शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ःआयुर्वेद के विकास का लाभ नहीं मिल रहा लोगों को

बाबा रामदेव का असर कहें या एलोपैथी दवाओं से उपजी असंतुष्टि, मध्य प्रदेश में आयुर्वेद के प्रति रूझान बढ़ा है। आयुर्वेद दवा कंपनियों की बढ़ती बिक्री इसकी गवाह है। प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में औषधीय पौधों की खेती बढ़ी है और आयुर्वेद औषधियों का निर्माण भी बढ़ा है लेकिन नियमों की जटिलताओं के चलते राज्य "एक्सपोर्ट" में पिछड़ रहा है। दूसरी तरफ, एलोपैथी डॉक्टरों को गावों में भेज पाने में हर तरह से विफल रही सरकार बार-बार कहती है कि अस्पतालों के खाली पदों पर आयुर्वेद चिकित्सकों की नियुक्ति होगी लेकिन २००२ के गजट नोटिफिकेशन के बाद भी यह काम नहीं हो पाया है। यानी प्रदेश में आयुर्वेद के विस्तार के लिए मौका भी है, दस्तूर भी है लेकिन प्रशासन ही तैयार नहीं है। 

प्रदेश में औषधीय फसलों जैसे आंवला, बेल, अश्वगंधा, शतावर, कालमेघ, इसबगोल, कलौंजी, सर्पगंधा, गुड़मार, नागरमोथा, गिलोय और सफेद मूसली का उत्पादन बढ़ा है। जबलपुर, मंडला, पन्ना, सतना, छिंदवाड़ा, इंदौर, मंदसौर आदि जिलों में किसानों ने इन फसलों के उत्पादन में रुचि दिखाई है। वन मंत्री सरताज सिंह कहते हैं कि आयुर्वेद की लोकप्रियता को देखते हुए हम लुप्त हो रही जड़ी-बूटियों को बचाने के लिए विशेष अभियान चला रहे हैं। वन विभाग ने औषधीय पौधों को लगाने के साथ अमरकंटक और तामिया में लुप्त होती जड़ी-बूटियों के उत्पादन के लिए विशेष प्रोजेक्ट शुरू किए हैं। इसके साथ ही भोपाल में बड़ा आयुर्वेदिक नेत्र अस्पताल प्रारंभ किया गया है। मध्य प्रदेश सरकार ने औषधीय पौधों के उत्पादन और इनके क्रय-विक्रय के लिए बाजार तैयार करने के उद्देश्य से १९९६ में मेडिसिनल प्लांट टास्क फोर्स का गठन किया था। इसके बाद वर्ष २००३-०४ में एनएमपीबी ने मध्य प्रदेश के ३६७ औषधीय फसलों के प्रोजेक्ट के लिए ८७७ लाख रुपए की मंजूरी दी। उत्पादन में वृद्धि के बाद भी प्रदेश से औषधियों का "एक्सपोर्ट" नहीं हो पा रहा है जबकि विदेशों में मांग को देखते हुए भारत से प्रतिवर्ष २५० प्रकार के औषधीय पौधों, उनकी जड़, फल और पत्तियों का एक्सपोर्ट किया जाता है। प्रदेश में कुछ दवाओं का उत्पादन तो बढ़ा लेकिन एक्सपोर्ट के हाल नहीं सुधरे हैं। इसका कारण अंतरराष्ट्रीय मानदंडों का पूरा न होना है। सूत्र बताते हैं कि एक्साइज, वेट सहित अन्य कर और वन विभाग की कठिन औपचारिकताओं के कारण भी इंडस्ट्री अपेक्षित गति से विस्तार नहीं कर पा रही है। दवाओं की जांच सहित दूसरे सर्टिफिकेशन के अभाव में प्रदेश की कंपनियों को आर्डर नहीं मिल पाते।

उधर,छत्तीसगढ़ में भी राज्य के गठन के बाद के एक दशक में आयुर्वेद का तेजी से विकास हुआ है। हालांकि इसमें विकास की अभी और संभावना है। एक मात्र शासकीय आयुर्वेद कॉलेज के अलावा राजनांदगांव के मनकी में छत्तीसगढ़ आयुर्वेद मेडिकल कॉलेज तथा दुर्ग के चंद्रपुरी में राजीव लोचन आयुर्वेद कॉलेज की स्थापना हुई है। इन तीनों कॉलेज से प्रतिवर्ष १८० बीएएमएम (आयुर्वेद) डॉक्टर तैयार होते हैं। राजधानी के नगपुरा में महावीर आयुर्वेद कॉलेज प्रस्तावित है। इस कॉलेज के चालू होने से प्रतिवर्ष २५० डॉक्टर तैयार होंगे। शासकीय आयुर्वेद कॉलेज में पहले मात्र कायचिकित्सा में एमडी होती थी, लेकिन अब पांच विषयों में एमडी हो रही है। इनमें कायचिकित्सा, शरीर रचना विज्ञान (एनाटॉमी), रसशास्त्र, आयुर्वेद सिद्धांत, शल्यतंत्र सामान्य विषय शामिल हैं। 

राज्य शासन द्वारा शासकीय आयुर्वेद कॉलेज को मॉडल कॉलेज के रूप विकसित किया जा रहा है। इसके तहत कॉलेज में २०० बिस्तरों वाला अस्पताल, कॉलेज के लिए नया भवन व हर्बल गार्डेन का विकास किया जा रहा है(भोपाल से पंकज शुक्ला तथा रायपुर से जयप्रकाश मिश्र की ये रिपोर्टें दैनिक नई दुनिया के दिल्ली संस्करण में 24.10.11 को प्रकाशित हैं)। 


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