छोटी माता या बड़ी माता जैसी संक्रामक बीमारियों का कोई इलाज नहीं है, लेकिन एक बार हो जाए तो फिर व्यक्ति को दोबारा नहीं होती। कारण एक बार इससे संक्रमित होने के बाद शरीर में एंटीबॉडीज़ का निर्माण हो जाता है। लेकिन इस तरह से मरीज़ को एक बार बीमारी के सभी कष्ट झेलने पड़ते हैं।
टीकाकरण का उद्देश्य है बीमारियों से बचाव करना। इससे शरीर पहले ही संक्रमण से लड़ने के लिए तैयार रहता है और व्यक्ति कष्ट से बच जाता है। बच्चों में टीकाकरण का मकसद विभिन्न बीमारियों से बचाव है। सभी सरकारी अस्पतालों में सामान्य टीके मुफ्त में लगाए जाते हैं। इन टीकों के अतिरिक्त भी कई टीके बाज़ार में उपलब्ध हैं जो यहाँ होने वाली बीमारियों से बच्चों को बचाते है। ये टीके थोड़े महंगे होते हैं इसलिए जो पालक इनका खर्च वहन कर सकें, उन्हें ये टीके लगवाना चाहिए।
पोलियो उन्मूलन के समय पोलियो का टीका इंजेक्शन द्वारा दिया जाता है जिससे पोलियो वायरस से होने वाले लकवे से बचा जा सकता है। यह टीका डेढ़ माह, ढाई माह और साढ़े तीन माह की उम्र में तीन बार दिया जाता है। बच्चों
में रोटावायरस से होने वाले दस्त रोग से बचने के लिए रोटावायरस वैक्सीन भी तीन बार डेढ़, ढाई और साढ़े तीन माह की उम्र में लगवाना चाहिए।
ट्रिपल के टीके के बजाय अगर पाँच का टीका (पेंटावेलेंट वैक्सिन) दिया जाए तो निमोनिया और हिपेटाइटिस से भी बचा जा सकता है। न्यूमोकोकल वैक्सीन विशेष परिस्थिति में जैसे थैलेसीमिया, सिकल सेल, स्प्लीन का ऑपरेशन होने के बाद या नेफरोटिक सिंड्रोम इत्यादि में दिया जाता है। हिपेटाइटिस -ए का टीका एक साल की उम्र के बाद दोबारा छः माह के अंतराल पर दिया जाना चाहिए। छोटी माता का टीका (वेरिसेला) १५ माह की उम्र व उसके बाद ५ वर्ष की उम्र पा दिया जाता है।
टायफायड का टीका २ वर्ष की उम्र के बाद हर तीन साल में दिया जाना चाहिए। ५ वर्ष की उम्र में ईज़ी-४ का बूस्टर दिया जाता है। सरवाइकल कैंसर का टीका (एच.पी.वी.) १०-१२ वर्ष की उम्र में तीन बार दिया जाना चाहिए। इसका एक टीका लगने के बाद दूसरा १ माह और तीसरा छः माह बाद दिया जाता है। टीकाकरण के ज़रिए बीमारी होने के पहले ही उसकी रोकथाम कर लेना ज़्यादा अच्छा है क्योंकि कई बीमारियों के लिए तो कारगर इलाज भी उपलब्ध नहीं है। मलेरिया डेंगू का बुखार, एड्स, कोलेरा आदि के टीकों पर भी खोज जारी है व आने वाले समय में इन बीमारियों के लिए भी टीके उपलब्ध होने की संभावना है(डॉ. शरद थोरा,सेहत,नई दुनिया,अप्रैल 2012 तृतीयांक)।
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