डायफ्राम के नीचे शरीर के बांये हिस्से में स्थित स्प्लीन बहुत ही नाज़ुक अंग होता है। यह झिल्लीनुमा आवरण से ढ़ंका होता है। शरीर में स्प्लीन की स्थिति और इसके नर्म होने के कारण यह बहुत ही कमज़ोर होता है और आसानी से क्षतिग्रस्त हो सकता है।
एक्सिडेंट से पेट के हिस्से में चोंट लगना, स्पोर्टस इंजुरी और हाथापाई, हमला आदि स्प्लीन के फटने के आम कारणों में से है। स्प्लीन के फटने पर इसके अंदर मौजूद सभी ऊतक व रक्त बाहर की ओर बहने लगते हैं जैसे कि किसी टमाटर को मसलने पर होता है। यह स्थिति बहुत गंभीर ही होती है। स्प्लीन का फटना एक दर्दनाक स्थिति होती है। ऐसे में इसका खून पेट के अंदर बहने लगता है और यही दर्द, जलन और कमज़ोरी का कारण बनता है।
स्प्लीन की चोंट से पीड़ित मरीज़ों को अक्सर बांये कंधे में दर्द मसहूस होता है। दरअसल स्प्लीन के फटने पर खून निकलकर डायफ्राम तक पहुंच जाता है। डायफ्राम के संवेदनशील होने के कारण मरीज़ को बांये कंधे में दर्द महसूस होता है। स्प्लीन के फटने पर यदि खून धीरे धीरे बहता है,तो लक्षण एकदम सामने नहीं आते। शरीर में खून की कमी होने तक इसके लक्षण दिखाई नहीं देते। रक्तचाप में कमी,उनींदापन,धुंधलापन,भ्रम और बेहोशी इसके लक्षणों में शामिल हैं। दरअसल,खून की कमी से हृदय और मस्तिष्क में ऑक्सीजन की आपूर्ति ठीक से नहीं हो पाती है और तभी ये लक्षण सामने आने लगते हैं। एकाएक खून बहने पर,व्यक्ति अचानक बेहोश हो सकता है।
इलाज
स्प्लीन के फटने पर इलाज न मिलने पर यह जानलेवा साबित हो सकता है। यह एक आपातकालीन स्थिति होती है जिसमें तुरंत मेडिकल व सर्जिकल ट्रीटमेंट मिलना अत्यावश्क है। इलाज के लिए इंट्रावीनस ड्रिप के ज़रिए मरीज़ को तुरंत द्रव चढ़ाए जाते हैं और चोंट के कारण बह रहे खून को रोकने के लिए इमरजेंसी सर्जरी की जाती है। यदि स्प्लीन अधिक नहीं फटा हो तो सर्जन स्प्लीन की मरम्मत भी कर सकता है। हालाँकि अधिकतर मामलों में सर्जरी करके पूरे स्प्लीन को निकालना पड़ता है। इस सर्जरी को स्पीनेक्टॉमी कहते हैं।
सर्जरी के बाद
शरीर को विभन्न संक्रमणों से बचाने में स्प्लीन बहुत ही महत्पूर्ण भूमिका निभाता है। यह न्यूमोकोकस नामक बैक्टीरिया को शरीर से बाहर निकालता है। इसलिए स्प्लीनेक्टॉमी करा चुके मरीज़ों को संक्रमण के बचने की ओर विशेष ध्यान देना ज़रुरी होता है। ऐसे लोगों को न्यूमोकॉकल संक्रमण से बचने के लिए टीकाकरण ज़रुर करवाना चाहिए।(डॉ. विक्रम राठौर,सेहत,नई दुनिया,अप्रैल तृतीयांक 2012)
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