मंगलवार, 15 नवंबर 2011

सस्ती दवाएं ही देगीं जीवन का अधिकार

पिछले कुछ दशकों में भारत को एक बहुत गौरवशाली स्थान मिला है। इसे विकासशील और गरीब देशों की फार्मेसी समझा जाने लगा है। दूसरे शब्दों में कहें तो कम आय के देशों में सस्ती दवाओं की उपलब्धि के लिए भारत से होने वाले निर्यात की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका बन गई है। भारत की अनेक दवा कंपनियों ने सस्ती ' जिनेरिक ' दवाएं बनाने में विशेष ख्याति प्राप्त की है। पर हाल के समय में कुछ ऐसी प्रवृत्तियां सामने आई हैं , जिनसे लग रहा है कि कहीं भारत से यह खिताब छिन न जाए। मुद्दा केवल भारतीय दवा कंपनियों की प्रतिष्ठा का नहीं है। सबसे बड़ा सवाल जरूरतमंद मरीजों को जीवनरक्षक दवाएं उपलब्ध करवाने का है। कैंसर और एड्स एचआईवी जैसी गंभीर बीमारियों के लाखों मरीज यदि भारतीय कंपनियों की बनाई सस्ती दवाएं प्राप्त न करें तो उनका इलाज जारी नहीं रह सकेगा। 

पेटेंट का प्रपंच 
गरीब व विकासशील देशों में सेवाभाव से कार्यरत अनेक संगठन भी अपने अपेक्षाकृत कम बजट में भारतीय कंपनियों की जिनेरिक व सस्ती दवाएं खरीदकर ही मरीजों का इलाज कर पाते हैं। अमीर व विकसित देशों में प्राय : सरकारी सहायता प्राप्त स्वास्थ्य सेवाओं से दवाओं की आपूर्त्ति हो जाती है , अत : वहां पेटेंट की गई महंगी दवाएं भी मरीजों को बिना किसी विशेष बोझ के मिल जाती हैं। पर गरीब व विकासशील देशों के अधिकतर मरीजों को यह सुविधा उपलब्ध नहीं है। ऐसे में पेटेंट मुक्त जिनेरिक दवाओं का सस्ती कीमत पर मिल जाना वहां बहुत जरूरी है। इस जरूरत को पूरा करने में भारतीय दवा कंपनियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने महंगी दवाओं के सस्ते मगर अच्छी गुणवत्ता के जिनेरिक संस्करण उत्पादन करने व बेचने में प्रतिष्ठा प्राप्त की है। इस वजह से ही भारत को विकासशील देशों की फार्मेसी कहलाने का गौरव भी प्राप्त हुआ है। 

क्या है ट्रिप्स 
भारत की यह प्रतिष्ठा अनेक बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को चुभती रही है। ये कंपनियां चाहती हैं कि दुनिया भर में केवल उनकी पेटेंट की गई महंगी दवाओं की ही बिक्री हो। पर वे इस सचाई से मुंह फेर लेती है कि जिस कीमत पर वे दवा बेच रही हैं , उसको अदा करने में अधिकांश जरूरतमंद मरीज असमर्थ हैं। इन मरीजों के हितों की परवाह न करते हुए ये कंपनियां बहुत समय से यह प्रयास कर रही थीं कि जरूरत से ज्यादा सख्त पेटेंट कानूनों का प्रसार विकासशील व गरीब देशों में भी किया जाए , ताकि उन्हें पूरी दुनिया में ऊंचा मुनाफा कमाने का अवसर मिले। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के दौर में बड़ी चालाकी से पेटेंट कानून या बौद्धिक अधिकार संपदा कानूनों के मुद्दे को व्यापार से जोड़ लिया गया। इसका फायदा बहुराष्ट्रीय कंपनियों को यह मिला कि पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय व्यापार के नियमन संबंधी समझौते किए गए तो उसके साथ पेटेंट कानूनों का समझौता भी हो गया , जिसे ट्रिप्स समझौते के नाम से जाना जाता है। 

ट्रिप्स समझौता हो जाने के बाद विकासशील देशों पर यह दबाव अपने आप पड़ गया कि वे एक विशेष समय अवधि के बीच अपने पेटेंट कानूनों में बदलाव कर उन्हें ट्रिप्स समझौते की शर्तों के अनुकूल बनाएं। भारत में भी यही स्थिति रही। जन - संगठनों द्वारा काफी विरोध होने के बावजूद भारत के पेटेंट कानून में भी ट्रिप्स समझौते के अनुरूप महत्त्वपूर्ण बदलाव किए गए। वर्ष 2005 में हुए इस बदलाव के साथ ही विकासशील देशों की फार्मेसी के रूप में भारत की पहचान क्षतिग्रस्त होने लगी। सस्ती व जिनेरिक दवाओं की उपलब्धि के पक्षधरों ने इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपने प्रयास जारी रखे। अदालतों में कानूनी लड़ाइयां लड़कर उन्होंने कानून की ऐसी व्याख्या प्राप्त करने का प्रयास किया , जिससे सस्ती , जिनेरिक दवाओं की उपलब्धि पर आंच न आए। 

यहां यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि ट्रिप्स समझौता होने के समय दुनिया भर में जन - स्वास्थ्य की रक्षा संबंधी जो चिंताएं उठाई गई थीं , उसके कारण बचाव के कुछ प्रावधान विश्व व्यापार संगठन में भी मौजूद रह सके हैं। इसी तरह जब भारतीय पेटेंट कानून में बदलाव करना एक मजबूरी बन गई थी , तब भी जन - अभियान के दबाव में इस कानून में सस्ती दवाओं के लिए कुछ प्रावधान किए जा सके थे। वर्ष 2005 के बाद इस मुद्दे पर अदालती संघर्षों को देखें तो पता चलता है कि सस्ती दवाओं की उपलब्धता लिए स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने कई बार अदालतों के दरवाजे खटखटाए हैं , जबकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भी अपने पेटेंट की मान्यता बढ़ाने के लिए अदालतों का भरपूर उपयोग किया है। इन कंपनियों के साधन असीमित हैं जबकि स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के पास बहुत कम साधन हैं। 

बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने पेटेंट संबंधी अपने मुकदमों में देश के सबसे महंगे वकील खड़े किए हैं। बहुत बड़ी फीस लेने वाले वकील , जो राजनीतिक व सामाजिक मंचों पर आगे रहते हैं , बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ओर से सक्रिय हैं। पर आम लोगों के जिंदा रहने का अधिकार इस पक्ष बात पर निर्भर करता है कि सस्ती जिनेरिक दवाओं की उपलब्धता बनी रहे। 

कीमत बारह गुनी 
उदाहरण के लिए इस समय इस संघर्ष में जो मुकदमा सबसे चर्चित है , उसमें एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने ल्यूकेमिया के मरीजों के लिए जीवनरक्षक दवा का सस्ता , जिनेरिक संस्करण रोकने का प्रयास किया है। इस प्राणघातक बीमारी के मरीजों को महंगी पेटेंट की दवा बहुराष्ट्रीय कंपनी से खरीदनी पड़े तो उसका खर्च 12 गुना तक बढ़ जाता है। हालांकि इस समय यह कंपनी कुछ मरीजों को दवा नि:शुल्क भी देती है , किंतु इससे इस हकीकत पर पर्दा नहीं डाला जा सकता कि यदि जिनेरिक दवा पर रोक लग गई तो यह दवा विकासशील देशों के अधिकांश मरीजों की पहुंच से बाहर हो जाएगी। मनुष्य के सबसे बड़े अधिकार, जीवन के अधिकार को प्रतिष्ठित करते हुए सस्ती जिनेरिक दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने के प्रयासों को व्यापक समर्थन मिलना चाहिए। इस समय इन प्रयासों के केंद्र में भारत है और उसे मिली सफलता का लाभ विश्व स्तर तक पहुंचेगा(भारत डोगरा,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,10.11.11)।

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