यूरोपीय यूनियन ने स्पष्ट किया है कि 30 अप्रैल 2011 के बाद भारत की आयुव्रेदिक दवाएं उनके क्षेत्र में नहीं बिक पाएंगी। इनके दुष्प्रभावों की बढ़ती शिकायतों के चलते एक मई के बाद यूरोपीय देशों में हर्बल दवाओं की बिक्री से पहले उनकी कड़ी जांच होगी। वे उनके वैज्ञानिक मानकों पर खरा उतरने के बाद ही बिक पाएंगी। माना जा रहा है कि आयुव्रेदिक दवाओं के नाम पर बाजार में जो बेचा जा रहा है, उसके कुप्रभाव अंग्रेजी दवाओं से अधिक घातक हैंं। पिछले दिनों अमेरिका के हार्वड मेडिकल स्कूल ने अमेरिका में बिक रही कोई 70 भारतीय आयुव्रेदिक दवाओं के अध्ययन में सीसा, पारा, संखिया आदि की मात्रा जानलेवा स्तर तक पायी। इनमें से अधिकांश दवाएं भारत की नामी-गिरामी कंपनियों की थीं। जाहिर है, देसी दवा उद्योग अंतरराष्ट्रीय बाजार में टिक नहीं पाएगा। जब आम लोग त्वरित रोग मुक्ति के लालच में सस्ती अंग्रेजी दवाओं की ओर दौड़ रहे थे, तो भारत के अभिजात्य वर्ग और पश्चिमी देशों ने इस चिकित्सा पद्धति के कुप्रभावों को ताड़ जड़ी-बूटियां (फैशन में हर्बल) अपना ली थीं। उधर विदेशी कंपनियों ने जब देखा कि भारत की अधिसंख्य आबादी उनकी ‘जहरीली’ दवाओं की आदी हो गई है तो उन्होंने धीरे-धीरे दाम बढ़ाने शुरू किए। जब आम लोगों को इस विदेशी कुचक्र की सुध लगी, तो काफी देर हो चुकी थी। हमारे ऋषि मुनियों की सालों-साल की तपस्या और परिश्रम से तैयार जड़ी-बूटियों से निर्मित दवाओं का व्यावसायीकरण हो चुका था। आज कोई सौ आयुव्रेदिक दवाओं में मानव शरीर के लिए घातक धातु पारद का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। अधिकांश आयुव्रेद दवाएं, जिनके नाम के साथ ‘रस’
शब्द जुड़ा होता है, में पारे की बहुत मात्रा होती है। बावजूद इसके इनके कुप्रभाव जांचने के कोई प्रयास नहीं किए गए हैं। सालों से पश्चिमी देश हमारे दवा बाजार को बंद करने की कोशिश में थे। प्रयोगशालाओं में ऐसी दवाओं के परीक्षण चूहों पर हुए तो उनकी आंतरिक कार्यपण्राली पर खतरनाक असर दिखा। दावा किया गया कि ये दवाएं चूहों की तरह मानव शरीर पर भी विपरीत प्रभावकारी हैं। भारत सरकार ने इन रिपोटरें को गंभीरता से नहीं लिया पर जब लगभग यही बात हार्वड मेडिकल स्कूल ने कही तो सरकार में बैठे लोगों को देश की छवि का ध्यान आया। कतिपय आयुव्रेदाचार्य दावा करते हैं कि उनकी दवाइयों में प्रयुक्त पारा परिष्कृत होता है, जिससे उसका नुकसानदायक तत्व समाप्त हो जाता है लेकिन परीक्षणों से यह दावा गलत सिद्ध बताया गया है। ‘कजली’ अधिकांश आयुव्रेदिक दवाओं का आधाभूत हिस्सा है। कोई 200 दवाएं होंगी, जिनमें ‘कजली’ प्रमुख घटक है । शोध के दौरान जिन चूहों को ‘कजली’ दी गई उनके शरीर में कई परिवर्तन दिखे। इसमें मौजूद पारद के कारण चूहों की भूख, रक्त, सक्रियता और वजन घट गया। पाया गया कि यह धातु शरीर की कोशिकाओं द्वारा आसानी से अवशोषित हो रही है। ‘कजली’
न देने के कुछ दिनों बाद पाया गया कि उनके गुर्दे और यकृत की कार्य पण्राली ना सुधरने की हद तक बिगड़ चुकी थी। कजली में 49 प्रतिशत पारद और 40 फीसद गंधक होता है। सनद रहे कजली आमतौर पर प्रतिदिन 1000 मिग्राकी मात्रा में दी जाती है। आयुव्रेदिक दवाओं में समस्या केवल पारद की मौजूदगी ही नहीं है। कुछ समय पूर्व मुंबई के भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर (बीएआरसी) ने कुछ आयुर्वेद दवाओं के नमूनों में सीसे की मात्रा खतरनाक स्तर पर पाई थी। बीएआरसी के वैज्ञानिकों ने ऐसे चार मरीजों का गहन परीक्षण किया जो आर्थराइटिस या मधुमेह के कारण आयुव्रेद दवाएं खा रहे थे। इनमें सीसे की मात्रा लगभग आठ मिलीग्राम थी, जो रोजाना खाने या हवा के जरिए शरीर में पहुंच रहे सीसे की मात्रा से 80 गुना अधिक है। बीएआरसी की टीम ने अन्य विषैली धातु केडमियम को भी ऐसी दवाओं में पाया। चार साल पहले नेशनल इंस्टीटय़ूट ऑफ ओक्यूपेशनल हेल्थ, अहमदाबाद ने भी कुछ पारंपरिक दवाओं के नमूनों में सीसे की मात्रा पाई थी। इसके शोधकर्ताओं ने एक दवा में 27,500 पीपीएम और दूसरी में 9700 पीपीएम सीसे की मात्रा मापी थी । एक स्थापित बहुराष्ट्रीय कंपनी का उत्पाद ‘इसेन्सल’
लीवर की बीमारियों की दवा के नाम पर बेचा जाता है। स्वतंत्र संस्था ‘फाउंडेशन आफ हेल्थ एक्शन’ (एफएचए) के मुताबिक इसमें ऐसी कोई क्षमता नहीं हैं। तभी दो राज्य महाराष्ट्र और गुजरात के खाद्य और औषधि नियंत्रक महकमे इसका लाइसेंस निरस्त कर चुके हैं। ‘एफएचए’
बताता है कि बहुप्रचारित ‘थर्टीप्लस’ भी हानिकारक दवा है। ‘कपूर्रआसव’ में मौजूद अल्कोहल की अधिक मात्रा के कारण शराबी भी इसका सेवन खुल कर करते हैं। आयुव्रेद की शाश्वत मान्यता आज भी पूर्णरूपेण खरी उतर सकती है, बशत्रे सुरक्षित और प्रभावी दवाओं के उत्पादन और पारंपरिक जड़ी-बूटियों के सही उपयोग की पद्धति बरकरार रहे। यूरोपीय देशों की प्रयोगशालाओं में परीक्षण की गई दवाएं कारखानों में बनी थीं। उनकी विपरीत रिपोर्ट से भारत के पारंपरिक ज्ञान पर सवालिया निशान खड़े हुए हैं। सरकार को आयुव्रेदिक दवाओं के उत्पादन के कड़े मानक बनाने चाहिए। हमारे वैद्यगण कारखानों में बनी दवाओं का मोह त्याग दें तो आयुव्रेद की पारंपरिक प्रतिष्ठा बरकरार रखी जा सकती है(पंकज चतुर्वेदी,राष्ट्रीय सहारा,1.3.11)।
bahut upyogi jankari .ayurvedic dawa ko bina soche use kartey hai humlog par ab sochna padega thank u vey much.
जवाब देंहटाएंआँख खोलने वाली जानकारी!!
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है समस्या आयुर्वेद के ज्ञान में नहीं अपितु ज्यादा लाभ कमाने के चक्कर में मिलावट के कारण कारखानों के कारण है....
जवाब देंहटाएंअच्छा विचारणीय आलेख..
जवाब देंहटाएं