स्वस्थ गुर्दे रक्त को शुद्ध रखते है और शरीर से अतिरिक्त तरल पदार्थ और नमक को निकाल बाहर करते हैं। साथ ही शरीर के विषैले तत्वों को भी बाहर कर देते हैं। जब गुर्दे काम करना बंद कर देते हैं तब शरीर में अपशिष्ट पदार्थ जमा होने लगते हैं, रक्तचाप ब़ढ़ जाता है और तरल पदार्थ जमा होने लगते हैं। गुर्दों के ठप पड़ जाने की दशा में डायलिसिस कराना प़ड़ता है। कई गंभीर अवस्था में पहुँच चुके मरीज़ों को गुर्दों का प्रत्यारोपण कराने की भी सलाह दी जाती है। डायलिसिस गुर्दों के इलाज की रक्षापंक्ति में पहले पायदान पर होता है।
दो तरह की होती है
-हीमोडायलिसिस।
-पेरिटोनियल डायलिसिस।
दोनों ही तरह की डायलिसिस दो सामान्य गुर्दों की कार्यक्षमता का केवल 5 प्रतिशत विकल्प ही उपलब्ध करा पाती हैं।
पेरिटोनियल डायलिसिस
इस तरह की डायलिसिस १९८० के बाद अस्तित्व में आई। इस मशीन का इस्तेमाल घर, ऑफिस अथवा कहीं भी किया जा सकता है। इसमें एक मुलायम कैथेटर पेडू को डायलिसिस सॉल्यूशन से भर देता है। पेडू के इस खोखले हिस्से की सतह पेरिटोनियम से घिरी रहती है। विषैले पदार्थ एवं अतिरिक्त तरल पदार्थ जिसमें नमक भी शामिल है, पेरिटोनियम से होते हुए डायलिसिस सॉल्यूशन में पहुँचते हैं। जब डायलिसिस सॉल्यूशन को शरीर से बाहर निकाला जाता है, तब ये सभी विषैले पदार्थ भी बाहर निकल आते हैं। डायलिसिस सॉल्यूशन भरने एवं निकालने को "एक्सचेंज" प्रोसेस भी कहा जाता है। इसमें ३०-४० मिनट लगते हैं। एक दिन में अधिकतम ४ एक्सचेंज किए जा सकते हैं। इस प्रक्रिया में किसी मशीन की ज़रूरत नहीं होती। मरी़ज़ शरीर के इस खोखले हिस्से में डायलिसिस सॉल्यूशन भर कर अपना रोज़मर्रा का काम भी कर सकता है। एक चीरे के जरिए केथेटर शरीर के अंदर उतारा जाता है।
कौन सी प्रक्रिया बेहतर
दरअसल किसी भी मरीज़ के लिए डायलिसिस की स्थिति तक पहुंचना ही एक ब़ड़ी विसंगति है क्योंकि दोनों से ही गुर्दे ठीक नहीं होते। दोनों प्रक्रियाएँ गुर्दों का केवल ५ प्रतिशत विकल्प ही प्रस्तुत कर पाती हैं। बेहतर तो यही होगा कि गुर्दे बचे रहें। डायलिसिस जैसी गंभीर स्थिति ही निर्मित न हो।
कैसे जिएँ डायलिसिस के साथ
ख़राब गुर्दों के कारण उठ रही परेशानियों और डायलिसिस में लगने वाला वक्त किसी भी मरी़ज़ के लिए भारी होता है। लगभग हर मरी़ज़ यह सोचने लगता है कि उसकी ऊर्जा खत्म हो रही है। कई मरी़ज़ डायलिसिस शुरु होने के पहले अवसाद में चले जाते हैं। कुछ अपने काम और घरेलू जिंदगी में कई परिवर्तन कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में मरी़ज़ का अपने चिकित्सक से सलाह लेना ठीक होता है। गुर्दारोग विशेषज्ञ हर महीने अथवा हर तीन महीने में जाँचकर यह पता लगते हैं कि डायलिसिस का असर हो रहा है या नहीं(सेहत,नई दुनिया,जनवरी द्वितीयांक 2012)।
जी, केयर अधिक बेहतर है इलाज से.
जवाब देंहटाएंउपर कि टिप्पणी मै दिया गया इलाज केयर सबसे अधीक असरकारी है ।
जवाब देंहटाएंऔर केयर कैसे करे इन बारे मै जानकारी देने के लिए आपको शतश: शुक्रिया ।
आपका हमारे ब्लॉग पर स्वागत है और हमारे ब्लॉग पर सबसे पहली टिप्पणी आपकि हि है । टिप्पनी देने के लिए शुक्रिया ।
हिंदी दुनिया
Achchi Jankari......
जवाब देंहटाएं------------
मेरी टिप्पणी आपके मॉडरेशन का शिकार हुई मालूम होती है। अलविदा।
December 23, 2011 11:36 AM
@ Kumar radhramanji
:) Yatra ke chalte kai din baad net par aana hua..... Vichar sahmati ke hon ya asahmati ke main tippaniyon me aaye vicharon ka bahut samman karati hun..... isliye unhen modarate nahin karati ...aapke vichar to sadaiv vishay ko naya vistar dete hain..... Abhar
January 02, 2012 10:16 AM
http://meri-parwaz.blogspot.com/2011/12/blog-post_21.html
बढ़िया जानकारी आभार !
जवाब देंहटाएंसोमवार तक ब्लॉग पर अनुपस्थित रहूंगी :)
इस ब्लॉग पर जीवन से जुडी अच्छी जानकारी मिलती है .. आभार
जवाब देंहटाएंशुरू में केयर करना ही बेहतर है ... आपने बहुत अच्छी जानकारी उपलब्ध कराइ है ...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ...
आपके सलाह तो हमेशा ही हमारे काम आएँगे ..आभार
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