आँखें अनमोल होती हैं यह जानते हुए भी कई लोग इनसे खिलवाड़ कर बैठते हैं। काजल और सुरमा जैसे प्राचीन नुस्खों को अब भी आजमाने का जोखिम उठाया जाता है। अधिकतर लोग नजर का चश्मा प्रशिक्षित ऑप्टोमेट्रिस्ट की बजाए सड़क किनारे बैठे किसी अनाड़ी से या पुश्तैनी चश्मा बनाने वाले की दुकान से क्यों बनवा लेते हैं? क्या वे ऐसा जान-बूझकर करते हैं? शायद नहीं, क्योंकि हमारे देश में पर्याप्त संख्या में न तो नेत्ररोग विशेषज्ञ हैं और न ही ऑप्टिशियन। आर्थिक स्थिति भी इतनी अच्छी नहीं होती कि किसी शोरूम में पैर रख सकें इसीलिए वे इस तरह के वैकल्पिक उपाय आजमाने के लिए विवश हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हमारे देश की सवा अरब की आबादी में प्रति २० हजार पर एक नेत्ररोग विशेषज्ञ होना चाहिए लेकिन मौजूदा स्थिति बिलकुल उलट है। फिलहाल ८० हजार से १ लाख की आबादी पर एक नेत्ररोग विशेषज्ञ है। इसी तरह प्रशिक्षित तकनीशियनों की भी बेहद कमी है। यहाँ प्रशिक्षित ऑप्थोल्मिक असिस्टेंट्स की संख्या कुल जमा ४ हजार ही है जबकि एक विशेषज्ञ के साथ ५ प्रशिक्षित तकनीशियन होना चाहिए।
कई ग्रामीण इलाकों में तो एक नेत्ररोग विशेषज्ञ की सहायता करने के लिए एक भी प्रशिक्षित असिस्टेंट नहीं है। प्रशिक्षित तकनीशियनों की टीम ऑपरेशन थिएटर में नेत्ररोग विशेषज्ञ के काम को बहुत हल्का एवं आसान कर सकती है ताकि वह अन्य मरीजों की चिकित्सा पर भी ध्यान दे सके। एक कुशल नेत्ररोग विशेषज्ञ हर हफ्ते मोतियाबिंद की अधिकतम २०० से २५० सर्जरी कर सकता है। विश्व स्वास्थ संगठन ने विजन-२०२० में नेत्र रोगों को जड़ से समाप्त करने का लक्ष्य तय किया है लेकिन हमारे देश में इसे पाना असंभव ही लगता है।
सरकार राष्ट्रीय अंधत्व निवारण कार्यक्रम के तहत मरीजों को मुफ्त कृत्रिम लैंस मुहैया कराती है, लेकिन वहाँ बहुत कम मरीज जाना चाहते हैं, क्योंकि सरकारी अस्पतालों से उनका विश्वास उठ चुका है। ऐसे मरीजों की संख्या कम नहीं है, जो सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं के अभाव में नहीं जाना चाहते, लेकिन निजी नेत्रालयों में धन की कमी के कारण नहीं पहुँच पाते हैं। जहाँ लोगों के पास नजर का चश्मा बनवाने तक के लिए पैसे न हों उनकी देखभाल के लिए विशेष अभियान चलाने की जरूरत है। एक अनुमान के मुताबिक फिलहाल डेढ़ करोड़ लोग मोतियाबिंद अथवा चश्मा नहीं होने के कारण अंधत्व का शाप झेल रहे हैं। यदि आने वाले वर्षों में अंधत्व के निवारण के लिए आवश्यक क़दम नहीं उठाए गए तो अगले 20 वर्षों में यह संख्या दोगुनी हो जाएगी। नेत्ररोग विशेषज्ञों को मोतियाबिंद की सर्जरी से ही फुरसत मिले तो वे ग्लूकोमा,कॉर्निया की बीमारियों,उम्र बढ़ने के साथ नेत्रों में आने वाली खराबियों को ठीक करने की स्थिति में होंगे। तब तक आबादी का एक बड़ा हिस्सा वैकल्पिक चिकित्सा की राह पर जाने के लिए विवश है। इसमें चश्मा उतारने वाले सुरमे और काजल बेचने वालों से लेकर शर्तिया नज़र लौटाने वाले नीम-हक़ीम भी शामिल हैं। हमारे देश को विश्व में मधुमेह की राजधानी कहा जाता है। जहां मधुमेह के कारण करोड़ों लोगों की नज़र हर पल ख़राब हो रही है,वहां ग्लूकोमा या अन्य बीमारियों पर क्या कोई ध्यान दे पाएगा?(संपादकीय,सेहत,नई दुनिया,मार्च द्वितीयांक,2011)
उत्तम जानकारी...
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