बुधवार, 14 मार्च 2012

कैसे-कैसे चश्मे,कितनी तरह की लेंस

पिछले दो-तीन सालों में अचानक पूरे देश में आंख के अस्पतालों की बाढ़ आ गई है । दिल्ली के "सेंटर फॉर साइट" आईकेयर समूह ने इस साल के अंत तक अपने और ५० केंद्र स्थापित करने की महत्वाकांक्षी योजना बनाई है । तमिलनाडु की आईकेयर कंपनी वासन आईकेयर भी दिल्ली में २५ आई केंद्र स्थापित करने की तरफ अग्रसर है । दुबई के हेल्थकेयर कारोबारी केरल के मूल निवासी डॉ. मुपेन की एमडी हेल्थकेयर कंपनी भी दिल्ली में इतने ही नेत्र अस्पताल खोलने जा रही है । आखिर अचानक आंख के इतने अस्पतालों की जरूरत क्यों पैदा हो गई ? दरअसल, भारी संख्या में विदेशी पर्यटक आंख के मेडिकल एवं कॉस्मेटिक इलाज की मांग के साथ यहां आ रहे हैं ।

त्रिची स्थित अत्याधुनिक वासन आईकेयर क्लिनक में न्यूजीलैंड की एक लड़की की आंखों के रंग बदलने की देश की पहली सर्जरी करने वाले डॉ. शिबू बर्के ने बताया कि वासन आईकेयर में इलाज के लिए जितने मरीज आते हैं, उनमें १५ प्रतिशत से अधिक विदेशी ही होते हैं । इनमें सिंगापुर, मलेशिया, अमेरिका, यूके, मध्य-पूर्व के देशों के मरीज बहुत होते हैं । वजह यह है कि यहां विश्वस्तरीय आईकेयर खर्च के १०वें भाग में ही उपलब्ध है । सेंटर फॉर साइट नेत्र अस्पताल समूह के चेयरमैन डॉ. महीपाल सचदेव ने कहा कि मेडिकल टूरिज्म की बात करें तो सबसे अधिक विदेशी मरीज आंख के अस्पतालों में ही आ रहे हैं । इसकी एक खास वजह है । आंख का इलाज डेकेयर है । इसमें अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत नहीं होती । कोई दिल का मरीज हो, लीवर का मरीज हो या किसी और गंभीर बीमारी का मरीज हो तो उनके लिए लंबी यात्रा करना भी एक समस्या है लेकिन आंख का इलाज कराना है तो यह समस्या आड़े नहीं आती । फिर आंख का इलाज कराने के बाद वे भारत के भ्रमण के लायक भी हो जाते हैं ।

डॉ. शिबू बर्के ने कहा कि आंख का इलाज का परिणाम तुरंत आता है । इलाज से आंख ठीक हुई या नहीं, इसके लिए इंतजार करने की जरूरत नहीं होती इसलिए भ्रमण के लिए आए विदेशी आंख के इलाज़ की योजना तत्काल बना लेते हैं। विदेशी मरीज़ों की आंख के इलाज़ का मार्केट भारत में बहुत तेज़ी से फैल रहा है। आईकेअर में कई मामलों में हम विकसित देशों से भी आगे हैं। मसलन,अमरीका में आंखों का रंग बदलने की सर्जरी नहीं होती। अचानक इतने आईकेअर अस्पदाल खुलने की वजह क्या है? जवाब में डाक्टर बर्के कहते हैं कि यह सही है कि पिछले दो सालों में आंख के दर्जनों अस्पताल खुल गए हैं लेकिन अब भी हम सिर्फ आठ प्रतिशत लोगों की आंक के इलाज़ की ज़रूरत ही पूरी कर पाएंगे। विदेशी मरीज़ों का दबाव इतना बढ़ रहा है कि कई गुना और अस्पताल खोलने पड़ेंगे। आईकेअर का मतलब अब केवल मोतियाबिंद की सर्जरी नहीं रहा। मेडिकल के साथ-साथ कॉस्मेटिक आईकेअर की मांग में भारी वृद्धि हुई है। अब मुड़ने वाले लेंस,मल्टीफोकल लेंस,एकोमोडेटिव लेंस जैसे कॉस्मेटिक इलाज़ की मांग विदेशियों की तरफ से ज्यादा हो रही है(धनंजय,संडे नई दुनिया,11 मार्च,2012)

नजर कमजोर होना बेहद आम समस्या है। वक्त पर सही इलाज से इसे बढ़ने से रोका जा सकता है। इसके लिए चश्मे या कॉन्टैक्ट लेंस की जानकारी होना जरूरी है। चश्मे और लेंस के बारे में पूरी जानकारी डॉक्टर संजय तेवतिया से: 

नजर के दोष को काफी हद तक कंट्रोल किया जा सकता है। नजर की समस्या होने पर हमेशा सही नंबर का चश्मा या कॉन्टैक्ट लेंस पहनना चाहिए। ऐसा न करने पर आंख के पर्दे पर पाया जाने वाला मेक्यूला डल यानी सुस्त हो जाता है। इसे सुस्त आंख की बीमारी (एम्बलायोपिया) भी कहा जाता है। मेक्यूला रेटिना का ही एक हिस्सा होता है और लगातार लाइट पड़ते रहने से यह एक्टिव रहता है। नजर में दोष होने पर लाइट मेक्यूला के आगे या पीछे पड़ती है और मेक्यूला सुस्त हो जाता है। 

ऐसा होने पर वक्त रहते आंखों के डॉक्टर से नजर की जांच कराकर फौरन सही नंबर का चश्मा या कॉन्टैक्ट लेंस पहनना शुरू कर देना चाहिए। ऐसा करने से लाइट लगातार मेक्यूला पर पड़ती रहेगी और मेक्यूला को सुस्त होने (एम्बलायोपिया) से बचाया जा सकेगा। एम्बलायोपिया होने पर चश्मे या कॉन्टैक्ट लेंस की मदद से भी आंख में पूरी रोशनी नहीं आ पाती। आमतौर पर तीन तरह के नजर के दोष पाए जाते हैं- मायोपिया (निकट दृष्टिदोष), हाइपरमेट्रोपिया (दूर दृष्टिदोष) और एस्टिग्मेटिज्म। 

मायोपिया 
मायोपिया में किसी चीज का प्रतिबिंब आंख के पर्दे के आगे बन जाता है। इससे दूर की चीजें ढंग से दिखाई नहीं देतीं। मायोपिया को ठीक करने के लिए कॉनकेव या माइनस नंबर का लेंस दिया जाता है। 

हाइपरमेट्रोपिया 
हाइपरमेट्रोपिया में किसी चीज का प्रतिबिंब आंख के पर्दे के पीछे की तरफ बनता है। इससे पास का देखने में दिक्कत होती है। इसके इलाज के लिए कॉन्वेक्स या प्लस नंबर का लेंस चश्मे में दिया जाता है।

एस्टिग्मेटिज्म 
एस्टिग्मेटिज्म में रोशनी की किरणें एक जगह पर फोकस न होकर अलग-अलग फोकस होती हैं। इसमें दूर या पास, दोनों जगह का धुंधला दिख सकता है। एस्टिग्मेटिज्म में सिलिंड्रिकल लेंस का इस्तेमाल किया जाता है। 

प्रेस्बायोपिया 
इसके अलावा प्रेस्बायोपिया भी आंख की समस्या है लेकिन इसे दृष्टिदोष नहीं कहा जाता। प्रेस्बायोपिया उम्र के साथ होता है। 40 साल या उससे ज्यादा उम्र होने पर ज्यादातर लोगों को पास का देखने में परेशानी होती है। इसकी वजह आंख के पास की चीज पर फोकस करने में दिक्कत होती है। इसके लिए चश्मे में कॉन्वेक्स या प्लस नंबर का लेंस दिया जाता है। प्रेस्बायोपिया में हर समय चश्मा पहनने की जरूरत नहीं होती। सिर्फ पास का काम करते समय ही चश्मा पहनना होता है। 

चश्मा और फ्रेम 
गलत शेप और साइज का चश्मा न सिर्फ किसी के लिए परेशानी की वजह बन सकता है, बल्कि यह किसी की खूबसूरती को बढ़ा या खत्म भी कर सकता है, फिर चाहे आई-ग्लास हो या सन-ग्लास। चश्मा खरीदने से पहले हमेशा कुछ चीजों का ध्यान रखना चाहिए। 

- चश्मा और उसका फ्रेम आरामदायक होना चाहिए। यह न ज्यादा ढीला हो और न ज्यादा टाइट। 

- चश्मे और फ्रेम का वजन कम होना चाहिए। नाक और कान पर चश्मे का ज्यादा दबाव नहीं होना चाहिए। 

- चश्मे का साइज बहुत छोटा नहीं होना चाहिए। साइज कम-से-कम इतना जरूर हो कि वह आंख को पूरी तरह से ढक सके। 

- बच्चों में खासतौर पर चश्मे का आकार थोड़ा बड़ा होना चाहिए, वरना बच्चा चश्मे से ऊपर की तरफ या साइड से देखना शुरू कर देता है। 

- चश्मे का फ्रेम ऐसा होना चाहिए, जो लंबे समय तक अपना सही आकार बनाए रख सके। 

- चश्मे को पहनते और उतारते वक्त हमेशा दोनों हाथों का इस्तेमाल करना चाहिए। ऐसा न करने पर अक्सर चश्मे का आकार थोड़ा आड़ा-तिरछा हो सकता है। ऐसा होने पर चश्मे की पावर बदलने, प्रिज्म जैसी खराबी आने या चीजें आड़ी-तिरछी दिखने की आशंका होती है। 

- आजकल चश्मे पूरे फ्रेम वाले, आधे फ्रेम (हाफ फ्रेम) वाले और फ्रेमलेस मिलते हैं। 

- चश्मे के फ्रेम आमतौर पर मेटल, प्लास्टिक के अलावा लचीले मटीरियल के भी बने होते हैं। बच्चों और बूढ़ों के लिए खासतौर पर प्लास्टिक वाले फ्रेम बेहतर होते हैं। लचीले मटीरियल वाले फ्रेम को आराम से मोड़ा जा सकता है और ऐसे फ्रेम गिरने पर टूटते भी नहीं हैं। चश्मे के फ्रेम की करीब हर छह महीने में जांच कराते रहना चाहिए। 

चश्मे का लेंस 
चश्मे का लेंस नजर के दोष को ठीक करने, आंख को तेज धूप और अल्ट्रावॉयलट किरणों से बचाने के अलावा आंखों की खूबसूरती बढ़ाने के काम आता है। चश्मे के लेंस कई तरह के मटीरियल के बने होते हैं। -आमतौर पर चश्मों में क्राउन ग्लास इस्तेमाल किए जाते हैं। हालांकि आजकल क्राउन ग्लास ज्यादा चलन में नहीं हैं। -रेजिन लेंस हल्के होते हैं, आसानी से टूटते नहीं हैं और इन पर खरोंच भी नहीं पड़ती है। -प्लास्टिक लेंस भी हल्के होते हैं और आसानी से टूटते नहीं है लेकिन इन पर खरोंच जल्दी पड़ जाती हैं। -ट्रिप्लेक्स लेंस भी वजन में हल्के होते हैं और जल्दी टूटते नहीं हैं। -लेंस पर कई तरह की कोटिंग भी मिलती है, जैसे कि एंटी-ग्लेर, एंटी-स्क्रैच, फोटो-क्रोमैटिक आदि। एंटी-ग्लेर कोटिंग आंखों को चौंध से और फोटो-क्रोमैटिक अल्ट्रावॉयलट किरणों से बचाती है। 

कितनी तरह के लेंस 
मोनोफोकल या सिंगल विजन लेंस 
इसमें पूरे लेंस की पावर एक जैसी ही होती है। इनका इस्तेमाल सिर्फ नजर के दोष जैसे मायोपिया, हाइपरमेट्रोपिया, एस्टीग्मेटिज्म या प्रेस्बायोपिया में से सिर्फ एक के लिए किया जा सकता है। 

बायफोकल लेंस 
बायफोकल लेंस में ऊपर की तरफ दूर का देखने का नंबर और नीचे की ओर पास का देखने का नंबर होता है।

ट्राइफोकल लेंस 
ट्राइफोकल लेंस में ऊपर की तरफ दूर का देखने का नंबर होता है। बीच में बीच वाला एरिया देखने का और नीचे की तरफ पास का नंबर होता है। ट्राइफोकल लेंस में बीच वाला एरिया बड़ा होता है। ट्राइफोकल लेंस 40 साल से ज्यादा उम्र के ऐसे लोगों के लिए बहुत फायदेमंद होते हैं, जो कंप्यूटर पर काम करते हैं। 

मल्टिफोकल या प्रोग्रेसिव लेंस 
मल्टिफोकल या प्रोगेसिव लेंस में बहुत सारी फोकल लेंथ होती हैं। कितनी दूरी पर देखना है, उसके हिसाब से इसमें लेंस की पावर या नंबर अलग होता है। इस समय मल्टिफोकल या प्रोग्रेसिव लेंस सबसे अच्छे माने जाते हैं लेकिन इस लेंस को एडजस्ट करने में थोड़ा वक्त लगता है, मसलन लेंस के किस क्षेत्र से कितनी दूरी का देखना है, सीढ़िया चढ़ने-उतरने में सही अनुमान लगाने में समय लगना आदि। 

कॉन्टैक्ट लेंस 
आजकल कॉन्टैक्ट लेंस का इस्तेमाल आम हो गया है। कॉन्टैक्ट लेंस का इस्तेमाल नजर की कमजोरी, कॉर्नियल अल्सर, काला मोतिया के इलाज के अलावा लोग फैशन के तौर पर भी करते हैं। कॉन्टैक्ट लेंस आमतौर पर तीन तरह के होते हैं: 

हार्ड कॉन्टैक्ट लेंस 
हार्ड कॉन्टैक्ट लेंस पॉलिमिथाइल मिथाइल एक्रिलेट मटीरियल के बने होते है। ये लंबे समय तक इस्तेमाल किए जा सकते है। वजन में हल्के होते हैं लेकिन हार्ड कॉन्टैक्ट लेंस ऑक्सिजन को आरपार नहीं होने देते, जिस वजह से कॉर्निया तक ऑक्सिजन नहीं पहुंच पाती। इन्हें रोजाना पहन सकते हैं लेकिन रात के वक्त इन्हें उतारना जरूरी है, वरना कॉर्निया को ऑक्सिजन की कमी हो जाती है और आदमी को धुंधला दिखने लगता है। हार्ड होने के कारण कॉन्टैक्ट लेंस को पहनते और उतारते वक्त कॉर्निया में खरोंच लगने और कॉर्नियल अल्सर होने का डर रहता है। आजकल हार्ड कॉन्टैक्ट लेंस का इस्तेमाल काफी कम हो गया है। 

सेमी-सॉफ्ट कॉन्टैक्ट लेंस 
सेमी-सॉफ्ट कॉन्टैक्ट लेंस सिलिकॉन पॉलिमर्स के बने होते हैं। इनमें हार्ड और सॉफ्ट, दोनों तरह की क्वॉलिटी पाई जाती है। सेमी-सॉफ्ट कॉन्टैक्ट लेंस सबसे अच्छे माने जाते हैं क्योंकि ये ऑक्सिजन को कॉर्निया तक पहुंचाने में भी मददगार होते हैं। अपना आकार बनाए रखने के साथ-साथ इनसे दिखाई भी एकदम साफ देता है। जिन लोगों का सिलिंड्रिकल नंबर (पास और दूर, दोनों हो सकते हैं) होता है, उनके लिए ये लेंस सबसे अच्छे होते हैं। सिलिंड्रिकल नंबर से फोकस रेटिना के ऊपर और एक ही जगह पर होने लगता है। इन लेंस की देखभाल करना आसान है और ये टिकाऊ भी खूब होते हैं। 

सॉफ्ट कॉन्टैक्ट लेंस 
ये लेंस जिस मटीरियल के बने होते हैं, उसमें पानी भी मिला होता है, जो ऑक्सिजन को लेंस के कॉर्निया तक पहुंचाने में मददगार होता है। ये लेंस सूरज की अल्ट्रावॉयलेट किरणों से आंखों का बचाव करते हैं। सॉफ्ट होने के कारण पहली बार लेंस यूज कर रहे लोगों को इन्हें इस्तेमाल करना आसान होता है। हालांकि इनमें थोड़े समय में ही आंख के अंदर का प्रोटीन जमा होने लगता है, जिससे ये धुंधले पड़ जाते हैं और इन्हें बदलना पड़ता है। सॉफ्ट होने के कारण इनमें क्रैक जल्दी पड़ने लगते हैं। सॉफ्ट कॉन्टैक्स लेंस में डिस्पोजेबल लेंस पहनना बेहतर होता है। 

नोट: सॉफ्ट लेंस को साल में एक बार जरूर बदल देना चाहिए। ऐसा करने से आंख में इन्फेक्शन का खतरा कम रहता है। सॉफ्ट लेंस उन लोगों के लिए बहुत कारगर होते हैं, जिन्हें हर रोज देर तक काम करना होता है। सभी तरह के लेंस को रात में उतार देना चाहिए। हालांकि मजबूरी में सॉफ्ट या सेमी-सॉफ्ट लेंस को पहनकर सो भी सकते हैं, जबकि हार्ड कॉन्टैक्स लेंस को जरूर उतारना चाहिए। 

सॉफ्ट लेंस कई तरह के होते हैं : 
महीने में बदले जानेवाले कॉन्टैक्ट लेंस 
इन लेंस को एक महीने इस्तेमाल करने के बाद बदल देना जरूरी होता है। जिन लोगों में इन्फेक्शन जल्दी-जल्दी होता है, उनके लिए ये लेंस कारगर होते हैं। रोजाना बदले जानेवाले लेंस की तुलना में ये सस्ते भी पड़ते हैं और पसंद भी ज्यादा किए जाते हैं। 

डिस्पोजेबल कॉन्टैक्ट लेंस 
इन्हें रोजाना बदलने वाले लेंस भी कह सकते हैं क्योंकि इन्हें एक बार इस्तेमाल के बाद फेंक दिया जाता है। जिन लोगों को एलर्जी या आंख में इन्फेक्शन की शिकायत होती है, उनके लिए इस तरह के कॉन्टैक्ट लेंस बहुत काम के होते हैं। 

कलर्ड सॉफ्ट कॉन्टैक्ट लेंस 
कलर्ड कॉन्टैक्ट लेंस से कोई भी आंखों का रंग बदल सकता है। फिल्म स्टार, मॉडल्स के अलावा फैशन में आम लोग खासकर युवा लड़कियां इनका इस्तेमाल करती हैं। आंख की पुतली पर फुला या माड़ा पड़ने पर भी लोग इनका इस्तेमाल करते हैं। 

बायफोकल और ग्रेडिड कॉन्टैक्ट लेंस 
 बायफोकल कॉन्टैक्ट लेंस दूर और पास के नजर दोष, दोनों में इस्तेमाल किए जाते हैं। इन कॉन्टैक्ट लेंस का इस्तेमाल प्रेस्बायोपिया में किया जाता है। 

कॉन्टैक्ट लेंस के खराब नतीजे 
कॉन्टैक्स लेंस का ढंग से इस्तेमाल न करने पर कई समस्याएं हो सकती हैं। जैसे: 

एलर्जी (एलर्जिक कंजंक्टिवाइटिस): इसमें आंख लाल हो जाती है। आंख में खुजली होने लगती है। ऐसा होने पर कुछ समय के लिए कॉन्टैक्ट लेंस न लगाएं और आंख के डॉक्टर की सलाह लें। 

इन्फेक्शन: इससे बचने के लिए जरूरी है कि कॉन्टैक्ट लेंस पहनने से पहले अच्छी तरह हाथ धोएं। कॉन्टैक्ट लेंस को पानी से नहीं धोना चाहिए। पानी में मौजूद बैक्टीरिया आंख में इन्फेक्शन कर सकते हैं। कॉन्टैक्ट लेंस को लेंस केयर सल्यूशन से साफ करें और एक बार इस्तेमाल किए गए सल्यूशन को दोबारा इस्तेमाल न करें।

पुतली (कॉर्निया) पर खरोंच: ध्यान रखें कि कॉन्टैक्ट लेंस को पहनते और उतारते वक्त आंख की पुतली पर खरोंच न लगे क्योंकि ऐसा होने पर कॉर्नियल अल्सर और आंख की पुतली पर सफेदी पड़ने का डर रहता है, जिससे हमेशा के लिए आंख की रोशनी जा सकती है। 

कब यूज न करें लेंस 
-अगर किसी का दिमाग पूरा काम न करता हो -आंख में इन्फेक्शन या एलर्जी होने पर 
-आंख में रूसी (ब्लिफेराइटिस) होने पर 
-आंख के सूखे (ड्राई आई सिंड्रोम) होने पर 
-आंख की पुतली पर सूजन होने पर 

लेंस खरीदते वक्त रखें ध्यान 
-लेंस खरीदते वक्त देखें कि लेंस से बिल्कुल साफ दिखाई दे रहा है या नहीं। लेंस का वजन भी हल्का होना चाहिए। 

-लेंस पर एंटी-ग्लेयर कोटिंग (चौंधरहित कवर) होनी चाहिए, जो आंख को चौंध से बचाए रख सके और साफ देखने में मदद करे। 

-लेंस का रिफ्रेक्टिव इंडेक्स ज्यादा होना चाहिए। ऐसा लेंस पतला होता है और किसी भी चीज के तिरछा दिखने की आशंका को कम कर देता है। इसे हाई इंडेक्स लेंस भी कहा जाता है। 

ऐसे खरीदें सनग्लास 
गर्मियों में धूप का चश्मा सिर्फ फैशन के लिए नहीं होना चाहिए। चश्मा खरीदने से पहले यह सुनिश्चित कर लें कि यह चश्मा आपकी आंखों का अल्ट्रावॉयलट किरणों से बचाव कर सकता है या नहीं। कभी भी सस्ते और सड़क किनारे बिकने वाले चश्मे नहीं खरीदने चाहिए। सड़क के किनारे बिकने वाले सस्ते चश्मे आंखों को अल्ट्रावॉयलट किरणों से बचा नहीं पाते और आंखों को नुकसान पहुंचाते हैं। हमेशा अच्छी ऑप्टिकल शॉप से अच्छी कंपनी और क्वॉलिटी का चश्मा खरीदना चाहिए(नवभारत टाइम्स,दिल्ली,11.3.12)।

14 टिप्‍पणियां:

  1. कुछ हट के --
    चश्मे चेहरे पर चढ़े, हिले मूल के चूल |
    दोष सहित भाये मनुज, मूल प्रकृती भूल ||

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  2. वाह!!!!

    आँखें खोल दीं..........
    :-)

    विस्तृत जानकारी के लिए आभार.

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  3. जान कारी से भरपूर अच्छा आलेख .रोचक कसावदार प्रस्तुति .

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  4. विस्तृत जानकारी ... आँखों में कितना कुछ है और क्या क्या ध्यान भी रखना चाहिए .... शुक्रिया जी ...

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  5. badhiya jankari di hai aapne ...
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  6. पूरा मार्गदर्शिका है यह पस्ट। संग्रहणीय।

    प्रोग्रेसिव लेंस यूज़ कर रहा हूं। बड़ा काम का है।
    कंप्यूटर पर काम करने वालों के लिए बहुत ही उपयोगी।

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