धीरे चूसें । 

- तुलसी के पत्ते चबाने से भी काफी लाभ मिलता है । 

- खाने से एक दो घंटे पहले नींबू के रस में काला नमक मिलाकर पीने से भी सीने की जलन में लाभ मिलता है। नींबू का प्रयोग भोजन में ज्यादा करें। 

- मूली का सेवन करने से भी लाभ मिलता है। 

- मूली का रस पीने से भी लाभ मिलता है। 

- हरड़ का टुकड़ा चबाना भी एक बहुत ही पुराना उपाय है। 

- नारियल पानी का सेवन करें।

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गुरुवार, 23 अगस्त 2012

मानसून में पैरों को चाहिए ख़ास ख्याल

गर्म और उमस भरे मौसम की सबसे बड़ी समस्या पसीने की होती है। पैरों का एरिया ऐसा होता जहां कीटाणु पनपते हैं और बदबू का कारण बनते हैं। हानिकारक चीजें जो पसीने में छिपी होती हैं, को प्रतिदिन धोने से पसीने की बदबू दूर होती है और स्वच्छ-तरोताजा महसूस करते हैं। नहाने के दौरान पैरों पर खास ध्यान दें। पैरों को अच्छी तरह धोने के बाद अच्छी तरह पोंछ लें और फिर इन पर टेल्कम पाउडर छिड़कें । अगर आप बंद जूते पहनती हैं तो जूतों के अंदर भी टेल्कम पाउडर छिड़क सकती हैं। हालांकि गर्मियों में स्लीपर और ओपन सेंडल ही बेस्ट होते हैं क्योंकि इनसे पैरों को हवा मिलती रहती है और पसीना भी सूख जाता है । लेकिन खुले फुटवियर डस्ट को आकषिर्त करते हैं, जिससे पैरों का हाइजिन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बन जाता है। गर्मी और उमस भरे मौसम में पैरों की आम समस्या आसानी से शुरू हो जाती है जिसे ‘एथलीट्स फुट’ कहते हैं क्योंकि यह सूखी त्वचा पर होती है। अगर इन्हें नजरअंदाज किया गया तो यह खुजली के साथ बड़ी समस्या बन सकता है। एथलीट्स फुट की शुरुआत फंगल इंफेक्शन के साथ होती है। इसलिए अगर पैरों में सूखापन नजर आए, खासकर पंजों के बीच खुजली के साथ तो आपको बिना देर किये डर्मेटोलॉजिस्ट से संपर्क करना चाहिए। 

इस समस्या से निबटने के लिए शुरुआती दौर में एंटी फंगल प्रिपरेशन फायदेमंद साबित होता है। हालांकि पसीने का कारण अत्यधिक मॉइश्चर, कसे जूते और उमस भरा मौसम बैक्टिरियल एक्टिविटी का कारण होता है और यह स्थिति को और ज्यादा खराब कर देता है। इसलिए मोजों को अवाइड करते हुए खुले जूते पहनें, टेल्कम पाउडर का प्रयोग करें और पैरों को जहां तक संभव हो पैरों को सूखा रखें। साप्ताहिक पैडिक्योर भी पैरों और नाखूनों को साफ रखने में सहायता करता है और फंगल इंफेक्शन से बचाता है, खासतौर से गर्म और उमस भरे मौसम में। 

होम पेडिक्योर 
-पॉलिश को रिमूव करने के बाद पैरों को एक चौथाई गुनगुने पानी से भरी बाल्टी में डुबोयें। इसमें आधा कप दरदरा नमक और 10 बूंदें नींबू या ऑरेंस एसेंशियल ऑयल (अगर आपके पास एसेंशियल ऑयल नहीं है तो आधा कप नींबू या ऑरेंज जूस का प्रयोग कर सकती हैं) मिलाएं। 

-अगर आपके पैरों की प्रवृत्ति अत्यधिक पसीने वाली है तो कुछ बूंदे टी ट्री ऑयल का प्रयोग करें क्योंकि इसमें जर्मिशियल प्रॉपर्टी पाई जाती है। यह दुर्गध से बचाती है। पैरों को 10 से 15 मिनट तक डुबो कर रखें। नाखूनों को ब्रश की सहायता से साफ करें। यह बहुत ज्यादा हार्ड नहीं होना चाहिए। 

-पैरों के किनारों और तालुओं पर प्यूमिक स्टोन का प्रयोग करें। आप चाहें तो पूरे पैरों पर रफ टॉवल या लूफा से स्क्रब कर सकती हैं। स्क्रबिंग से र्जम्स रिमूव होते हैं। जब यह हो जाए तो पैरों को साफ पानी से धो लें। फिर टॉवल की सहायता से अच्छी तरह पोंछ लें। 

-अगर आपके नाखूनों के कटिंग की आवश्यकता है तो नेल क्लिपर का प्रयोग करें। अंगूठे के नाखून को स्क्वायरली काटे। इन्हें स्मूद करने के लिए इमरी बोर्ड का प्रयोग करें। बढ़ते नाखूनों को बचाने के लिए गोलाई में काटने से बचे। नाखूनों के क्यूटिकल्स न काटें। इनमें क्रीम लगाएं और कॉटन बड की सहायता से पीछे की ओर धकेल दें। 

-पैरों और नाखूनों पर क्रीम लगाएं और त्वचा पर मसाज करें, यह क्यूटिकल्स पर भी काम करेगा। नाखूनों को साफ करने के लिए शार्प इंस्ट्रूमेंट्स का प्रयोग न करें। हील्स पर खास ध्यान दें, अगर आवश्यकता हो तो यहां ज्यादा क्रीम लगाएं। 

-मसाज के लिए नाखून से एड़ी तक अपर्वड स्ट्रोक का प्रयोग करें। फिर गीले तौलिये से पैरों को पोंछ लें और पैरों पर टेल्कम पाउडर लगाएं। 

-अगर आप पॉलिश लगाना चाहती हैं तो अंगुलियों के बीच में कॉटन वूल लगाएं। नाखून के बेस से नाखून के टिप्स तक नेल वार्निश के लंबे स्ट्रोक्स लगाएं। जब पहला कोट सूख जाए, तब कलर का दूसरा कोट लगाएं।


घरेलू उपाय : 
फुट लोशन : तीन टेबलस्पून ऑफ रोज वाटर, दो टेबलस्पून नींबू का रस और एक टीस्पून शुद्ध ग्लिसरीन को अच्छी तरह मिलाएं। इसे पैरों पर लगाएं और आधे घंटे के लिए छोड़ दें। 

कूलिंग फुट बाथ : गुलाब जल, नींबू का रस और यू डी कोलोन के छींटें ठंडे पानी में डालें और पैरों को इसमें डुबोयों। यह पैरों को साफ, ठंडा और बदबू से दूर करेगा। 

कूलिंग मसाज ऑयल : 100 एमएल ऑलिव ऑयल और दो ड्रॉप्स यूकोलिप्टस ऑयल, दो ड्रॉप्स रोजमेरी ऑयल और तीन ड्रॉप्स खस या रोस ऑयल लें। इन्हें एक साथ मिलाएं और एयर टाइट ग्लास जार में रखें। इसका थोड़ा भाग फुट मसाज के लिए प्रयोग करें। यह त्वचा को ठंडा और उसकी रक्षा करता है(आधी दुनिया,राष्ट्रीय सहारा,16.8.12)।

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बुधवार, 22 अगस्त 2012

पशुओं के प्यार में रोग न पालें

पालतू पशु, ख़ासतौर से कुत्ते एवं बिल्लियाँ अमूमन बच्चों की ज़िद की वजह से पाले जाते हैं। लेकिन पशुओं को पालते वक्त इस बात को अक्सर तवज्जो नहीं दी जाती है कि कुछ रोग जानवरों के ज़रिये इंसानों में भी फ़ैल सकते हैं। ग्रामीण दूध के लिए गाय या भैंस पालते हैं। यदि ये स्वस्थ न हों तो इनसे भी मनुष्यों में बीमारिया फ़ैल सकती है। कई बार कच्चा दूध पीना या मांस खाना भी बीमारियों का कारण बनता है। 

माता : यह विशेषतः भैंसों का रोग है। रोगी पशु के थनों में चेचक के दाने पड़ जाते है। जब व्यक्ति इसके थनों को दुहता है तो यह रोग उस पर हमला कर देता है। उसे बुखार के साथ हाथों में दाने ,दर्द व सूजन आ जाती है। ऐसे पशु को दस्ताने पहन कर दुहना चाहिए। रोगग्रस्त पशु को अंत में दुहना चाहिए।

मुँह एवं खुरपका : गाय या भैंसो का यह विषाणुजनित रोग मनुष्यों में भी हो सकता है। इस रोग में पशु को खुरों और मुँह में छाले पड़ जाते हैं। यदि मनुष्य ऐसे पशु के संपर्क में आए तो उसे भी हाथों, तलवों में फफोले आ सकते हैं। इससे बचने के लिए चौपायों को हर वर्ष टीके लगाए जाते हैं।

टी.बी. रोग : पशुओ में टी.बी. एक आम रोग है। इंसानों में यह रोग हवा या दूषित पानी के ज़रिये पहुँचता है। टी.बी. ग्रस्त पशुओं का दूध बगैर उबाले पीया जाए तो यह रोग मनुष्यों में हो सकता है। टी.बी. ग्रस्त पशु को कफ़ हो जाता है, शरीर सूखता जाता है,, दस्त लग जाते हैं। पशुओं में यह लक्षण दिखने पर ग्वाले के भी रोगग्रस्त होने की आशंका होती है। इंसानों को लगातार ख़राश बने रहना, कफ में खून आना, तेज़ बुखार,वज़न में कमी,रात को पसीना आना,सीने में दर्द जैसे लक्षण सामान्य हैं। इस तरह रोगों से बचने के लिए दूध को हमेशा उबालकर ही पीयें। 

एंथ्रेक्सः यह रोग लगभग सभी प्राणियों में होता है। जिन क्षेत्रों में इसके रोगाणु होते हैं,वहां यह रोग लम्बे समय तक रहता है। इंसानों में यह रोग बीमार पशु के मल-मूत्र के सम्पर्क में आने से हो सकता है। इसके अलावा,संक्रमित बाल,चमड़े,मांस या दूध से भी फैल सकता है। मनुष्यों में यह रोग यदि संक्रमित चमड़ी द्वारा हो तो इससे नीले-काले रंग के फोड़े होने लगते हैं। इसके अलावा,तेज़ बुखार,दर्द और ज्वर तथा कमज़ोरी जैसे अन्य लक्षण भी सामने आते हैं। खाने के द्वारा यह संक्रमण होने पर गले में सूजन,आवाज़ में घरघराहट,खांसी तथा सांस लेने में तक़लीफ़ जैसे लक्षण दिखाई देते हैं। एंथ्रेक्स से मृत पशु का पोस्टमार्टम कभी नहीं करना चाहिए। गांवों में प्रत्येक मृत पशु को फाड़ दिया जाता है जो अनजाने में ही ख़तरे का कारण बन सकता है।

खुजली या स्केबीज़ः कुत्तों में होने वाली खुजली अक्सर उनके मालिकों के लिए सरदर्द का कारण बन सकती है। इसमें कुत्ता खुजा-खुजा कर घाव कर लेता है। ऐसा होने पर दस्ताने पहनकर कुत्ते के घाव को बेंजाइल दवा लगाएं। रोगग्रस्त कुत्तों को पालने वालों को भी यह रोग हो सकता है। उन्हें गर्दन के नीचे वाले हिस्सों(हाथ-पैर) में हल्की खुजली होती रहती है जो रात के समय बढ़ जाती है। तंग बस्तियों में यह खुजली आम तौर पर पाई जाती है। प्रभावित व्यक्ति को सुबह चादर और तकिये का कवर और पहनने के कपड़े-सभी को खौलते पानी में भिगोकर साबुन से धोना चाहिए। 

रेबीज़ 
पिछले एक दशक में कुत्ता पालने का शौक बढ़ा है। तभी से रेबीज़ रोग के बारे में लोगो में चेतना बढ़ी है। यह पशुओं से होने वाली सबसे खतरनाक बीमारी है। रेब़ीजग्रस्त पशु या मनुष्य को बचाया नहीं जा सकता है, यह लाइलाज बीमारी है। कुत्तों के काटने से होने वाली इस बीमारी में विषाणु लार के ज़रिए घाव में प्रविष्ट होते हैं। कई बार यदि गाय या भैंस को पागल कुत्ता काट ले और अनजाने में पशुपालक पशु के मुँह को जाँचने के लिए उसके मुंह में हाथ डाल दें तो भी यह रोग हो सकता है। रेबीज़ ग्रस्त कुत्तो में इस रोग के लक्षण दो रूपों में दिखाई देते हैं। रोगग्रस्त पशु पागलों की तरह बर्ताव करता है या अपने आस-पास आने वाले सभी मनुष्यों एवं पशुओं को अकारण ही काटता है। रोगी कुत्ते के जबड़ों में लकवा हो जाता है। वह भौंकना व पानी पीना बंद कर देता है। दूसरे रूप में कुत्ता अनमना होकर एक कोने में पड़ रहता है। अंत में पैरो और जबड़ों के लकवे से कुत्ते की मौत हो जाती है। देश में इस रोग से हर साल ५०,००० व्यक्ति मारे जाते है। इस रोग के लक्षण २० वर्षो बाद भी देखे जाते हैं। रेब़ीजग्रस्त व्यक्ति को हल्का बुखार, सिर दर्द, बदन में जलन, मुँह से लार टपकना, पानी देखकर डर लगना, चक्कर आना, निगलने में परेशानी होने जैसे लक्षण दिखई देते हैं। रोग की अंतिम स्थिति में लकवा या नीम बेहोंशी की हालत हो जाती है। यदि एक बार यह लक्षण दिखने लगे तो फिर निश्चित तौर पर मौत होती है।
रेबीज़ से बचाव 
कुत्ते के काटे जाने के बाद घाव का तुरंत प्राथमिक इलाज करें, टीके लगवाएँ, गाय या भैंस के रोगग्रस्त होने पर उसका दूध फैंक दें। यह रोग लार द्वारा फैलता है एवं नसों के ज़रिये दिमाग तक पहुँचता है। यदि घाव गहरा हो, दिमाग के पास यानी चेहरे या कंधे पर हो तो टीकाकरण में ज़रा सी भी देर न करें। जिस कुत्ते ने काटा हो उसपर कुछ दिनों तक नज़र रखें। यदि वह कुछ दिनों में ही मर जाए तो टीके का कोर्स जल्द से जल्द पूरा कर लें। रेबीज़ एक संक्रामक रोग है, इससे बचाव के लिए तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें, झाड़-फूँक के चक्कर में न पड़ें।

इन रोगों से बचने के लिए पालतू पशु की उचित देखभाल ज़रूरी है। पशुओं के साथ थोड़ी सावधानी रखी जाए तो इनके ज़रिए फैलने वाली बीमारियों का ख़तरा काफी कम हो जाता है(डॉ. संदीप नानावटी,सेहत,नई दुनिया,अगस्त द्वितीयांक 2012)।

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मंगलवार, 21 अगस्त 2012

देसी नुस्खों से लाएं त्वचा में निखार

चेहरे पर जरा सा ध्यान मन में खूबसूरती का अहसास भर देता है। आपकी त्वचा का रोम-रोम हो प्यारा-प्यारा और छू लेने पर त्वचा लगे रेशम सी मुलायम। आप अपने रसोईघर की कुछ वस्तुओं का उपयोग करें और पायें साफ सुन्दर कोमल त्वचा। जरूरत है तो बस थोड़ा ध्यान देने की और उनका सही ढंग से इस्तेमाल करने की। 

-मलाई और सेब का रस मिलाकर चेहरे पर लगायें। 20 मिनट बाद पानी से धो डालें और पायें कोमल चेहरा। 

-मलाई,नीबू का रस, शहद बराबर मात्रा में लेकर चेहरे पर गर्दन व हाथों पर लगायें। सूखने पर रगड़कर निकालें। फिर पानी से धो डालें। पायें खूबसूरत व साफ त्वचा। 

-संतरे के सूखे छिलके के पाउडर में अंडा मिलाकर लगायें। चेहरा साफ तो होगा ही,साथ में मुंहासों से भी छुटकारा पायेंगे। 

-संतरे के छिलके के पाउडर में शहद,मलाई मिलाकर उबटन तैयार करें। त्वचा को साफ व सुन्दर बनाने में सहायक है। 

-संतरे के रस को जौ, मलका के पाउडर में मुलतानी मिट्टी मिलाकर पैक तैयार करें। 20मिनट बाद धो डालें। 

-मुलतानी मिट्टी,नीबू या संतरे का रस मिलाकर चेहरे पर लगायें। सूखने पर धो डालें और पायें साफ सुन्दर त्वचा। 

-मूली का रस चेहरे पर नियमित रूप से लगायें। झाइयां कम होंगी। 

-मूली का रस व मक्खन मिलाकर लगायें। झाइयां तो कम होंगी ही, साथ ही झुर्रियों से भी राहत पायेंगे। 

-मूली के रस में मलाई मिलाकर लगायें। ब्लीच का काम करेगा। 

-चेहरे पर क्रीम लगाते उसमें 3-4 बूंदें नीबू के रस की मिलाकर लगायें। इससे चेहरे की गंदगी तो निकलेगी ही, साथ में मुहांसों से बचाव होगा। 

-बेसन, अंडा, नीबू का रस मिलाकर लगायें। मुंहासों से राहत पायेंगे। साथ में त्वचा में कसाव भी आयेगा। 

-बेसन, अंडा,टमाटर का गूदा, मैदा मिलाकर चेहरे पर लगायें। चेहरा साफ होगा और आप पायेंगे खूबसूरत त्वचा। 

-खीरे का रस, नीबू का रस एक चुटकी हल्दी मिलाकर चेहरे पर लगायें। रंग साफ होगा व दागों से राहत पायेंगे।

-कच्चा दूध, हल्दी मिलाकर चेहरे पर लगायें। रंग साफ होगा।

-चंदन पाउडर, गुलाब जल व मुलतानी मिट्टी मिलाकर चेहरे पर लगायें। रंग साफ होगा। 

-चावल का आटा और जौ का आटा मिलाकर उसमें अंडे का पीला भाग डालकर चेहरे पर लगायें। पायें चेहरे पर नयी चमक। त्वचा में कसाव आयेगा। 

-जौ, मलका मसूर की दाल का पाउडर मिलाकर दो चुटकी मैदा मिलाकर उसमें संतरे का रस मिलाकर पैक तैयार करें और चेहरे पर लगायें। दाग धब्बे दूर होंगे व रंग साफ होगा। 

-जौ का आटा, चने का आटा, दूध पाउडर, खीरे के रस में मिलाकर चेहरे पर लगायें(नीतू सिंह,दैनिक ट्रिब्यून,30.8.12)।

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सोमवार, 20 अगस्त 2012

बैकपेन से निज़ात

बाहर की ओर खुलने वाली घर की खिड़की जब आप खोलते हैं तो शायद ही इस ओर ध्यान जाता है कि आप किस हद तक शरीर को झुका रहे हैं और इसका प्रभाव आपकी रीढ़ की हड्डी और पीठ पर कितना पड़ता है। बैक पेन की बात हो या फिर गर्दन या कंधों का दर्द- अधिकतर लोग परेशान रहते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक दस में से सात लोगों को गर्दन का दर्द रहता है। 90 फीसद मामलों में इस कारण सिरदर्द होता है। इससे राहत पाने के लिए वे जहां ऑलिव ऑयल से मसाज करते हैं, वहीं बर्फ के टुकड़े भी रगड़ते हैं या फिर गर्म पानी से सेंक देते हैं। इस तरह के दर्द से बचने के लिए अच्छा उपाय है कि आपका सिर गर्दन पर संतुलित हो और किसी ओर झुका न हो। खाना बनाने खासकर रोटी बनाने के दौरान झुक कर काम करने, सोफे पर बैठने या फिर लैपटॉप यूज करने के दौरान, पीठ झुकाना आम बात है। यही कारण है कि हम में लाखों लोग काम के दौरान कूबड़ बने रहते हैं। हालांकि हर दिन हमारे सिर पर इतना काम रहता है कि हम थोड़ी देर के लिए भी इस बारे में गंभीरता से नहीं सोचते, जो बाद में शरीर के इन भागों में दिक्कतें पैदा करती है। शरीर कार की तरह है। यह तुरंत ब्रेकडाउन नहीं होता है। कार के कलपुर्जे जब घिस जाते हैं,तभी ब्रेकडाउन होता है। 

निजात 
हममें से अधिकतर लोग जो सामान्य तौर पर गलती करते हैं, वह है अधिक भारी सामान उठाना। इससे पीठ पर काफी बल पड़ता है। फर्श से भारी सामान उठाने के दौरान शरीर को काफी क्षति पहुंचती है। भारी वजन उठाते समय शायद ही किसी का ध्यान इस ओर जाता है कि आपके घुटनों पर इसका क्या बुरा प्रभाव पड़ता है। ब्रिटिश ओस्टेपैथिक एसोसिएशन के टिम अलरडिक के मुताबिक, जब आप सामान उठाने के लिए झुकते हैं तो रीढ़ की हड्डी के डिस्क पर दबाव पड़ता है और वह बाद में समस्या के तौर पर सामने आती है। जब भी आप कोई सामान उठाएं खुद को सीधे रखें और भार को अपने शरीर के नजदीक रखें। इससे आपकी रीढ़ की हड्डी में दर्द नहीं उठेगा। हील वाले सैंडल न पहनें। यह भी पीठ दर्द का कारण होता है। 

बच्चों के साथ लांग ड्राइव पर जाना और बार-बार उनसे बात करने के लिए मुड़ना आपके गले के लिए खतरनाक हो सकता है। बात करने के लिए पीछे की सीट पर मुड़ने से पीठ की मांसपेशियों प्रभावित होती हैं। कार की सीटें भी आपकी पीठ और गर्दन के लिए आफत बन सकती हैं क्योंकि अधिकतर कार की सीटें या तो बाउल के आकार की होती है और स्लो प बैक होता है। यह हमारे शरीर को बुरी तरह प्रभावित करती हैं। इन सीटों के कारण पीठ की डिस्क क्षतिग्रस्त होती है। इससे मांसपेशियों, नसों आदि में खिंचाव आता है। इसलिए कार चलाते वक्त अपने पोश्चर का ख्याल रखें। हमेशा सीधी बैठें। जब भी आप लंबी यात्रा पर जाएं तो बीच में रुकें और हर घंटे अपने पैरों को सीधा करें। 

अमेरिकन जर्नल ऑफ मेडिसिन में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, जो लोग धूम्रपान नहीं करते है, उनके मुकाबले ज्यादा पीने वाले लोगों को पीठ दर्द अधिक होता है। धूम्रपान के कारण रक्त संचरण में बाधा पहुंचती है और इस कारण रीढ़ और जोड़ों में दर्द उत्पन्न होता है। सिगरेट में मौजूद हानिकारक पदार्थ हड्डियों को कमजोर करते हैं, जो ऑस्टियोपोरोसिस को बढ़ाते है। इन दिनों काफी नीचे और गहरे सोफे बन रहे हैं। इस पर अधिक समय तक बैठने से रीढ़ की हड्डी अंग्रेजी के ‘सी’ आकार की हो जाती है। इससे पीठ की डिस्क, मांसपेशी और स्नायुबंधन में तनाव आता है।

बैठते वक्त अतिरिक्त तकिये का प्रयोग करें। इस बात का जरूर ध्यान रखें कि आपके बिछावन पर कितने तकिये हैं, गलत तरीके से सोने और झुककर चलने से भी हानि पहुंचती है। अधिक ऊंचा तकिया जहां आपके सिर को आगे करता है, वहीं कम ऊंचा तकिया पीछे धकेलता है। दोनों ही स्थितियों से गर्दन और रीढ़ की ऊपरी हड्डी पर असर पड़ता है। सोते समय ध्यान रखें कि आपकी गर्दन और रीढ़ की हड्डी सीधी हो।

लैपटॉप पर काम करने के दौरान माउस की अपेक्षा टचपैड गर्दन और कंधे के लिए अधिक हानिकारक है। जब आप टचपैड पर कार्य करते हैं तो आपको अपने हाथों को इधर-उधर करना पड़ता है और इससे आपके कंधे और गले में तनाव आता है। जबकि माउस का प्रयोग करते वक्त आपका शरीर सही पॉजिशन में रहता है। जब भी कंप्यूटर पर काम करें, अपने सिर और शरीर को संतुलित रखें। बाजार में छोटे आकार में मोबाइल फोन आ रहे हैं और उसके स्क्रीन को देखने के लिए हमें अधिक झुकना पड़ता है और आंखों पर अधिक जोर देना पड़ता है। इससे आपके दिमाग पर अधिक जोर पड़ता है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि जिस कान से आप फोन का अधिक इस्तेमाल करते हैं, शरीर के उस हिस्से में नर्वस सिस्टम प्रभावित होता है जबकि मांसपेशियों और डिस्क में तनाव आता है। मोबाइल या फोन से बात करते समय सिर को किसी ओर न झुकाएं। हेड सेट या स्पीकर फोन बेहतर ऑप्शन है। (आधी दुनिया,राष्ट्रीय सहारा,16.8.12 में विनीता की प्रस्तुति)

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गुरुवार, 16 अगस्त 2012

हाइपर-एसिडिटी में उपयोगी है धनुरासन

आजकल एसिडिटी की शिकायत करने वालों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। खाने-पीने का सही समय न होना और कई ऐसे कारण हैं जो आपको इस समस्या की ओर ले जाते हैं। कुछ उपाय करके आप इससे बचे रह सकते हैं। यह एक ऐसा उदर रोग है, जो आमाशय में अम्ल की मात्रा बढ़ जाने से उत्पन्न होता है। इस रोग में पाचक रस अनियंत्रित ढंग से बढ़ जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति को अनेक परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है। गलत जीवनशैली और फास्ट तथा जंक फूड के इस जमाने में लगभग हर व्यक्ति इस समस्या से पीड़ित नजर आता है। 

रोग के लक्षण 
पेट व छाती में जलन, खट्टी डकारें आना, पेट में दर्द, भारीपन, गैस की शिकायत, गले में जलन, कब्ज, अपच आदि। इस रोग का प्रमुख कारण हमारी गलत आदतें तथा मानसिक तनाव है। योग के नियमित अभ्यास से हम इस रोग के सभी प्रमुख कारण-आरामतलबी, व्यायाम की कमी, मानसिक तनाव तथा भोजन के असंतुलन पर नियंत्रण कर लेते हैं। हाइपर एसिडिटी को दूर करने में यौगिक क्रियाएं काफी फायदेमंद साबित होती हैं। 

आसन 
इसके समाधान हेतु धनुरासन, पवनमुक्तासन, वज्रासन, शशांकासन, मण्डूकासन, योगमुद्रा, भुजंगासन आदि बेहद कारगर हैं। पवनमुक्तासन के 10-12 चक्रों का प्रतिदिन अभ्यास करने मात्र से यह समस्या काफी हद तक दूर हो जाती है। 

धनुरासन की अभ्यास विधि 
पेट के बल जमीन पर लेट जाएं। दोनों पैरों को घुटने से मोड़ लें। घुटनों तथा पंजों के बीच में एक फुट की दूरी बनाएं। इसके बाद पैर के पंजे या अंगूठे को पकड़कर (हाथों से) सिर-धड़, जांघें तथा घुटनों को जमीन से यथासंभव ऊपर उठाएं। इसके पश्चात थोड़ी देर (आरामदायक समय तक) इस स्थिति में रुकें। फिर वापस पूर्व स्थिति में आएं। इसकी तीन-चार आवृत्तियों का अभ्यास करें।

सावधानियां 
हार्निया तथा अल्सर से पीड़ित लोग इसका अभ्यास न कर पवनमुक्तासन का अभ्यास करें। 

ध्यान की अभ्यास विधि 
पद्मासन, सिद्धासन, सुखासन या कुर्सी पर बैठकर रीढ़, गला व सिर को सीधा कर लें। आंखों को ढीली बन्द कर चेहरे को शिथिल कर लें। अब मन में उठने वाले विचारों का द्रष्टा बनने का प्रयास करें। धैर्यपूर्वक मन के विचारों पर ध्यान बनाए रखें। इस विधि का कुछ महीनों तक नियमित अभ्यास करने पर मन शान्त, निर्विचार हो जाता है। प्रतिदिन दस से पन्द्रह मिनट तक इसका अभ्यास करना चाहिए। इससे मन निद्र्वन्द्व तथा चिन्तारहित हो जाता है। 

आहार 
हल्का आहार लें। इसमें दलिया, चावल, जौ का सत्तू, उबली सब्जियां एवं मौसमी फल पर्याप्त मात्र में शामिल करें। तीखा, मसालेदार खाना, मिठाई, केक, मैदा, शराब, धूम्रपान, कॉफी तथा चाय से सख्त परहेज करें।

इन बातों का भी रखें ध्यान 
- भोजन खूब चबा-चबाकर खाएं। 
- अधिक समय तक खाली पेट न रहें। 
- नियमित रूप से समय पर खाएं। 
- सूर्योदय के पहले बिस्तर छोड़ दें तथा एक-दो गिलास पानी घूंट-घूंट कर पीकर शौच जाने की आदत डालें(कौशल कुमार,हिंदुस्तान,दिल्ली,16.8.12)।

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मंगलवार, 14 अगस्त 2012

एलर्जी में सफाई का रखें ख़ास ध्यान

एलर्जी एक ऐसी बीमारी है, जिसका कारण आमतौर पर समझ में नहीं आता। लेकिन कुछ ऐसे लक्षण तो हैं ही, जो ये बता देते हैं कि आप एलर्जी से पीड़ित हैं। इसके बाद एक ब्लड टेस्ट आपकी मुश्किलें आसान कर सकता है। आइए जानें, क्या है एलर्जी, कैसे पाएं राहत।

रश्मि शर्मा आजकल ऑफिस में बड़े आराम से काम करती हैं और समय पर घर भी चली जाती हैं। लेकिन 10-15 दिन पहले तक ऑफिस में आते ही न केवल वह, बल्कि उनके साथी भी उनसे परेशान होने लगे थे। कभी छींक तो कभी नाक पर रुमाल रखना और फिर बार-बार टॉयलेट जाना। उनकी एक सीनियर ने उन्हें सलाह दी कि तुम्हें एलर्जी हो गई है, डॉक्टर से मिल लो। रश्मि को लगा कि भला इसमें डॉक्टर क्या करेगा, जुकाम लगता है, खुद ही ठीक हो जाएगा। लेकिन आखिरकार उसे अपनी सीनियर की बात माननी पड़ी थी और डॉक्टर के पास जाना पड़ा था। डॉक्टर ने एक ब्लड टेस्ट के बाद कुछ दवाएं दीं, जिसके एक सप्ताह सेवन के बाद ही रश्मि की तबियत तेजी से ठीक होने लगी।

प्रशांत को तो समझ ही नहीं आ रहा था कि उन्हें क्या हुआ। उन्हें सांस लेने में तकलीफ होने लगी थी और अक्सर दम फूलने लगता था। उन्होंने तो एक बार डॉक्टर को भी अपनी समस्या दिखा ली थी, लेकिन कोई खास लाभ नहीं हो रहा था। एक दिन उनके घर एक अतिथि आए, जिन्हें उनकी समस्या का कारण उनके घर में धमा-चौकड़ी मचा रहे दो पालतू कुत्ते लगे। प्रशांत अपने अतिथि की बात मानने को तैयार नहीं थे, क्योंकि वे लगभग तीन महीने ही पहले घर लाए उन कुत्तों से काफी प्यार करने लगे थे। फिर जब वे डॉक्टर के पास गए तो उन्होंने इस बात की पुष्टि कर दी कि उन्हें कुत्तों की वजह से ही एलर्जी है। डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने कुत्तों को घर से बाहर निकाला और देखते-देखते उन्हें तेजी से स्वास्थ्य लाभ होने लगा।

एलर्जी बीमारी ही ऐसी है, जो बीमारी लगती नहीं, लेकिन एक बार लग जाए तो परेशान कर देती है। हर व्यक्ति के शरीर की अपनी क्षमता होती है और उसी के अनुरूप वह बाहरी चीजों के साथ तालमेल बिठा पाता है। लेकिन कुछ तत्व ऐसे होते हैं, जिसके साथ शरीर तालमेल नहीं बिठा पाता। ऐसे तत्वों को एलर्जेट कहते हैं, जो एलर्जी का कारण बनते हैं। अगर आपको खुशबू पसंद नहीं है तो फूल से भी एलर्जी हो सकती है। धूल-मिट्टी पसंद नहीं है तो धूल-मिट्टी भी आपकी एलर्जी का कारण बन सकती है। यहां तक कि आपका पालतू जानवर भी आपको एलर्जी की तकलीफ देकर सता सकता है। लेकिन समय पर इसकी पहचान हो जाए तो आप इससे राहत पा सकते हैं।


जैरथ एलर्जी टेस्टिंग एंड ट्रीटमेंट सेंटर के प्रमुख डॉ. प्रशांत जैरथ कहते हैं, ‘अगर एलर्जी की पहचान समय पर हो जाए तो इसका इलाज संभव है।’ वे कहते हैं कि अब तो इसकी पहचान भी काफी आसान हो गई है। केवल एक ब्लड टेस्ट से यह पता लग जाता है कि एलर्जी से पीड़ित व्यक्ति को किस कारण एलर्जी है। यह पता लग जाने के बाद इलाज काफी आसान हो जाता है। इस इलाज के तहत पीड़ित व्यक्ति को कुछ समय के लिए दवा खानी पड़ती है, जिससे उनके शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत हो जाती है और रोगी की एलर्जी की समस्या भी ठीक हो जाती है। डॉ. जैरथ खास सलाह देते हैं कि एलर्जी के रोगी को लापरवाही बिल्कुल नहीं बरतनी चाहिए। 



एक शोध कहता है कि अपने देश में सबसे अधिक लोग डस्ट एलर्जी से परेशान हैं। यानी उन्हें डस्ट से एलर्जी होती है। आखिर रश्मि के साथ भी ऐसा ही तो था। एलर्जी से परेशान कुल लोगों में ऐसे लोग 80 प्रतिशत हैं। इसके बाद पालतू जानवरों से लोगों को काफी एलर्जी होती है। ऐसे लोग लगभग 15 प्रतिशत बताए जाते हैं। खाने-पीने की चीजों से बच्चों को एलर्जी की समस्या अधिक होती है। फूड एलर्जी से 6 से 8 प्रतिशत बच्चों परेशान रहते हैं। इसके अलावा हेयर डाई से भी एलर्जी होती है। मौसमी एलर्जी भी किसी व्यक्ति को खास मौसम में परेशान कर सकती है। इसलिए आपको एलर्जी हो तो उसके कारणों को पहचानने की कोशिश करें और समय रहते डॉक्टर से मिलें, ताकि आप इस बीमारी से राहत पा सकें। 



इनसे हो सकती है एलर्जी 

- खाद्य पदार्थ : डेयरी उत्पाद, मूंगफली, मक्का, अंडा, मछली, सोयाबीन, नट्स आदि। 

- दवाएं : टेट्रा साइक्लीन, पेंन्सिलीन, डिलानटिन, सल्फोनामाइड्स। 

- पर्यावरणीय कारण : पराग कण, फफूंद, धूल, आर्द्रता आदि। 

- पालतू जानवर : कुत्ते, बिल्ली आदि। 

- रसायन : कोबाल्ट, निकिल, क्रोमियम आदि। 

क्या करें 
- जिन लोगों को धूल से एलर्जी है, वे कार में सफर के समय खिड़कियां बंद रखें और एयर कंडीशन का उपयोग करें। यह हवा को फिल्टर कर ठंडी और सूखी बनाता है। 

- बरसात में घर में और उसके आसपास गंदगी न पनपने दें। 

- ताजा और स्वच्छ भोजन करें। 

- घर में हवा आने दें। 

- अगर एयर कंडीशन का प्रयोग करें तो यह सुनिश्चित करें कि कमरे में आद्र्रता कम हो। फिल्टर थोड़े-थोड़े समय बाद बदलते रहें। 

- सफाई का विशेष ख्याल रखें। घर में कहीं भी धूल इकट्ठी न होने दें। 

- किताबों की आलमारियों की समय-समय पर सफाई करते रहें। 

- घर में लकड़ी का फर्नीचर हो तो उसकी सफाई का विशेष ख्याल रखें। उसमें दीमक न लगने दें। 

- घर में कूड़ा-कचरा न इकट्ठा करें। 

- घर के अंदर नमी न पनपने दें(हिंदुस्तान,दिल्ली,26.7.12)। 

अद्यतनःयह आलेख दैनिक भास्कर भूमि में दिनांक 17.8.12 को प्रकाशित किया गया है जिसे इस लिंक पर देखा जा सकता है।

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बुधवार, 8 अगस्त 2012

चालीस के बाद गॉलब्लैडर की नियमित जांच करायें

गालब्लैडर स्टोन यानी पित्त की थैली में पथरी, आम बीमारी हो गई है। देश में अधिक दूध और दुग्ध उत्पाद का प्रयोग करने वाले राज्यों में यह बीमारी ज्यादा होती है। इनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, झारखंड, हरियाणा, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में यह बीमारी अधिक पायी जाती है। आंकड़ों की बात करें तो 40 साल से अधिक उम्र के 10-15 प्रतिशत लोगों को यह बीमारी होती है। महिलाओं में यह संख्या ज्यादा है। 50 साल से अधिक उम्र की 30 प्रतिशत महिलाओं में यह बीमारी आम है। 

गालब्लैडर स्टोन को लोग अकसर जल्दी समझ नहीं पाते क्योंकि केवल 25 से 30 प्रतिशत लोगों में इसके शुरुआती लक्षण दिखते हैं, वह भी स्टोन बनने के लगभग दो साल बाद। स्टोन बनने के बाद पेट में दर्द महसूस होता है, लेकिन जिनको दर्द या लक्षण नहीं महसूस होते वे इस बीमारी को हल्के में लेते हैं। जानते हुए भी कि उन्हें पथरी है, वे गंभीर नहीं होते। यह कभी-कभी जानलेवा साबित होता है। लोग सोचते हैं कि अगर गालब्लैडर में स्टोन है और दर्द नहीं करता और दूसरी समस्या नहीं हो रही है तो ऑपरेशन जरूरी नहीं है लेकिन देखा गया है कि गालब्लैडर कैंसर के 80 प्रतिशत मामलों में मरीज को पहले पथरी थी। इसके चलते कैंसर हुआ है। स्टोन गालब्लैडर से निकल कर पित्त नली में पहुंच जाय तो पीलिया और पैंक्रियाज नली में पहुंच जाय तो पैंक्रिटाइटिस होने का खतरा रहता है। पैंक्रिटाइटिस में मृत्यु-दर बहुत अधिक है। 

कारण 
चालीस साल से अधिक उम्र का होना। महिलाओं में मेंसेज बंद हो ने के बाद हुए हार्मोनल बदलाव। अधिक वजन होना। तेजी से वजन घटना। अधिक फास्टिंग करना। प्रेगनेंसी में हार्मोस बदलाव मधुमेह और हेल्दी डाइट का अभाव। 

लक्षण 
पेट में दायीं तरफ ऊपर की ओर तेज दर्द, जिसे बिलयरी पेन कहते हैं। यह खाने के बाद शुरू होता है। अकसर उल्टी होना। दर्द शुरू होने के तीन-चार दिन तक दर्द का बने रहना। बुखार के साथ पेट फूलना, पेट में गैस बनना। खाना हजम ना होना। पेट भारी रहना।

बचाव 
हेल्दी डाइट लें। वजन नियंत्रित रखें। नियमित व्यायाम करें। अगर अधिक वजन है तो इसे धीरे-धीरे कम करने का प्रयास करें। गालब्लैडर में बनने वाला स्टोन कोलेस्ट्रॉल स्टोन कहलाता है। कोलेस्ट्रॉल वाली डाइट से परहेज करें। ज्यादा से ज्यादा पानी पियें जिससे कोलेस्ट्रॉल बाहर निकलता रहे। चालीस साल से अधिक उम्र होने पर नियमित गालब्लैडर की जांच करायें। 

जांच और इलाज 
गालब्लैडर की जांच के लिए सबसे अच्छा तरीका अल्ट्रासाउंड है। कभी-कभी पीलिया वाली स्थिति में लिवर फंक्शन टेस्ट भी कराया जाता है। गालब्लैडर स्टोन का एकमात्र इलाज ऑपरेशन है। इसमें पूरा गालब्लैडर निकाल दिया जाता है। यह ऑपरेशन दो प्रकार से किया जाता है। पहली और आसान विधि दूरबीन विधि है। इसमें दो-तीन छेद से ऑपरेशन किया जाता है। मरीज को तीसरे दिन डिस्चार्ज कर दिया जाता है जबकि दूसरी विधि ओपन सर्जरी होती है। इसमें पेट में चीरा लगाकर ऑपरेशन होता है। इसमें दवाओं से खास लाभ नहीं मिलता है (प्रो. हेमंत पाण्डेय,आधी दुनिया,राष्ट्रीय सहारा,8.8.12)।

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मंगलवार, 7 अगस्त 2012

खानपान की आदत है कोलोरेक्टल कैंसर की जड़

वैसे तो कैंसर के कई प्रकार हैं लेकिन इनके बीच विश्व भर में कोलोरेक्टल कैंसर पुरुषों में तीसरा आम कैंसर (कुल का 10 प्रतिशत यानी 6,63,000 मामले) और महिलाओं में दूसरा आम कैंसर (कुल का 9.4 प्रतिशत यानी 5,71,000 मामले) है। दुनियाभर में कोलोरेक्टल कैंसर के मामलों की दर दोनों लिंगों में 10 गुना तक भिन्न होती है। कोलोरेक्टल कैंसर (सीआरसी) के मामलों की दर अलग-अलग है। दक्षिणी एशियाई देशों में इसके मामले कम है तो विकसित एशियाई देशों में ज्यादा। कोलोरेक्टल कैंसर ज्यादातर आर्थिक रूप से संपन्न देशों जैसे कि जापान, कोरिया और सिंगापुर में तेजी से बढ़ रहे हैं। हालांकि विभर के मुकाबले में भारत में सीआरसी के मामले बहुत कम रजिस्टर हुए हैं लेकिन पिछले कुछ बरसों में पश्चिमी लाइफस्टाइल को अपनाने के कारण भारत में भी इस कैंसर के मामले बढ़ते जा रहे हैं। नई दिल्ली स्थित सर गंगाराम अस्पताल के कीमोथेरेपिस्ट डॉ. श्याम अग्रवाल के मुताबिक, ‘विकसित देशों में कोलोरेक्टल कैंसर के मामलों की दर काफी ज्यादा है, इसकी वजह उनके खानपान की शैली है। रेड मीट, कम फाइबर का आहार और फास्ट फूड के ज्यादा इस्तेमाल से इस कैंसर के मामले ज्यादा दिख रहे हैं। 

उनका मानना है कि भारत में पिछले दो दशकों से सीआरसी के मामले ज्यादा देखने को मिल रहे हैं क्यों कि भारतीय बहुत ज्यादा पश्चिमी देशों के लाइफस्टाइल और खाने की आदतों को अपना रहे हैं। देशभर में मौजूद विभिन्न जनसंख्या ग्रुप और अस्पतालों से एकत्र आंकड़े काफी रोचक और विरोधाभासी हैं। देश के सभी भागों में कैंसर के मामलों में रेक्टम (बड़ी आंत का भाग जो गुदा को जो ड़ता है) के केस कोलन कैंसर से ज्यादा है। कोलोरेक्टल कैंसर महिलाओं में भी तेजी से फैल रहा है। वि स्तर पर सबसे आम कैंसर की सूची में 15 बरसों के भीतर मामलों की बढ़ोतरी के चलते 49 प्रतिशत बढ़कर यह 1990 में दूसरे स्थान पर आ गया है जबकि 1975 में यह चौथे स्थान पर था। रेक्टल कैंसर के मामले भारत के ग्रामीण इलाकों में ज्यादा देखने को मिल रहे हैं हालांकि देशभर में कोलोरेक्टल कैंसर के मामले सीमित हैं। इसके विपरीत, पेट के कैंसर और पित्ताशय में कैंसर के मामलों के दर में उत्तर-दक्षिण भारत में काफी अंतर है। तकरीबन 6 प्रतिशत सीआरसी आनुवांशिक कारणों से होता है तो तकरीबन दो तिहाई मामलों में लाइफ स्टाइल और खाने की आदतें शामिल हैं। परिवार का परिवेश और लाइफस्टाइल भी आनुवांशिक तौर पर कोलोरेक्टल कैंसर होने में भूमिका निभाते हैं। हालांकि सीआरसी के निर्माण में जीन के परिवेश की भूमिका पर अध्ययन करने की जरूरत है। डॉ. अग्रवाल के अनुसार, ‘तथ्यों से यह सामने आया है कि यूके और यूएसए के भारतीय अप्रवासियों में सीआरसी के मामले ज्यादा देखने को मिल रहे हैं जो चिंता का विषय है। दरअसल, लाइफस्टाइल और खानपान की आदतें सीआरसी होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसका मतलब यह है कि भारत में कम आय से मध्यम आय की अर्थव्यवस्था में सीआरसी के मामले बढ़ेंगे।‘‘



विभिन्न अध्ययनों द्वारा रेड मीट की खपत और कोलोरेक्टल कैंसर के बीच का संबंध जानने की कोशिश की जा रही है। इसके साथ-साथ विशेषज्ञ यह भी खोज रहे हैं कि डाइट में सब्जियों और फलों का सेवन कोलोरेक्टल कैंसर को रोकने में प्रभावी है। कोलोरेक्टल कैंसर बड़ी आंत के भीतर होने वाला घातक ट्यूमर है। कोलन पॉलिप और कैंसर की शुरुआत में किसी भी तरह के लक्षण नजर नहीं आते। इसलिए नियमित तौर पर स्क्रीनिंग कराना महत्वपूर्ण है। कोलोरेक्टल कैंसर का इलाज उसके आकार, जगह और फैलने पर निर्भर करता है। इसके साथ-साथ मरीज की सेहत और उम्र का भी ध्यान रखा जाता है। वैसे सर्जरी ही कोलोरेक्टल कैंसर का आम इलाज है। हमारे जैसे देश में, जहां आबादी बहुत ज्यादा है, वहां रेक्टल कैंसर के मामले हालांकि कम हैं, बावजूद इसके इलाज में देरी या फिर एक जगह से दूसरी जगह रेफर करने से बीमारी बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। इसके अलावा, देश में इलाज की पद्धतियों में भी भारी कमी है। वैसे तो सर्जरी ही इसका इलाज है, इसके साथ-साथ एडवांस स्टेज में रेडियोथेरेपी और कीमियोथेरेपी भी अहम भूमिका निभाते हैं। आधुनिक और विकसित तौर-तरीकों से बीमारी के इलाज में बेहतरीन सुधार हुये हैं(आधी दुनिया,राष्ट्रीय सहारा)।

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शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

जानिए,कौन-सी चीज़ किसमें रहती है सुरक्षित

फूड चाहे पका हुआ हो या कच्चा , ढंग से प्रिजर्व न किया जाए तो अपनी शेल्फ लाइफ से पहले ही खराब हो जाता है। अगर आप भी परेशान रहते हैं कि अच्छी दुकान से बेहतर क्वॉलिटी का सामान खरीदने पर भी वह जल्द खराब हो जाता है तो सामान को अच्छी तरह रखने की ट्रिक्स जान लें। फूड को ढंग से प्रिजर्व करने और उनकी लाइफ बढ़ाने के सही तरीकों के बारे में एक्सर्पट्स से बात करके नभाटा के 29 जुलाई,2012 के अंक में पूरी जानकारी दी गुंजन शर्मा ने: 

रश्मि अरोड़ा कुछ महीनों के राशन की खरीदारी एक साथ करती हैं। उनका तर्क है कि एक साथ चीजें खरीदने से दाम सही पड़ते हैं और बार - बार मार्केट जाने से झंझट से भी बच सकते हैं। लेकिन परेशानी यह है कि अक्सर उनमें से बहुत - सी चीजें अपनी शेल्फ लाइफ से पहले ही खराब हो जाती हैं और फेंकनी पड़ती हैं। इससे रश्मि को बचत की जगह चपत लग जाती है। अगर खाने की चीजों को ढंग से संभाल कर रखें तो आप ऐसी स्थिति से बच सकती हैं और खाने की शेल्फ लाइफ को बढ़ा सकती हैं। चीजों की पैकिंग डेट और एक्सपायरी डेट के बीच की अवधि को शेल्फ लाइफ कहते हैं , यानी जिस दौरान चीजें सही बनी रहती हैं। 

बिना पका सामान 
( रॉ फूड ) चावल , दालें , छोले , राजमा , चने 

किस कंटेनर में रखें : एयरटाइट डिब्बे में 

सबसे बेहतर : कांच और प्लास्टिक का जार 

सबसे बेकार : प्लास्टिक शीट वाले पैकेट 

लाइफ कितनी : एयरटाइट डिब्बे में अधिकतम 6 महीने तक 

ऐसे बढ़ाएं शेल्फ लाइफ 
- दालें , राजमा आदि को स्टोर करने से पहले डिब्बे या जार को अच्छी तरह सुखा लें। अगर उसमें नमी होगी तो स्टोर किया गया सामान जल्दी खराब होगा। 

- दालें आदि भरने के बाद डिब्बों को किसी गर्म जगह यानी उस जगह पर न रखें , जहां से वे सीधे गर्मी के संपर्क में आएं। गैस चूल्हे के एकदम ऊपर या साइड में बने सेल्फ में न रखें। 

- ऊपर लिखी चीजों को स्टोर करते वक्त डिब्बों में तेज पत्ता या लौंग डाल सकते हैं। एक किलो में 5 तेज पत्ता , 10 से 12 नीम के पत्ते या 8 से 10 लौंग डाल सकते हैं। इन्हें डिब्बे की सबसे ऊपरी और सबसे निचली लेयर में रखें। ऐसा करने से राजमा , चना , दालें आदि खराब नहीं होंगे और ज्यादा दिनों तक स्टोर करके रखे जा सकेंगे। 

गेहूं 
किस कंटेनर में रखें : मेटल के किसी बड़े बर्तन में या मिट्टी के कंटेनर में। 

सबसे बेहतर : स्टेनलेस स्टील के कंटेनर , ऐल्युमिनियम के कंटेनर भी अच्छे। 

सबसे बेकार : कांच और किसी दूसरी धातु जैसे पीतल आदि से बने कंटेनर। 

लाइफ कितनी : सही तरह से स्टोर करने पर एक साल तक। 

कैसे बढ़ाएं लाइफ 
- गेहूं भरने से पहले कंटेनर को अच्छी तरह धोकर धूप लगाएं। 

- ड्राई और कूल जगह पर स्टोर करें ताकि गेहूं में नमी न आए। 

- घर में ज्यादा मात्रा में गेहूं स्टोर नहीं किया जाता इसलिए स्टोर करते समय उसमें किसी तरह की दवाई डालने की बजाय तेज पत्ता , या नीम के सूखे पत्ते डालें। एक कट्टे में 40 से 50 तेज पत्ते , 30 से 35 नीम के पत्तों वाली छोटी डंडियां डाल सकते हैं। 

- कट्टे को दीवार से सटाकर न रखें क्योंकि बरसात के दिनों में दीवारों में नमी आ जाती है। 

आटा 
किस कंटेनर में रखें : स्टेनलेस स्टील और ऐल्युमिनियम के कंटेनर में। 

सबसे बेहतर : स्टेनलेस स्टील।  

सबसे बेकार : प्लास्टिक का डिब्बा। 

लाइफ कितनी : 5 से 6 महीने। 

- कंटेनर में आटा भरने से पहले उसे अच्छी तरह सुखाएं। थोड़ी - सी भी नमी होने पर उसमें छोटे - छोटे कीड़े पैदा हो जाते हैं। इससे बचने के लिए आटा भरने से पहले कंटेनर की पेंदी में तेज पत्ता , दाल चीनी या नीम के सूखे पत्ते रखें। फिर आटा भरने के बाद ढक्कन लगाने से पहले आटे की ऊपरी लेयर में उन्हें रखें। 

मैदा और बेसन 
किस कंटेनर में रखें : स्टेनलेस स्टील और प्लास्टिक के एयरटाइट डिब्बे में। 

सबसे बेहतर : प्लास्टिक। 

सबसे बेकार : टिन के डिब्बे और बेकार क्वॉलिटी के प्लास्टिक के डिब्बे। 

लाइफ कितनी : 3 से 4 महीने। 

कैसे बढ़ा सकते हैं लाइफ 
अगर इनका रेग्युलर यूज नहीं करते हैं तो इन्हें ज्यादा मात्रा में स्टोर करके न रखें। भरने से पहले डिब्बे को अच्छी तरह सुखा लें। स्टोर करते समय तेज पत्ता और दालचीनी भी डाल सकते हैं। 

मसाले 
किस कंटेनर में रखें : कांच और प्लास्टिक के डिब्बे। 

सबसे बेहतर : प्लास्टिक के एयरटाइट डिब्बे। 

लाइफ कितनी : सही से स्टोर करने पर एक साल तक चल जाते हैं। हालांकि एक साल के बीच में ही हल्दी और लाल मिर्च जैसे मसालों के स्वाद और रंग में थोड़ी कमी आ सकती है लेकिन वे खराब नहीं होते। बेस्ट स्वाद 6 महीने तक रहता है। 

कैसे बढ़ा सकते हैं लाइफ 
- मसालों को ज्यादा मात्रा में खरीदकर स्टोर न करें। 

- खुले में न रखें और स्टोर करने से पहले डिब्बों को सुखा लें। 

- उन्हें गर्मी से बचाकर रखें। फ्रिज , गैस के पास न रखें। 

- खाना बनाते समय मसालों को सीधे डिब्बे से न डालें। चम्मच से डालें। इससे मसालों में भाप और गर्मी नहीं लगेगी और वे जल्दी खराब नहीं होंगे। 

ड्राई फ्रूटस 
किस कंटेनर में रखें : प्लास्टिक और कांच के डिब्बे। प्लास्टिक के जिप लॉक पाउच में भी सही। 

सबसे बेहतर : कांच के कंटेनर , प्लास्टिक के एयरटाइट डिब्बे भी कारगर। 

सबसे बेकार : टिन के डिब्बे और बेकार क्वॉलिटी के प्लास्टिक के डिब्बे। 

लाइफ कितनी : 6 महीने तक। उसके बाद इनके टेस्ट में थोड़ा फर्क ( कड़वापन ) आने लगता है। 

- ड्राई फ्रूटस में फैट होता है। सही से स्टोर न करने पर वे जल्दी खराब हो सकते हैं। गर्मी की वजह से इनमें कीड़े भी पड़ सकते हैं। 

- छह महीने तक तो कांच के कंटेनर , प्लास्टिक के डिब्बे में रख रहे हैं। उसके बाद इन्हें रूम टेंपरेचर पर रखने से उनमें नमी के कारण कड़वापन आ सकता है। 

- ज्यादा समय के लिए रखने हैं तो प्लास्टिक के एयर टाइट जिपलॉक पैकिट में डालकर फ्रिज में रखें। फ्रिजर में न रखें। छिलके वाले बादाम फ्रिज में रखने पर एक साल तक और बिना छिलके के बादाम , काजू , अखरोट आदि 3 महीने तक बेस्ट रहते हैं। 

पका हुआ खाना ( कुक्ड फूड ) 

मिठाइयां 

बेसन से बनी मिठाइयां 
किस कंटेनर में रखें : कांच और स्टील के कंटेनर में। 

सबसे बेहतर : कांच और स्टील बेस्ट। 

सबसे बेकार : ऐल्युमिनियम , टिन और प्लास्टिक। 

लाइफ कितनी : फ्रिज में रखने पर बेसन की सूखी मिठाइयां एक महीना , गीली मिठाई एक हफ्ते तक। 

- एयरटाइट डिब्बे में डालकर फ्रिज में स्टोर करें। 

- मिठाई गत्ते के डिब्बे में आई हो तो उसे निकालकर एयरटाइट डिब्बे में रखें। गत्ते के डिब्बे में ज्यादा देर तक रखने से उसमें महक आ सकती है। 

दूध और खोये की मिठाइयां 
सबसे बेहतर : कांच और स्टील के डिब्बे। 

सबसे बेकार : एल्युमिनियम , टिन और प्लास्टिक। 

लाइफ कितनी : जो मिठाइयां खोए में दूध मिलाकर बनाई गई हों , तो 1 हफ्ता और शुद्ध खोए से बनी 3 हफ्ते तक। 

- एयरटाइट डिब्बे में डालकर फ्रिज में स्टोर करें। 20 दिन तक मिठाई ठीक रहेगी। 

- मिठाई गत्ते के डिब्बे से निकालकर किसी एयरटाइट डिब्बे में रखें। 

अचार 
किस कंटेनर में रखें : सिरामिक ( चीनी मिट्टी के मर्तबान ) और कांच। 

सबसे बेहतर : सिरामिक। 

सबसे बेकार : प्लास्टिक। लाइफ कितनी : लगभग सभी तरीकों के आचारों की लाइफ काफी ज्यादा होती है , सही से प्रिजर्व करने पर दो से तीन साल तक। 

आचार में तेल , नमक और चीनी होती है , जोकि प्रिजर्वेटिव का काम करते हैं। इसलिए इनकी शेल्फ लाइफ बढ़ाने के लिए उनमें अलग से कुछ डालने की जरूरत नहीं होती। फिर भी आचार जल्दी खराब न हो , इसके लिए इन बातों का ध्यान रखें
- आचार को सफाई से बनाएं। 

- सभी मसाले सही मात्रा में डालें। जैसे नमक कम होगा तो भी अचार जल्दी खराब होगा। 

- जिस बड़े मर्तबान में कई किलो आचार रखा हो उसमें सीधे हाथ न डालें। रोजाना के इस्तेमाल के लिए बड़े मर्तबान में से छोटे डिब्बे में आचार निकालकर रखें। 

- आचार को आटे से बचाकर रखें। आटे से आचार में फफूंद लग जाता है। 

- बरसाती मौसम में अचार को नमी से बचाकर रखें। 

- आचार को टाइट जार में बंद करके रखें। 

- डिब्बे को दीवार से दूर रखें। बरसाती दिनों में दीवारों में नमी आ जाती है। 

- बार - बार डिब्बे को न खोलें और डिब्बे को ज्यादा देर तक खुला न रखें। - डिब्बे में गीला चम्मच न डालें। - आचार निकालने के लिए हमेशा साफ चम्मच का यूज करें , पहले से इस्तेमाल हुए चम्मच का नहीं।




दूध 
किस कंटेनर में रखें : स्टेनलेस स्टील। 


सबसे बेहतर : स्टील। 


लाइफ कितनी : गर्मियों में पैकेटबंद कच्चा दूध फ्रिज की चिलर ट्रे में दो दिन तक रख सकते हैं। पैक्ड दूध उबालने के बाद फ्रिज में 5 दिनों तक और गाय व भैंस का दूध 3 से 4 दिन तक फ्रिज में रख सकते हैं। सर्दियों में तापमान पहले से ही कम होता है तो सभी तरह का दूध काफी दिन तक चल जाता है। पैकेट बंद दूध फ्रिज के चिलर टे में 1 हफ्ते तक बिना गर्म किए और गाय और भैंस के दूध को उबालने के बाद 3 से 4 दिन तक फ्रिज में रख सकते हैं। 


मदर डेयरी : दूध को बार - बार न उबालें। इससे उसमें मौजूद प्रोटीन कम हो जाते हैं। सर्दी और गर्मी , दोनों में ही दूध को पूरे दिन में सिर्फ एक बार उबालें और ठंडा होने पर उसे फ्रिज में रखें। 


भैंस और गाय का दूधः भैंस या गाय का दूध हैं तो पहले उसे छानें , फिर अच्छी तरह उबालें , क्योंकि यह दूध पॉश्चराइज्ड नहीं होता। ऐसे में इनमें बैक्टीरिया होने का डर रहता है। कभी - कभी दूध में गाय - भैंस के बाल या भूसे के तिनके भी आ जाते हैं , जो नुकसानदेह हो सकते हैं। गाय और भैंस के दूध को सुबह लाने के बाद जल्दी उबाल लें। गर्मियों में 1 घंटे से ज्यादा और सर्दियों में 1 से डेढ़ घंटे से ज्यादा उसे बिना उबाले न रखें। 


- फ्रिज में हर तरह के दूध को ढककर रखें क्योंकि बाकी चीजों की गंध से मिलकर दूध खराब हो सकता है। गर्मियों में इस बात का खास ध्यान रखें। 


रसीले फल 
गर्मियों में मौसमी , संतरे जैसे रसीले फलों के अलावा नीबू का इस्तेमाल ज्यादा होता है। गर्मियों में ऐसे फ्रूट्स का रस जल्दी सूख जाता है। इन्हें फ्रिज में रखें और अगर फ्रिज में जगह नहीं है तो नेट की जाली या छेद वाली टोकरी में रखें। 


केला 
- केलों को इस तरह रखें कि उनमें हवा लगती रहे। वरना वे काले होने के साथ ही गल भी जाएंगे। 


- छेद वाले बर्तन में रखें। 


- फ्रिज में न रखें , वरना काले हो जाएंगे। 


- ऊपर बताए तरीके से स्टोर करने पर गर्मियों में 2 दिन और सर्दियों में 3 दिन तक बढि़या रहते हैं। 


सेब 
- फ्रिज में रखें। फ्रिज में 1 हफ्ते और बाहर 3 से 4 दिन तक ठीक रहते हैं। 


अनार 
- फ्रिज में रखें। फ्रिज में 15 से 20 दिन और बाहर 1 हफ्ते तक बेस्ट रहते हैं। 


जामुन 
- एक के ऊपर एक दबाकर किसी छोटे बर्तन में न रखें। 


- छेद वाले खुले बर्तन में फैलाकर रखें , जिससे उनमें हवा लगती रहे। 


- नमक डालकर न रखें। इससे जामुन गल जाते हैं। 


- इस तरह रखने पर 2 से 3 दिन तक फ्रिज में और 1 दिन बाहर अच्छे रहते हैं। इससे ज्यादा दिन रखने पर गलने लगते हैं। 


फालसे 
- छेद वाले खुले बर्तन में फैलाकर रखें जिससे उनमें हवा लगती रहे। 


- इनमें नमक डालकर न रखें। इससे वे गल जाते हैं। 


- इस तरह रखने पर 2 दिन तक फ्रिज में और 1 दिन बाहर बढि़या रहते हैं। इससे ज्यादा दिन रखने पर गलने लगते हैं। 


क्या है फूड प्रिजर्वेशन 
फूड प्रिजर्वेशन खाने को खराब होने से बचाने और उसकी लाइफ बढ़ाने के लिए किया जाता है। ऐसा करके हम कच्चे और पके , दोनों तरह के खाने को उसमें मौजूद पोषक तत्वों को बरकरार रखते हुए लंबे समय तक यूज कर सकते हैं। 


क्या है फ्रोजन फूड 
फ्रोजन फूड की कैटिगरी में ऐसा खाना आता है , जिसे उस समय के लिए संरक्षित करके रखा जाता है , जब वे प्राकृतिक रूप से उपलब्ध नहीं होते। इन्हें भविष्य में संरक्षित करके रखने के लिए प्रिजर्वेटिव्स का यूज किया जाता है। हर मौसम में किसी भी तरह के खाने का लुत्फ उठाना चाहते हैं तो फ्रोजन फूड अच्छा ऑप्शन है। फ्रोजन फूड इस्तेमाल करने के लिए कुछ बातों को ध्यान में रखना चाहिए। 


- फ्रोजन सब्जियों के लिए फ्रिज का हमेशा चलते रहना जरूरी है।


- अगर आपका फ्रिज बिजली चले जाने से रोजाना 2-3 घंटे बंद रहता है तो फ्रोजन फूड इस्तेमाल न करें। 


- फ्रिज बंद रहने से फूड खराब हो जाता है , जो सेहत के लिए नुकसानदेह साबित होता है। 


फ्रोजन सब्जियां ( सभी तरह की ) 
लाइफ ( खुली या बंद ) : 10 महीने 


लाइफ कैसे बढ़ाएं 
- इन्हें बनाने के समय ही फ्रीजर से निकालें। 


- बचीं हुईं सब्जियों को फ्रीजर बैग में डालकर ही रखें। 


- प्लास्टिक बैग में रखने की बजाय चीनी के बर्तन या एयरटाइट डिब्बे में रखें। 


फ्रोजन फल ( सभी तरह के ) 
लाइफ ( खुले या बंद ) : 6 महीने 


- खाते समय जरूरत के हिसाब से ही इन्हें फ्रिज से निकालें। - बचे फलों को फ्रीजर बैग में डालकर रखें। 


- एक बार बाहर रखे फलों को दोबारा फ्रीजर में न रखें। ऐसे में बैक्टीरिया पैदा होने का डर रहता है। 


फ्रोजन जूस 
लाइफ , पैकिट बंद : 6 महीने , पैकिट खुलने पर : 3 दिन 


- फ्रोजन जूस को भी फ्रिज में रखें। 


- सर्व करते समय ही फ्रिज से निकालें। 


इन बातों का रखें ख्याल 


- फ्रोजन फूड का सही संरक्षण भी जरूरी है। ऐसा नहीं होने पर ये हमारी सेहत को नुकसान पहुंचा सकते हैं। 


- इस्तेमाल करने से पहले इनकी पैकेजिंग चेक कर लें। 


- पैकिंग सही नहीं होगी तो उसमें बैक्टीरिया पैदा होने की आशंका बनी रहती है। 


- फ्रोजन फूड का रोजाना इस्तेमाल न करें। अगर कर रहे हैं तो सही पैकेजिंग वाले प्रॉडक्ट ही खरीदें। 


- अगर खाने के किसी सामान में हवा और पानी जा रहे हैं तो उसमें बैक्टीरिया के पनपने की पूरी गुंजाइश रहती है। कोशिश करें कि इन्हें नॉर्मल पॉलिबैग्स में न रखें। एयरटाइट डिब्बे या फ्रीजर बैग्स में ही रखें। 


- Bread.com के मुताबिक ब्रेड को स्टोर करने की सबसे अच्छी जगह फ्रीजर है। रेफ्रिजरेटर का तापमान ब्रेड को खराब होने से रोकने में कामयाब नहीं होता। 


रेफ्रिजरेटर के यूज में रखें ध्यान 
- फ्रिज में कभी भी खाना बहुत ठूंस कर न भरें। खाने की चीजों के बीच में इतना फासला जरूर होना चाहिए कि सारे फ्रिज में एक जैसा तापमान बना रहे। 


- खाना हमेशा ढक कर रखें। खाने को खुला रखने से उसका मॉश्चर खत्म हता है और फ्रिज के अंदर मौजूद खुश्क हवा खाने को खुश्क करती है। 


- खाने को ढककर रखने से खाने की दूसरी चीजों में मौजूद गंध उसमें नहीं मिल पाती। आमतौर पर तीखी गंध वाली चीजें ( पत्ता गोभी , फूलगोभी , लहसुन आदि ) दूसरे खानों की गंध पर हावी हो जाती हैं।

- खाना बनाने के दो घंटे के अंदर खाना फ्रिज में रख दें। इससे उसमें बैक्टीरिया नहीं पनपेंगे या कम पनपेंगे। 


- फ्रिज में रखने से पहले फल और सब्जियों को धोएं नहीं क्योंकि पानी रहने से वे खराब हो जाएंगी। 


होम टिप्स 
- हरी मिर्च को फ्रिज में रखने से पहले उनकी डंडियों को तोड़ लें। इससे वह लंबे समय तक ताजी रहेंगी। 


- बींस को स्टोर करने से पहले सही से धोया और सुखाया न जाए तो उसमें फंगस जल्दी लगता है , इसलिए उसे पहले अच्छे से धोकर और सुखाकर ही फ्रिज में स्टोर करें। 


- फ्रिज में स्टोर करते समय फलों और सब्जियों को अलग - अलग थैलियों में रखें। फलों से एथलीन गैस निकलती है , जिसके संपर्क में आने से सब्जियों पीली हो सकती हैं। 


- अगर अंडों को एक महीने से ज्यादा स्टोर करना चाहते हैं तो अंडों पर किसी ब्रश की मदद से कुकिंग ऑयल लगाएं। ऐसा करने से अंडे जल्दी खराब नहीं होंगे। 


- पनीर को लंबे समय तक रखना है तो उसे एक बाउल में ताजा पानी भरकर उसमें रखें। हां , पानी को दो दिन बाद फिर से जरूर बदल लें। 


- चीज को फ्रिज में रखने से पहले इसे अच्छी तरह लपेट लें। बेहतर टेस्ट और टेक्स्चर पाने के लिए इसे फ्रिज से निकालकर कर 30-45 मिनट तक कमरे के तापमान पर रखें। 


- ब्रेड के पैकिट बेस्ट फूड ग्रेड पैक्स का काम करते हैं। उनका इस्तेमाल नींबू और हरी मिर्चों को स्टोर करने में कर सकते हैं , इससे वे फ्रेश रहेंगे। पैकेट में रबर बैंड लगाकर रखें। 


- दूध की थैलियों को फेंके नहीं , इनमें फिश , चिकन और मीट रख सकते हैं। ये बेस्ट फूड ग्रेड पैकेट का काम करते हैं। पैकेट में रबर बैंड लगाकर रखें। 


एक्सपर्ट्स पैनल 
नीलांजना सिंह , न्यूट्रिशन कंसल्टेंट , पीएसआरआई हॉस्पिटल , शेख सराय संध्या पांडे , चीफ डायटिशन , कोलंबिया एशिया हॉस्पिटल , गुड़गांव सीमा शर्मा , डाइटिशन , तीर्थराम शाह चैरिटेबल हॉस्पिटल

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