उसकी उमर के सारे बच्चे बोलने लगे हैं, लेकिन वह एक ही शब्द पर अटक जाता है! उसकी गर्दन एक दिशा में टिकती ही नहीं! हर चीज उसके हाथ से गिर जाती है! ज्यादातर मां-बाप इन इशारों को नजरअंदाज कर देते हैं, जबकि ये सेरेब्रल पालसी के संकेत भी हो सकते हैं। एक ऐसी मानसिक विकलांगता, जिसका पता जितनी जल्दी चलेगा, उसका इलाज उतना आसान होगा। अरशाना अजमत का आलेखः
एक्सपर्ट का मानना है कि बच्चे की पैदाइश के कुछ वक्त बाद से ही पता चल जाता है कि वह सामान्य बच्चों जैसा है या उनसे अलग है। जरूरत है तो बस उसके व्यवहार को गौर से देखकर उन निशानियों को समझने की, जिनसे बच्चे के स्पेशल होने का पता चलता है। अगर वक्त रहते बच्चे की बाबत ये जानकारी हासिल कर ली जाए तो उसका इलाज और विकास काफी आसान हो जाता है। आइए जानें कि क्या हैं ये निशानियां..
पैदाइश से एक साल की उमर तक
ध्यान से देखें कि क्या आपका बच्चा अपने सिर को नियंत्रित रख पाता है या नहीं। अगर वह आसानी से सिर घुमा लेता है तो उसके सामान्य होने के चांस अधिक हैं, लेकिन अगर सिर घुमाते समय उसका सिर लुढ़क जाता है या एक ही दिशा में वह लगातार घूरता रहता है तो उसके स्पेशल होने की संभावना हो सकती है। इसी तरह से उसकी मुट्ठी में अपनी उंगली पकड़ाने की कोशिश करें। अगर वह मुट्ठी बंद कर लेता है तो मतलब वह आपको रिस्पॉन्स कर रहा है, जो सामान्य होने की निशानी है। लेकिन अगर वह आपकी उंगली पर रिस्पॉन्स नहीं करता तो आप मनोवैज्ञानिक से संपर्क कर सकते हैं। जब बच्चा बैठने लगे तो देखें कि वह खुद से सीधा होकर बैठ पाता है या उसे सहारे की जरूरत पड़ती है। शुरुआत में सहारा लगाने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन अगर आपके बच्चे में सीधा बैठने की आदत पनपे ही नहीं तो चिंता करने की बात हो सकती है। उसे बार-बार आवाज दें और समझों कि आपकी आवाज पर गर्दन घुमाने, आंख चलाने जैसे रिस्पॉन्स दे रहा है या नहीं। अगर बच्चा रिस्पॉन्स देता है तो वह सामान्य है, अगर नहीं तो उसके स्पेशल होने की संभावना हो सकती है।
एक साल से दो साल की उमर तक
इस उमर में बच्चे की मसल्स को ध्यान से देखिए। उसके सारे अंग एक समान हैं या नहीं। जब वह चीजों को पकड़ता है तो उसकी पकड़ मजबूत होती है या चीजें आसानी से उसके हाथ से छूट जाती हैं। मसल्स की कमजोरी सेलेब्रल पालसी की शुरुआती निशानी हो सकती है। इसे नजरंदाज न करें। कई बार मसल्स में कड़ापन भी आ जाता है, जो सामान्य होने की निशानी नहीं है। बच्चे के दोनों पैरों को आपस में क्रॉस करिए और देखिए कि वह सामान्य महसूस करता है या उससे दर्द होता है या फिर ऐसा करना मुमकिन नहीं हो पाता। अगर पैर क्रॉस करने में कोई समस्या आती है तो यह भी सेलेब्रल पालसी की निशानी हो सकती है।
दो साल से चार साल की उमर तक
यह वह उमर होती है, जब सेलेब्रल पालसी की निशानियों को समझना सबसे आसान होता है। एक्सपर्ट मानते हैं कि इस उमर में सबसे आसानी से पता चल जाता है कि बच्चा सामान्य है या स्पेशल। सबसे सरल निशानी यह है कि बच्चे की भाव-भंगिमाएं फोकस्ड रहती हैं या वह उनका गैर जरूरी इस्तेमाल करता है। वह भी ऐसा इस्तेमाल, जिससे कोई स्पष्ट संदेश नहीं निकलता। इसी तरह से उसकी बातचीत को ध्यान से सुनिए। क्या वह अपनी बात साफ शब्दों में कह पाता है या हकलाता है या एक ही शब्द को कई बार बोलता है। बोलते-बोलते चुप हो जाता है या पूरी बात आसानी से कह लेता है। अगर बोलने में उसे कोई भी समस्या है तो एक बार एक्सपर्ट की सलाह ले लेनी चाहिए। ये भी सेलेब्रल पालसी की निशानियां हो सकती हैं। एक दूसरी निशानी बच्चों की खुराक से जुड़ी है। अगर वह चीजों को आसानी से चबा लेता है और निगल लेता है तो सामान्य है। अगर उसे चबाने या निगलने में परेशानी होती है तो उसे समस्या हो सकती है।
थेरेपी करती है मदद
दिल्ली में कई सरकारी और प्राइवेट सेंटर हैं, जहां सेरेब्रल पालसी को नियंत्रण में करने के लिए थेरेपी दी जाती है। कई स्वयं सेवी संस्थाएं भी ये काम अपने स्तर पर करती हैं। अमूमन सारे ही सेंटर तीन तरह की थेरेपी देते हैं। सबसे पहले फिजिकल थेरेपी दी जाती है, जिसमें कोशिश की जाती है कि एक्सरसाइज और खास तरह की जीवन शैली की मदद से बच्चे की मसल्स विकसित की जाएं। ज्यादातर मामलों में ये थेरेपी कारगर होती है और बच्चा चीजों को पकड़ने, बिना किसी सहारे के चलने या बैठने जैसी क्रियाएं काफी हद तक खुद से करने लगता है। हां, कई बार बच्चे को चलने के लिए वॉकर या ऐसे किसी दूसरे सामान की जरूरत पड़ती है। इसके बाद बच्चे को स्पीच थेरेपी दी जाती है। स्पीच थेरेपी में बच्चे के चेहरे और गले की मसल्स की एक्सरसाइज कराई जाती है, जिससे बच्चे को बोलने और संवाद बनाने में आसानी हो जाती है। इसके बाद एक्सपर्ट बच्चे को कु़छ दवाइयां भी देते हैं, जिससे वो सहज महसूस करता है।
सावधानी बरतें
जनरल फिजिशियन का चयन करते वक्त सबसे ज्यादा सावधानी की दरकार है। अगर बच्चे को गलत दवा दे दी गई तो उसे नुकसान भी हो सकता है। कई बार जनरल फिजिशियन बच्चे को बोटोक्स का इंजेक्शन देकर उसकी नसों को शून्य कर देते हैं, जिससे बच्चे को थोड़ी राहत मिलती है। इस ट्रीटमेंट के लिए दो से तीन एक्सपर्ट की सलाह लें और इसके बाद ही बच्चे को इंजेक्शन दिलाएं। कई बार कुछ जनरल फिजिशयन बच्चे की सजर्री कराने की सलाह देते हैं। याद रखें कि सजर्री काफी गंभीर मामलों में की जाती है और उसमें भी आराम मिलने की संभावना 5 प्रतिशत ही होती है। इसलिए सोचकर ही फैसला करें।
मिथ और सच
मिथ: सेरेब्रल पालसी में सुनाई देने की ताकत कम होती है।
सच: कुछ लोगों में ऐसा होता है, सबमें नहीं।
मिथ: सेरेब्रल पालसी के शिकार लोग कोई काम नहीं कर सकते, इसलिए उनका करियर जीरो होता है।
सच: कई कंपनियों में सेरेब्रल पालसी के मरीज काम कर रहे हैं और उनकी कार्यक्षमता काफी ज्यादा आंकी गई है।
मिथ: सेरेब्रल पालसी दवा या सजर्री से ठीक हो जाती है।
सच: दवा या सजर्री कुछ समय के लिए मरीज को राहत तो दिलाती है, पर पूरी तरह से सेरेब्रल पालसी को ठीक नहीं कर पाती।
मिथ: सेरेब्रल पालसी के मरीज बच्चों को खेल-कूद से दूर रखना चाहिए, इससे उन्हें नुकसान हो सकता है।
सच: सेरेब्रल पालसी के बच्चे घुड़सवारी से लेकर टेनिस या क्रिकेट जैसा कोई खेल आसानी से खेल सकते हैं।
दिल्ली में सेरेब्रल पालसी
जागरूकता का अभाव
डॉक्टरी जुबान में बात करें तो यह ऐसी बीमारी है, जिसमें शरीर में कई तरह के डिसऑर्डर होते हैं। इन डिसऑर्डर का असर दिमाग और नर्वस सिस्टम पर पड़ता है, जिससे शरीर से संतुलन खत्म हो जाता है। साथ ही शरीर से जुड़ी संवेदनाएं जैसे बोलने, सुनने और खाने पर भी इसका असर पड़ता है। इन लक्षणों को जितनी जल्दी पहचान लिया जाए, इलाज में उतनी आसानी होती है। डॉक्टर मानते हैं कि अमूमन दिल्ली के मध्यम वर्गीय लोग इस बीमारी के बाबत जागरूक नहीं हैं, जिससे समस्या होती है।
लड़कों में ज्यादा
दिल्ली शहर में इस बीमारी के अच्छे खासे रोगी हैं। खास तौर से नए जन्म लेने वाले बच्चे इसका शिकार बन रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार, अगर रोज 250 बच्चों का जन्म होता है तो उनमें से एक इस रोग का शिकार होता है। गौर करने लायक बात यह है कि दिल्ली में यह बीमारी लड़कियों के मुकाबले लड़कों में ज्यादा होती है।
स्पेशल स्कूल
दिल्ली में बड़ी संख्या में स्पेशल स्कूल चलते हैं, जहां इन बच्चों को थेरेपी दी जाती है। इसके अलावा कई बड़े एनजीओ, जैसे आस्था और उड़ान भी इन बच्चों के लिए काम करते हैं।
सहारा नहीं, साथ दीजिए!
हम 21वीं सदी में हैं। विचारों से लेकर रहन-सहन तक आधुनिक। लेकिन बात जब आती है विकलांग लोगों की, तो सोच परंपरागत हो जाती है। संवेदनशील लोग दया या सहारे की डोज देकर आगे बढ़ जाते हैं, लेकिन बराबरी का हक या सम्मान देने वाली बानगी कम ही दिखती है। और अगर गलती से हमें कोई ऐसा शख्स दिख जाए, जो मानसिक रूप से विकलांग है तब तो हम उसे काबिल या बुद्धिमान ही मानने से इंकार कर देते हैं। यों भी हममें से ज्यादातर लोग केवल उसकी विकलांगता को देख, समझ या महसूस कर पाते हैं, जो हमें सामने-सामने दिखती है, जबकि कई ऐसी विकलांगताएं हैं, जिनसे लोग जूझते हैं, मगर हमें उनका पता तक नहीं होता।
हर विकलांगता जन्म से नहीं
बीएलके अस्पताल के डॉ. ईश्वर के अनुसार, ‘एक शिशु स्पीना बीफिडा के साथ पैदा हो सकता है, जिससे उसे चलने में दिक्कत आ सकती है। किसी कार दुर्घटना में बच्चे को सिर पर चोट लग सकती है, जिससे उसके सोचने व याद रखने की क्षमता पर असर पड़ सकता है। एक वयस्क को किसी प्रकार की मानसिक बीमारी हो सकती है, जिससे उसकी रोजमर्रा की जिंदगी पर खराब असर पड़ सकता है।’ इनमें से ज्यादातर विकलांगता ऐसी हैं, जो जन्म से नहीं होतीं, बल्कि कुछ हादसे या शरीर में किसी चीज की कमी इनका शिकार बनाते हैं। मसलन ब्रेन डिसेबिलिटी, जो दिमाग में चोट लगने से होती है। वर्ल्ड ब्रेन सेंटर के न्यूरोसाइकिएट्रिस्ट विभाग के डायरेक्टर डॉ. नीलेश तिवारी मानते हैं कि कई बार यह चोट मामूली या गंभीर दोनों तरह की होती है। इसी तरह से कई लोग लर्निग डिसेबिलिटी का शिकार होते हैं। डिस्लेक्सिया के शिकार लोगों को सीखने और पढ़ने में दिक्कत आती है, लेकिन सही इलाज से वे ठीक हो सकते हैं। डॉ. आभा कश्यप बताती हैं कि ऐसे बच्चे या वयस्क चीजों को अलग ढंग से देखते, सुनते व समझते हैं, जिस कारण उनके लिए नई चीजों को समझना काफी मुश्किल होता है। हालांकि ये सारे लोग अगर समाज का साथ पा लें तो इनके लिए आगे बढ़ना मुश्किल नहीं होता।
(सुमन बाजपेयी,हिंदुस्तान,दिल्ली,14.3.12)
बहुत काम की जानकारी,हर माँ बाप को पढनी चाहिए.
जवाब देंहटाएं.....और आपने बताई भी बा-काएदा विस्तृत रूप से.
बहुत शुक्रिया.
बढ़िया प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबधाई ||
गंभीर समस्या - उचित सलाह.
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकरी ।
जवाब देंहटाएंजल्दी पहचान और उपचार से कार्य क्षमता बढाई जा सकती है ।
चाहे माता पिता हों या समाज .. बच्चों के पालन पोषण और अन्य व्यवहार में उसकी शारीरिक या मानसिक क्षमता को ध्यान में रखा जाना उचित है .. हमलोग एक ही डंडे से सबको हांकने की कोशिश करते हैं .. सब समस्या की जड यही है !!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंआपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 19-03-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
सही वक्त पर शिनाख्त से, तवज्जो से, इलाज़ से जीवन की गुणवत्ता तो बढ़ाई ही जा सकती है .असल बात वही है .ला -इलाज़ तो आज और भी कई बीमारियाँ हैं जिनमे प्रजातंत्र भी शामिल है .
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति ...आभार ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत जानकारी और इतनी मेहनत को सलाम |
जवाब देंहटाएं