गुरुवार, 31 मार्च 2011

बच्चों को बीमार कर रहे हैं विज्ञापन

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनियां में कुल चार करोड़ 30 लाख प्री स्कूली बच्चे मोटापे का शिकार है और उनमें से तकरीबन तीन करोड़ 50 लाख बच्चे भारत जैसे विकासशील देशों में हैं। आखिर क्या कारण है कि भुखमरी और कुपोषण के शिकार बच्चे भी विकासशील देशों में ज्यादा हैं और मोटापे का शिकार भी यहीं के बच्चे अधिक हैं। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि विकासशील देशों में आधुनिकता के मायने बदल रहे हैं। आजकल जो टीवी पर विज्ञापन दिखाया जाता है उसी को आधुनिकता का पर्याय मान लिया जाता है और उसका अनुसरण हम अपने जीवन में करना शुरु कर देते हैं। इसका सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चों की मानसिकता पर पड़ रहा है, क्योंकि खाने-पीने की चीजों का उत्पादन करने वाली कंपनियां ऐसे आकर्षक विज्ञापन देती हैं कि बच्चे और माता-पिता उनसे प्रभावित हुए बिना रह ही नहीं पाते। चॉकलेट से लेकर तमाम खाने की चीजें बच्चों के दिलो-दिमाग पर कुछ इस तरह छा जाती हैं कि वे घरेलू चीजों की जगह इन्हें ज्यादा तव्वजो देना शुरू कर देते हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक दुनियां के 54 फीसदी घरेलू खाद्य पदार्थो की बजाय विज्ञापन में दिखाए जाने वाली चीजों को पसंद किया जाता है। इन विज्ञापन वाले खाद्य पदार्थो की गुणवत्ता को देखें तो ये बड़े पैमाने पर बच्चों के स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक होते हैं और यह बच्चों के साथ खिलवाड़ करते है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो यहां तक सलाह दी है कि अभिभावकों को चाहिए कि वह अपने बच्चों को ऐसी विज्ञापनों और अपीलों से दूर ही रखें, ताकि जानकारी के अभाव बच्चे इन गलत चीजों की जिद ही न करें। ज्यादातर कंपनियों का एकमात्र उद्देश्य मुनाफा कमाना होता है न कि बच्चों के स्वास्थ्य का ध्यान रखना। खाद्य पदार्थों को बेचने के लिए बाजार की नीति ही यही होती है कि उसकी पहुंच हर वर्ग और उम्र के तबके तक बने। यही कारण है कि ये एक ही उत्पाद की कीमत अलग-अलग रखते हैं। जाहिर है कि जिसकी कीमत कम होगी उसकी गुणवता के स्तर में भी गिरावट आएगी और जो जितनी कम कीमत देगा वह उतना ही ज्यादा नुकसान उठाएगा। गरीब महंगी चॉकलेट नहीं खरीद पाते तो उनके बच्चों का स्वास्थ्य सस्ती चॉकलेटों से ज्यादा खराब होता है। इन पर दोहरी मार पड़ती है एक तरफ तो पर्याप्त भोजन न मिलने के कारण वह कुपोषण का शिकार होते हैं तो दूसरी ओर बाजार में उन्हें निम्न स्तरीय खाद्य पदार्थो से खुद को संतुष्ट रखना पड़ता है। असल में बाजार द्वारा बच्चों को निशाना बनाने के पीछे एक तर्क यह भी है कि उन्हें लंबे समय तक उपभोक्ता मिल जाता है और कंपनियां अपना भविष्य बनाने के लिए बच्चों का भविष्य दांव पर लगा देती हैं। आज तक हमारे समाज में खाने-पीने के रूप में प्रयोग की जाने वाली चीजों पर धीरे-धीरे बाजार का हमला खतरनाक मोड़ साबित हो सकता है। अंग्रेजों ने जब भारतीय हस्तशिल्प को खत्म करने की चाल रची तो इसी तरह विदेशी वस्तुओं का आकर्षक प्रचार-प्रसार किया गया था। अब कंपनियां घरेलू खाद्य पदार्थो के प्रति बच्चों मे हीन भावनाएं भर रही हैं। विज्ञापन वाले उत्पादों के प्रयोग को आधुनिकता की श्रेणी में देखा जाता है, जबकि भारतीय परिवेश में पैदा हुए और पले-बढ़े बच्चे के लिए दूसरे की भौगोलिक स्थिति के मुताबिक विदेशी खाद्य पदार्थ किस तरह स्वास्थ्यव‌र्द्धक हो सकते हैं। यह बात अभिभावकों को समझनी चाहिए, क्योंकि बच्चे तो अबोध होते हैं और उनके स्वास्थ्य की जिम्मेदारी का सबसे बड़ा दायित्व भी अभिभावकों का होता है। अगर अभिभावक सतर्क नहीं रहेंगे तो यह कंपनियां इसी तरह से बच्चों को मानसिक रूप से पंगु बनाती रहेंगी और उन्हें नकली व नुकसानदायक चीजों के प्रति पे्ररित करती रहेंगी। इस तरह तो बच्चे घर का कोई भी खाना पसंद नहीं करेंगे और जब घर का खाने से रिश्ता ही नहीं रहेगा तो काहे का घर। ऐसी स्थिति सामाजिक रूप से भी बहुत गंभीर हो सकती है, क्योंकि दुनियां में चल रहे विभिन्न अध्ययनों से साफ हो गया है कि ज्यादातर कंपनियों के खाद्य पदार्थ बच्चों के स्वास्थ्य के प्रतिकूल होते हैं। इस बात की ओर बार-बार विश्व स्वास्थ्य संगठन संकेत कर चुका है। अगर व्यावहारिक स्तर पर देखा जाए तो ये खाद्य उत्पाद भारतीय जलवायु के मुताबिक हमारे शारीरिक स्थिति व जरूरतों के माकूल कतई भी नहीं है। हमारे स्थानीय खाद्य उत्पाद ज्यादा टिकाऊ, सुविधाजनक और स्वास्थ्य के अनुकल होते हैं। हम उन्हें अपनी जरूरतों के हिसाब से और भी बेहतर बना सकते हैं। अगर मानसिकता ही विज्ञापन वाले खाद्य पदार्थो पर निर्भर हो गई तो इसका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। इससे एक और बड़ा नुकसान स्थानीय खाद्य विधियां और तौर-तरीकों के खतरे में पड़ने का भी है। वर्तमान सामाजिक परिवेश में हो रहे बदलाव के मद्देनजर बच्चों के स्वास्थ्य पर गंभीरता से चिंतन करने की जरूरत है वरना विज्ञापन संस्कृति स्वास्थ्य के साथ हमारे लोकजीवन को भी लील लेगी। बाजार के खाद्य पदार्थो से होने वाली बीमारियों में मोटापा तो एक उदाहरण है। इससे पाचन खराब होने और भूख न लगने जैसी और भी बीमारियां देखने को मिल रही हैं। परिवार से लेकर स्कूल तक ऐसा माहौल बन रहा है कि स्वास्थ्य जैसा जीवन का महत्वपूर्ण पहलू आज उपेक्षा के खतरे में है। बहुत से बच्चे तो स्कूल में घर का खाना ले जाना ही पसंद नहीं करते, क्योंकि वह इसे हीन समझते हैं। जो बच्चे स्कूल में नहीं जाते वह भी इनकी देखादेखी करते हुए बाजार के उत्पादों को ही अहमियत देते हैं। यह सवाल केवल खाद्य पदार्थो तक ही सीमित नहीं है। टीवी विज्ञापनों ने तो बच्चों के मानसिक स्तर को बहुत प्रभावित किया है। टीवी पर मार काट के विज्ञापन देखकर बच्चों में धीरे-धीरे हिंसा की प्रवृत्ति घर करने लगती है। क्या समाज को टीवी देखना बंद कर देना चाहिए या फिर बच्चों के लिए सकारात्मक कार्यक्रम बनने चाहिए। जाहिर है कि दूसरा विकल्प ज्यादा मजबूत है, क्योंकि तकनीक के इस दौर में बच्चों को इससे दूर करना अपने आप बच्चों में हीन भावना का पोषण करेगा। बच्चों से संबंधित कार्यक्रम ऐसे होने चाहिए कि उनसे सकारात्मक विकास में योगदान मिले। विकासशील देशों के लिए तो और भी महत्वपूर्ण है कि वे अपने भौगोलिक और सामाजिक परिवेश के आधार पर बच्चों के स्वास्थ्य और उनके भविष्य का निर्धारण करें। जिन विज्ञापन वाले खाद्य पदार्थो का बच्चे उपभोग करते हैं या उनकी तरफ आकर्षित होते हैं उनकी गुणवता की जांच जरूरी है। इन नकली वस्तुओं से कम कीमत पर उनसे ज्यादा पौष्टिक तत्व वाले खाद्य पदार्थ स्थानीय जीवन में पहले से ही प्रयोग में आ रहे हैं। सवाल चुनाव का है कि आधुनिकता के दिखावे के नाम पर बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ हो या फिर सादगीपूर्ण स्थानीय उत्पादों से उनका शारीरिक-मानसिक विकास। इस चुनाव में बच्चों को सही दिशा देने की जिम्मेदारी परिवार की है और सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इन विज्ञापन वाले पदार्थो की जांच कराए और गुणवत्ता सुनिश्चित करे(संदीप कुमार मील,दैनिक जागरण,31.3.11)।

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