शुक्रवार, 25 मार्च 2011

गर्भ-संस्कारःएक स्वप्न,एक वरदान

गर्भ संस्कार यानी आधुनिक विज्ञान व परंपरागत संस्कृति, इन दोनों का समायोजन। गर्भस्थ शिशु की शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक परिस्थिति का मार्गदर्शन व गर्भस्थ शिशु संस्कार को ही गर्भसंस्कार कहते हैं। इसका नामकरण, वेद, आयुर्वेद व धर्म ग्रंथों में मिलता है।

आज के आपाधापी के युग में माता-पिता पर करियर व स्पर्धा के वातावरण के कारण अपने परिवार व बच्चे पर ध्यान देने का समय नहीं होता है। वे अपने बुजुर्गों द्वारा दिए गए संस्कार व शिक्षा का पालन नहीं कर पाते हैं। आज की पीढ़ी में हमें उद्दंड, विकृत मानसिकता वाले नीतिभ्रष्ट बच्चे दिखाई दे रहे हैं। आतंकवाद, जिद्दी मनोवृत्ति, डिप्रेशन, मानसिक दुर्बलता, ये कई समस्याएँ बड़े रूप में विश्व में दिखाई दे रही हैं। इन सभी परिस्थितियों से लड़ने के लिए हमें गर्भसंस्कार को बड़े रूप में लोगों के सामने प्रस्तुत करना है। यह सिर्फ माता-पिता के लिए उपयोगी न होकर राष्ट्र व पूर्ण संसार की समस्याओं का निराकरण करने में उपयोगी सिद्ध होता है। जैसे हम बाजार से कोई भी चीज खरीदते हैं तो उत्कृष्ट चीज घर में लेकर आते हैं। अतः बच्चे को जन्म देकर घर लाना हो तो वह भी उत्कृष्ट व सुसंस्कारित हो, ऐसा हमारा संकल्प होना चाहिए।

गर्भ संस्कार क्या है?
माता-पिता का उत्कृष्ट बीज व दृढ़ संकल्प ही उत्कृष्ट संतति का कारण होता है। माता-पिता के छोटे से बीज के संयोग से गर्भधारण व गर्भ का अणुरूप बीज मानव शरीर में रूपांतरित होता है। इस वक्त सिर्फ शारीरिक ही नहीं, आत्मा व मन का परिणाम बीज रूप पर होता है। चैतन्य शक्ति का छोटा-सा आविष्कार ही गर्भ है। माता-पिता का एक-एक क्षण व बच्चे का एक-एक कण एक-दूसरे से जुड़ा है। माता-पिता का खाना-पीना, विचारधारा, मानसिक परिस्थिति इन सभी का बहुत गहरा परिणाम गर्भस्थ शिशु पर होता है।

गर्भस्थ शिशु को संस्कारित व शिक्षित करने का प्रमाण हमें धर्म ग्रंथों में मिलता ही है। कई वैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं व उन्होंने इसे सिद्ध किया है। हमारे धर्म ग्रंथों में प्रचलित सभी मंत्रों में यही कंपन रहता है- ऊँ, श्रीं,क्लीं, ह्रीम इत्यादि। गर्भस्थ शिशु को इन बीज मंत्रों को सिखाने की प्रथा हमारे धर्मग्रंथों में है। चौथे महीने में गर्भस्थ शिशु के कर्णेंद्रिय का विकास हो जाता है और अगले महीनों में उसकी बुद्धि व मस्तिष्क का विकास होने लगता है। अतः,माता-पिता की हर गतिविधि,बौद्धिक विचारधारा का श्रवण कर गर्भस्थ शिशु अपने आप को प्रशिक्षित करता है। चैतन्य शक्ति का छोटा सा आविष्कार यानी,गर्भस्थ शिशु अपनी माता को गर्भस्थ चैतन्य शक्ति की 9 महीने पूजा करना है। एक दिव्य आनंदमय वातावरण का अपने आसपास विचरण करना है। हृदय प्रेम से लबालब भरा रखना है जिससे गर्भस्थ शिशु भी प्रेम से अभिसिप्त हो जाए और उसके हृदय में प्रेम का सागर उमड़ पड़े। आम का पौधा लगाने पर आम का पौधा ही बनेगा। उत्कृष्ट देखभाल,खाद-पानी देने पर उत्कृष्ट किस्म का फल उत्पन्न करना हमारे वश में है। तेजस्वी संतान की कामना करने वाले दंपति को गर्भ संस्कार व धर्मग्रंथों की विधियों का पालन ही उनके मन के संकल्प को पूर्ण कर सकता है।

गर्भ संस्कार की विधि
गर्भधारण के पूर्व ही,गर्भ संस्कार की शुरूआत हो जाती है। गर्भिणी की दैनंदिन दिनचर्या,मासानुसार आहार,प्राणायाम,ध्यान,गर्भस्थ शिशु की देखभाल आदि का वर्णन गर्भ संस्कार में किया गया है। गर्भिणी माता को प्रथम तीन महीने में बच्चे का शरीर सुडौल व निरोगी हो,इसके लिए प्रयत्न करना चाहिए। तीसरे से छठे महीने में बच्चे की उत्कृष्ट मानसिकता के लिए प्रयत्न करना चाहिए। छठे से नौंवे महीने में उत्कृष्ट बुद्धिमत्ता के लिए प्रयत्न करना चाहिए।


ऐसे मिलेगी स्वस्थ संतान...
-आहार विशेषज्ञ की सलाह से अपनी खानपान की आदतों में सुधार लाएं। विभिन्न तरह के स्वास्थ्यप्रद आहार लें।
-गर्भवती होने से पहले अपने चिकित्सक की सलाह लें। हमेशा खुश रहने की कोशिश करें।
-विचारों में शुद्धता रखें।
-टीवी अथवा फिल्मों में ऐसे दृश्य देखने से परहेज करें, जो हिंसा और जुगुत्सा को बढ़ावा देते हों।
-मद्यपान अथवा धूम्रपान करने वालों की संगत में न बैठें। किटी पार्टी आदि में ताश का जुआ अथवा तंबोला आदि से बचने की कोशिश करें। 
-धार्मिक जीवन चरित्रों को पढ़ें। 
-अपने मन में किसी भी प्रकार का टेंशन या मानसिक दुर्बलता को जगह न बनाने दें। गर्भवती होने से पहले अपने चिकित्सक की सलाह लें। हमेशा खुश रहने की कोशिश करें।
-तेजस्वी संतान प्राप्ति के लिए जरूरी है कि आप मनसा वाचा कर्मणा शुद्ध व्यवहार पर ध्यान दें। भावी संतान के रखरखाव संबंधी जानकारियाँ एकत्रित करें। 
-अब तक न खाए हों, ऐसे फल-सब्जी खाएँ। 
-मांसाहार त्याग दें। बासी आहार न लें। आहार विशेषज्ञ की सलाह से अपनी खानपान की आदतों में सुधार लाएँ। विभिन्न तरह के स्वास्थयप्रद आहार लेने लगें।
(डॉ. कल्पना लखोटिया,सेहत,नई दुनिया,मार्च तृतीयांक 2011)

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