सोमवार, 18 अप्रैल 2011

क्यों बेअसर हो रही हैं एंटीबायोटिक?

चिकित्सा क्षेत्र में जिन एंटीबॉयोटिक दवाओं ने कभी क्रांति का आगाज किया था, वहीं दवाएं अब सवालों के घेरे में आ गई हैं। इसका कारण है कि डॉक्टरों ने इन दवाओं का इतना ज्यादा इस्तेामाल किया कि बीमारी फैलाने वाले माइक्रोब्स ने एंटीबॉयोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधात्मक शक्ति हासिल कर ली। विवादों से हटकर देखा जाए तो एंटीबॉयोटिक दवाओं की खोज मनुष्य जाति के लिए वरदान साबित हुई। इन दवाओं ने संक्रामक रोगों का फैलाव रोकने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। 1940 से 1980 के बीच कुछ नई एंटीबॉयोटिक दवाओं की खोज ने नक्शा ही बदल डाला लेकिन इसके बाद कोई बड़ी खोज नहीं हो पाई। देखा जाए तो जीवाणुओं में ऐसी दवाओं के विरुद्ध प्रतिरोध उत्पन्न होना स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसीलिए इन दवाओं को लगातार उन्नत बनाते रहने की जरूरत होती है। लेकिन एंटीबॉयोटिक दवाओं के अनावश्यक इस्तेमाल और नई दवाओं की खोज का काम ठप पड़ जाने के चलते बैक्टीरिया के विरुद्ध लड़ाई में मनुष्य ने अपना मोर्चा खुद कमजोर कर लिया। यहीं से समस्या की शुरुआत होती है। जिस तरह मानव शरीर पर्यावरण के अनुकूल अपने को अभ्यस्त कर लेता है, उसी तरह हमारे उदय के समय से ही माइक्रोब्स और उनके विरुद्ध शरीर की प्राकृतिक प्रतिरोधात्मक ताकत का भी विकास होता रहा। लेकिन एंटीबॉयोटिक दवाओं के दुरुपयोग ने दोनों के बीच के प्राकृतिक संतुलन को नष्ट कर डाला और धीरे-धीरे बैक्टीरिया ने अपने को एंटीबॉयोटिक दवाओं से ताकतवर बना लिया, जिससे
दवाएं बेअसर होने लगीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश की राजधानी दिल्ली में 53 फीसदी लोग बिना डॉक्टरी परामर्श के एंटीबॉयोटिक दवाइयां ले रहे हैं। जबकि संगठन के निर्देशों में खांसी-जुकाम, सिरदर्द जैसे रोगों में एंटीबॉयोटिक दवाओं के सेवन की मनाही है। खुद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वीकार किया है कि भारत में 585 ऐसी दवाइयां खुलेआम बिक रही हैं जिन्हें केवल पंजीकृत डॉक्टरों की लिखी पर्ची पर ही बेचने की इजाजत है। दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधकता की भयावहता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत में हर साल एक लाख टीबी के ऐसे मरीज बढ़ रहे हैं जिन पर टीबी की साधारण दवाओं का असर नहीं हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि भारत में एंटीबॉयोटिक दवाओं के दुरुपयोग से बहुत बड़ी संख्या में लोगों को जान का खतरा पैदा हो गया है। इसके चलते प्रथम पंक्ति की दवाइयों ने असर करना बंद कर दिया है। इससे निपटने के लिए डॉक्टर जिन दूसरी और तीसरी पंक्ति की दवाइयां लिख रहे हैं वे ज्यादा खतरनाक होने के साथ-साथ महंगी भी हैं। फिर जिन लोगों पर ये दवाएं बेअसर होती हैं उनके संपर्क में आने वाले लोग भी उन विषाणुओं से ग्रसित हो जाते हैं। यही कारण है कि संक्रमण से होने वाली बीमारियों पर काबू पाना बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। ऐसे में सरकार को सख्ती बरतनी चाहिए ताकि मेडिकल स्टोर्स से बिना डॉक्टरों की संस्तुति के एंटीबॉयोटिक दवाइयां न बेची जा सकें। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एंटीबॉयोटिक दवाओं के व्यापक दुरुपयोग की चुनौती इतनी बड़ी है कि इसका हल निकालना सिर्फ स्वास्थ्य विभाग के वश की बात नहीं रह गई है। सभी की भागीदारी से ही इस दिशा में कोई प्रगति होगी। भारत में साफ-सफाई की बदतर हालत को देखते हुए एंटीबॉयोटिक दवाएं उम्मीद की डोर बंधाती हैं लेकिन जिस ढंग से दवाएं बेअसर हो रही हैं उससे हम धीरे-धीरे एंटीबॉयोटिक पूर्व युग की तरफ बढ़ रहे हैं। यदि ऐसा होता है तो लाइलाज संक्रामक रोगों के कारण होने वाली मौतें गरीबी उन्मूलन, विकास और स्वास्थ्य प्रयासों के रास्ते में रुकावट बन जाएंगी(रमेश दुबे,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,18.4.11)।

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