सुबह उठते ही हम बाहर दुनिया के साथ जुड़ जाते हैं। इंद्रियां विषयों की ओर दौड़ने लगती हैं। मन खयालों और बाहरी कामों में उलझ जाता है। लेकिन हम अपने पास होते हुए भी अपने आप से दूर ही रहते हैं। देखा जाए तो हम अपने साथ कभी अकेले में बैठते ही नहीं। खुद से दूरी होने के कारण ही मन अशांत रहता है।
योग निद्रा एक ऐसा प्रयोग है, जिसके माध्यम से हम अपने मन को संसार से हटा कर अपने भीतर स्थिर करते हैं। इसके लिए आराम से जमीन पर लेटकर शरीर को एकदम ढीला छोड़ देते हैं। आंखें बंद कर ध्यान को शरीर पर लाते हैं और शव की तरह पड़े हुए अपने शरीर को अनुभव करते हैं। ऐसा महसूस करते हैं इंद्रियों बाहर के विषयों से हट कर मन के साथ लीन हो गई हैं। फिर सांस को अनुभव करते है कि सांस नाक के द्वारा शरीर में आ-जा रही है। मन को अनुभव करते हैं कि उसका भागना भी अब शांत है। बुद्धि भी कोई काम नहीं कर रही है। अहंकार लीन हो गया है।
इन तमाम अनुभवों को, अगर आप ध्यान दें तो, अनुभव करने वाला हमारा ही स्वरूप है। दूसरा कोई देखेगा तो उसे लगेगा कि यह शख्स सो रहा है लेकिन आप तो भीतर की यात्रा पर होते हैं, जिसमें बाहर गई हुई सभी शक्तियों को भीतर के साथ जोड़ते हैं और अपने असली स्वरूप को जानने की कोशिश करते हैं। इस अभ्यास को अगर 5-10 मिनट के लिए रोज किया जाए तो हम अपने अशांत, चिड़चिड़े, भागते, व परेशान मन को शांत कर सकते हैं। यह अभ्यास अध्यात्म की ओर ले जाने में बड़ा लाभकारी है। महर्षि पतंजलि के अष्टांगयोग में इसे प्रत्याहार कहा जाता है(सुरक्षित गोस्वामी,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,10.6.12)।
प्रत्याहार क्या है?
हमारी ऊर्जा इंद्रियों व मन के द्वारा बाहर की ओर बहती रहती हैं। हम दिन भर इंद्रियों से काम लेते रहते हैं। जब जरूरत नहीं तब भी किसी ना किसी इंद्रिय को प्रयोग में लाते रहते हैं। जबकि जब देखना हो तब देखिए, जब सुनना हो तब सुनिए, जब बोलना हो तब बोलिए। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कब, कितना और क्या बोलना चाहिए। क्या देखना, कितना देखना, कब देखना और किस नजर से देखना है, इसका हमें खयाल रखना चाहिए। इसी तरह क्या सुनना, कितना सुनना, कब सुनना आदि बातों का भी ध्यान रखना जरूरी है। लेकिन अक्सर जरूरत ना भी हो तब भी हम देखते, सुनते व बोलते रहते हैं। इससे हमारी ऊर्जा तो बाहर बहती ही है, साथ ही मन भी बिखरने लगता है।
हमारी इंद्रियां बिना लगाम के घोड़े की तरह दौड़ती रहती हैं। मन ही हमारे चित्त में संस्कार बनाता है। इंद्रियों के विषय ही मन को मलिन करते हैं। अत: इनको काबू में करना होगा और इसी प्रकार बाकी कर्मेंद्रियों व ज्ञानेन्द्रियों से भी मालिक बनकर काम लेना होगा। जैसे कछुआ जब चलना चाहता है तब अपने पैर व मुंह बाहर निकालता है या अपने अंगों को समेट लेता है। शुरू में मन व इंद्रियां विद्रोह करेंगी लेकिन अभ्यास को लगातार बनाए रखना। अष्टांग योग में इस साधना को प्रत्याहार कहते है(सुरक्षित गोस्वामी,नभाटा,दिल्ली,1.4.12)।
सुन्दर सन्देश |
जवाब देंहटाएंबढ़िया जानकारी ||
bahut hi upyogi jaankari....shukriya
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमन ही हमारे चित्त में संस्कार बनाता है।.....
जवाब देंहटाएंसचमुच... कितनी सुंदर बात...
सादर आभार
बहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंजानकारी देती पोस्ट.....:-)
Bahut hi sundar
जवाब देंहटाएंयोग निद्रा के बारे में अच्छी जानकारी है आपको सर
जवाब देंहटाएंबेहद काम की जानकारी दी है सर आपने
१० Qualities Successful and Smart लोंगो की
सुंदर पोस्ट ...आभार !
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