दुनिया भर के लोगों के स्वास्थ्य की चिंता और रक्षा के लिए आवाज उठाने वाले विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हर साल 80 लाख व्यक्तियों की मौत कैंसर से हो जाती है और वर्ष 2020 तक कैंसर रोगों से मरने वालों की संख्या लगभग पौने दो करोड़ तक पहुंच जाएगी। अब तक की गई तमाम कोशिशों के बावजूद कैंसर पर लगाम नहीं लगाई जा सकी है, लेकिन अचरज की बात है कि हजारों कैंसर रोगियों को नया जीवन देने वाले डीएस रिसर्च सेंटर के चिकित्सकों द्वारा पोषक ऊर्जा से विकसित औषधि की जांच-पड़ताल को नजरंदाज किया जा रहा है। लगभग सात वर्ष पूर्व कैंसर क्योर के चार सौ से अधिक परिणामों की सूची पूरे नाम व पते तथा प्रमाणों के साथ वाराणसी में स्थित इस सेंटर के वैज्ञानिकों ने डब्ल्यूएचओ को भेजी थी। उम्मीद की थी यह संस्था अपने स्त्रोतों से इसकी जांच पड़ताल करा लेता अथवा दस-पंद्रह परिणामों के हवाले भी कैंसर पर मिली जीत को प्रचारित-प्रसारित कर देता तो संसार के तमाम लोगों व कैंसर रोगियों में आशा और उत्साह का संचार होता और कैंसर पर लगाम लगाने का नया मार्ग प्रशस्त होता। पर ऐसा लगता है कि डब्ल्यूएचओ उन बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के दबाव में है जो यह नहीं चाहती है कि बाजार में कोई ऐसी सस्ती दवा आए जो कैंसर का नामोनिशान मिटा दे, क्योंकि इससे उनके व्यापारिक हितों पर चोट पहुंचेगी। चिकित्सा इतिहास में ऐसा शायद पहली बार हुआ जब मरणासन्न कैंसर रोगियों को उनकी चारपाई पर ही परिजनों ने लाकर औषधि दी और वह कुछ महीनों में ही स्वस्थ होकर खुशहाल जीवन जीने लगे। यह जीते-जागते लोग इस बात के साक्षात प्रमाण हैं कि उन्हें कैंसर हुआ था और उनका इलाज देश के विभिन्न प्रतिष्ठित कैंसर अस्पतालों में चला था। जब उनके बचने की लगभग सभी संभावनाएं समाप्त हो गई तो इन मरणासन्न रोगियों को पोषक ऊर्जा की औषधि दी गई। इस औषधि का उन पर अद्भुत प्रभाव पड़ा और कइयों को अपेक्षा से अधिक दिनों तक जीवित रहने का अवसर मिला और कुछ पूरी तरह से कैंसर मुक्त होकर नई जिंदगी जी रहे हैं। कैंसर रोगियों को नया जीवन देने वाली इस महा औषधि का आविष्कार वाराणसी के डीएस रिसर्च सेंटर के चिकित्सक वैज्ञानिक डॉ. उमाशंकर तिवारी और प्रो. शिवाशंकर त्रिवेदी ने किया है। लगभग 40 वर्ष पहले ड्रग सिद्धांत से अलग हटकर अनुसंधान करने का क्रांतिकारी अभियान त्रिवेदी बंधुओं ने शुरू किया। पोषक ऊर्जा से तैयार की गई सर्वपिष्टी का परीक्षण कैंसर के मरणासन्न रोगियों पर किया गया, जिसका परिणाम आश्चर्यजनक रूप से सफल रहा है। हालांकि यह सब पहली नजर में अविश्वसनीय लगता है। इस कारण विश्वास को जगाने के लिए हर प्रकार से जांचकर तथ्य का पता लगाना जरूरी था कि यह सचमुच वही लोग हैं जो कभी बुरी तरह से कैंसर से ग्रस्त थे। उत्तर प्रदेश के अमेठी में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के कर्मचारी अनिल कुमार श्रीवास्तव के कैंसर होने की पुष्टि टाटा कैंसर अस्पताल, मुंबई ने की थी। वहां उनका छह माह तक कैंसर का इलाज भी हुआ था। जांच के बाद वह ब्लड कैंसर (एक्यूट ल्यूकोमिया) के रोगी पाए गए। टाटा कैंसर अस्पताल के चिकित्सकों ने उनके इलाज की हरसंभव कोशिश की पर जब उनका रोग इतना उग्र हो गया कि बचने की कोई संभावना नहीं बची तो 20 जनवरी, 1992 को अस्पताल से उन्हें मुक्त कर दिया गया। उन्हें डेढ़-दो महीने और जीने की संभावना बताई गई थी, लेकिन किसी के बताने पर जब वह डीएस रिसर्च सेंटर के संपर्क में आए तो उनके घर पर ही सर्वपिष्टी से इलाज शुरू हुआ। आश्चर्यजनक रूप से अनिल के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा और जांच रिपोर्ट से भी इसकी पुष्टि हुई। लगभग चार महीने में जब वह स्वस्थ हो गए तो डीएस रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिकों के सुझाव पर उन्होंने टाटा कैंसर अस्पताल जाकर अपनी जांच कराई 29 मई, 1992 को उन्हें रक्त कैंसर (एक्यूट ल्यूकोमिया) से पूरी तरह मुक्त घोषित किया गया। पिछले 18 वर्षो से अनिल कुमार पूर्ण स्वस्थ हैं और अमेठी स्टेट बैंक में कार्यरत हैं। इसी तरह वाराणसी के कपसेठी की रीता सिंह के ब्रेन ट्यूमर का मामला भी कोई कम विस्मयकारी नहीं है। इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज, बीएचयू में जांच के बाद पाया गया कि रीता सिंह के बे्रन में एक ट्यूमर है। वहां समय से ही उनकी चिकित्सा शुरू कर दी गई थी, लेकिन कुछ ही दिन बाद फरवरी 1991 की जांच में पाया गया कि ट्यूमर की संख्या बढ़कर छह हो गई है। रीता की शारीरिक स्थिति भी सोचनीय हो गई और पाचन संस्थान ने भी काम करना बंद कर दिया। शरीर पर स्नायुओं का नियंत्रण नहीं था और आंखों की ज्योति भी चली गई थी। चिकित्सकों की राय से उन्हें लखनऊ में संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में भर्ती किया गया। न्यूरो सर्जरी विभाग ने (सीआर नं.-47850/91 बायोप्सी नं.-285/91 दिनांक 18.02.91) रीता सिंह को बाद में डिस्चार्ज कर दिया। कोई चारा नहीं देखकर रीता को घर लाया गया। इसी बीच उनके घर वालों ने डीएस रिसर्च सेंटर से संपर्क किया। उनके साथ एक असुविधा यह थी कि जो रोगी एक चम्मच पानी नहीं ले सकती तो उसे दवा कैसे दी जाती? फिर भी पहले सप्ताह की दवा दे दी गई। पहली खुराक पानी में घोलकर दी गई।। दवा की उल्टी नहीं हुई और दो-तीन खुराक दवा लेने के बाद उल्टियों का सिलसिला बंद हो गया। बाद में रोगी को पानी, फिर फलों का रस और थोड़ा-थोड़ा दूध दिया जाने लगा। एक महीने बाद शरीर पर स्नायुओं का नियंत्रण कायम होने लगा। आंखों की ज्योति लौटी और वह थोड़ा बहुत चलने लगीं। प्रो. त्रिवेदी भी संशकित थे कि दिमाग के भीतर की बात है। उन्होंने रोगी के परिजन अनंत बाबू को अस्पतालों की मदद लेने का सुझाव दिया। पर वह अस्पतालों से पहले ही निराश हो चुके थे इसलिए तय कर लिया था कि अब जो होगा सर्वपिष्टी से ही होगा। बहरहाल तीन महीने बाद जब इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज, बीएचयू के अस्पताल में जांच हुई तो पता चला कि तीन ट्यूमर गायब हो गए हैं और शेष तीन का आकार भी छोटा हो गया है। इसके बाद दवा नियमित रूप से चलती रही और रीता सिंह दिन प्रतिदिन सामान्य और स्वस्थ होती गई। रीता सिंह आज भी जिंदा हैं और स्वस्थ एवं खुशहाल जीवन व्यतीत कर रही हैं। डीएस रिसर्च सेंटर के पास ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमें कैंसर रोगियों की जांच से यह प्रमाणित कर दिया गया है कि अब कैंसर का इलाज संभव हो गया है। वैज्ञानिकों ने डब्ल्यूएचओ के बाद 2005 में भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री को भी 750 रोगियों का पूरा ब्यौरा भेजकर सर्वपिष्टी के परिणामों की जांच कराने की मांग की थी, लेकिन आश्चर्य कि कैंसर की चिकित्सा के इन सफल प्रमाणों की जांच की कोई कोशिश न तो डब्ल्यूएचओ और न ही भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने की। उम्मीद की जाना चाहिए कि सरकार इसे अब गंभीरता से लेगी और जांच कराएगी(निरंकार सिंह,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,27.4.11)।
्पूरे देश में इसका प्रचार और प्रसार किया जाना चाहिये..
जवाब देंहटाएंhow to get Sarvapishti for Tumor
जवाब देंहटाएंkindly send the address of DS Research Centre --
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