बुधवार, 16 मार्च 2011

चिकित्सा और संवेदनहीनता

पिछले दिनों राजस्थान के सरकारी अस्पतालों में प्रसवोपरांत संक्रमित ग्लूकोज चढ़ाने से हुई 16 महिलाओं की मौत ने एक बार फिर सरकारी तंत्र की पोल खोल दी है। दो सरकारी अस्पतालों के असंवदेनशील रवैये ने दर्जनों परिवारों की खुशियों को छीन लिया है। राज्य सरकार ने भी एक लाख का मुआवजा देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली है। सरकारी तंत्र की लापरवाही का यह पहला और शायद आाखिरी मामला नहीं है। सरकारी अस्पतालों में लापरवाही के ऐसे जानलेवा मामले सामने आते ही रहते हैं। कुछ महीनों पहले ही उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊमें ही जापानी इंसेफेलाइटिस का संक्रमित टीका लगाने से तीन बच्चों की मौत हो गई थी। इसी तरह मध्य प्रदेश में खसरे का काफी पुराना टीका लगाने से चार बच्चों की मौत हुई थी। इन मामलों में भी हमेशा की तरह लीपापोती हुई और अस्पताल प्रबंधन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। हमेशा की तरह जांच के नाम पर मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। जोधपुर मामले की बात करें तो यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है किमां के बिना इन मासूमों का लालन-पोषण कैसे होगा। संक्रमित ग्लूकोज चढ़ाने से मरीजों को गंभीर हालत में उनके तीमारदारों ने निजी अस्पतालों में भर्ती कराया, जिसमें लाखों रुपये फूंके गए। माना कि मां की मौत से परिवार का आर्थिक सहारा नहीं छिना, लेकिन इस अपूरणीय क्षति के लिए एक लाख रुपये दिया जाना गरीबों के साथ मजाक नहीं तो और क्या है। इन्हीं भुक्तभोगी परिवारों में से एक आरिफ भी था। उम्मेद अस्पताल में भर्ती उसकी पत्नी की हालत एक शिशु को जन्म देने के बाद बिगड़ती चली गई। आनन-फानन में उसे निजी नर्सिग होम में भरती कराया गया। जहां उसे बीस बोतल से ज्यादा खून चढ़ाया गया। जांच और फीस में आरिफ ने लाखों रुपये फूंक दिए, लेकिन रुखसाना की जान नहीं बचाई जा सकी। पत्नी की मौत ने पेशे से मजदूर आरिफ को मानसिक रूप से तो तोड़ा ही, लाखों रुपये गंवाने से उसकी सारी जमा पूंजी भी स्वाहा हो गई।
अब सवाल यह उठता है कि अगर रुखसाना की हालत बिगड़ी तो उसका अच्छे अस्पताल में इलाज कराना सरकार की जिम्मेदारी नहीं थी। क्या इन पीडि़तों का कसूर सिर्फ इतना है कि वे गरीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं। कम से कम दस लाख रुपये मुआवजा देने की बात गहलोत सरकार ने क्यों नहीं कबूल की। केंद्र सरकार ने भी इन पीडि़तों की सुध नहीं ली। इस मामले में राज्य सरकार ने सारा ठीकरा संक्रमित ग्लूकोज उपलब्ध कराने वाली कंपनी पर मढ़ने में देर नहीं लगाई, जबकि इन अस्पतालों के ऑपरेशन थिएटर में संक्रमण की बात भी सामने आई थी। एक बात और गौर करने वाली है कि ग्लूकोज संक्रमित था तो अस्पताल प्रबंधन को यह पता क्यों नहीं चल सका। अस्पताल में आई दवाओं और अन्य सामानों की गुणवत्ता की जांच करने की जिम्मेदारी आखिर उसी की तो है। इस मामले में वही लीपापोती होनी है, जो सरकारी तंत्र में किसी भी खामी के सामने आने पर होती है। अजीब विडंबना है कि जिन सरकारी डॉक्टरों पर लापरवाही का आरोप है, उन्हीं के सहयोगियों के हाथों में जांच का जिम्मा सौंप दिया गया है। आखिर हम भोली-भाली जनता को कब तक बरगलाते रहेंगे। इस मामले में मानवाधिकार आयोग और महिला कल्याण से जुड़े मंत्रालयों की चुप्पी भी हैरान करती है। किसी ने भी मरीजों को उपचार और पीडि़त परिवारों को मुआवजा दिलाने की कोशिश नहीं की।
अगर यही हादसा मुंबई या दिल्ली के किसी अस्पताल में पेश आया होता तो कितनी हायतौबा मचती, इसका आप अंदाजा लगा सकते हैं। नेतागण से लेकर नौकरशाह तक सबके सब न्याय के मसीहा बनने में देर नहीं लगाते। इंडिया और भारत के बीच यह फर्क कब मिटेगा। पीडि़त परिवार इस मामले के दोषियों के खिलाफ कार्रवाई और पर्याप्त मुआवजे के लिए लड़ने की हैसियत नहीं रखते हैं, लेकिन कम से कम राज्य सरकार तो इस मामले में अपनी संवेदनशीलता दिखाती। आखिर 17 मौतों के लिए जिम्मेदार संबंधित अस्पतालों के डॉक्टरों और प्रशासनिक अधिकारियों पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई। आजादी के साठ साल बीत गए, लेकिन सरकारी अस्पतालों की स्थिति में बहुत ज्यादा सुधार नहीं है। यह शर्मनाक है कि जिला अस्पताल में सभी प्रकार की गंभीर बीमारियों का इलाज उपलब्ध नहीं है। कैंसर और हृदय रोगों की तो छोडि़ए, सामान्य बीमारियों के बेहतर इलाज के लिए भी मरीजों को सैकड़ों मील दूर जाना पड़ता है।
यह विडंबना ही है कि हमारी सरकारें हर जिले में अच्छी सुविधाओं वाला एक अस्पताल तक मुहैया नहीं करा पाई। जिला अस्पतालों में अत्याधुनिक मशीनें नहीं हैं। जहां एक्सरे, अल्ट्रासाउंड, सीटी स्कैन जैसी सुविधाएं हैं भी तो वहां अक्सर मरीजों को यही जवाब मिलता है कि मशीन खराब है या अच्छी क्वालिटी की नहीं है। स्वास्थ्य क्षेत्र में भारी-भरकम बजट उन डॉक्टरों के वेतन पर खर्च हो रहा है, जो शहरों में बने अपने आलीशान मकानों में ही आराम फरमाते हैं, जबकि उन्हें अस्पताल में ही आवासीय परिसर मुहैया कराया गया है, जिससे वे 24 घंटे उपलब्ध हो सकें। भारी-भरकम वेतन पाने वाले सरकारी डॉक्टर बेखौफ तरीके से निजी अस्पतालों के लिए भी काम कर रहे हैं। सरकारी नौकरी के साथ-साथ निजी प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों पर लगाम कसने की सरकारी कवायद हर जगह टांय-टांय फिस्स हो जाती है। सरकारी डॉक्टरों की अकर्मण्यता मरीजों की जान पर भारी पड़ रही है। आये दिन होने वाली हड़तालों ने मरीजों का जीना मुहाल कर रखा है। गरीब मरीजों के लिए सरकारी अस्पताल ही एकमात्र सहारा हैं, लेकिन डॉक्टरों की असंवेदनशीलता से उन्हें उचित इलाज नहीं मिल पा रहा है। विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी तो है ही, जो मौजूद हैं वे भी दूर-दराज के इलाकों में जाने को तैयार नहीं है। सरकारी अस्पतालों में चल रही इस मनमानी पर लगाम लगाने की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है।
स्वास्थ्य मद पर होने वाले खर्च का एक बड़ा हिस्सा डॉक्टरों और स्टॉफ के वेतन पर खर्च होने के बावजूद गुणवत्ता पूर्ण इलाज नहीं मिल रहा है। कॉन्ट्रैक्ट पर डॉक्टरों और स्टॉफ की भर्ती भी एक बेहतर कदम है। इससे सरकारी डॉक्टरों की मनमानी तो रुकेगी ही, मरीजों को बेहतर इलाज भी मिलेगा। बदकिस्मती से सरकार अंधाधुंध संसाधन तो झोंक रही है, लेकिन लोगों को सुलभ और सस्ते इलाज की उपलब्धता की स्थिति दयनीय है। जरूरत है कि गरीबों को सस्ता, सुलभ और गुणवत्तापूर्ण इलाज उपलब्ध कराने के लिए सरकार को निजी क्षेत्र से हाथ मिलाना चाहिए। लापरवाह और असंवेदनशील कर्मचारियों की भारी-भरकम फौज खड़ी करने की बजाए गरीबों को राशन कार्ड की तरह हेल्थ कार्ड भी मुहैया कराया जा सकता है। सरकार ऐसे अस्पतालों को मदद देकर दोहरे फायदे में रहेगी। एक तो गरीबों को बेहतर इलाज मिलेगा, दूसरी ओर वेतन और अन्य संसाधनों पर भारी-भरकम रकम भी खर्च नहीं करनी पड़ेगी। साथ ही निजी अस्पतालों को भी जवाबदेह बनाया जा सकेगा। शिक्षा क्षेत्र में आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रों के लिए निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटें आरक्षित करने का फैसला लेकर सरकार ने सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी में निजी क्षेत्र को शामिल किया है। ऐसा ही प्रयोग स्वास्थ्य क्षेत्र में भी किया जा सकता है।
सरकार को यह बात समझनी होगी कि भारी मात्रा में संसाधन झोंककर वह अपने बलबूते सब कुछ नहीं कर सकती। गैर सरकारी संगठनों और निजी संस्थानों की मदद से जवाबदेही और गुणवत्ता दोनों ही सुनिश्चित की जा सकती है। प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल स्वास्थ्य क्षेत्र में भी अपनाना बेहतर होगा। यूआइडी कार्ड स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने का माध्यम बन सकता है। निजी क्षेत्रों पर सामाजिक सुरक्षा की जिम्मेदारी डाली जानी चाहिए। केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर डॉक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए एक दीर्घकालिक नीति बनानी चाहिए। अफसोस की बात है कि देश में विशेषज्ञ डॉक्टरों की भारी कमी है। देश में आने वाले दस-पंद्रह सालों में कितने डॉक्टरों की जरूरत है और हर साल कितने लोग डॉक्टरी की पढ़ाई कर इस पेशे में आते हैं, इस बारे में एक राष्ट्रीय सर्वे कराए जाने की जरूरत है। गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए मरीजों को महानगरों की ओर भागना न पड़े, इस बारे में नीति निर्माण की आवश्यकता है। शहरों में भी स्थिति अच्छी नहीं है। विलासितापूर्ण जीवनशैली से भारत हृदयरोग, डायबिटीज जैसी बीमारियों का घर बन गया है। मगर केंद्र सरकार के पास इस बारे में कोई दूरदर्शी नीति नहीं है(अमरीश कुमार त्रिवेदी,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,16.3.11)।

4 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसी लापरवाही और संवेदनहीनता चिकित्सा के क्षेत्र में शर्मनाक है !

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  2. इस तरह की लापरवाही के लिए प्रशासन ही जिम्मेदार होना चाहिए ।
    इस प्रोफेशन में असावधानी के लिए कहाँ जगह है ।

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  3. विचारणीय लेख...
    आम आदमी की जिन्दगी से इस तरह खिलवाड़ जब 'दूसरे भगवान' कहे जाने वाले करेंगे तो क्या होगा इंसानियत का ?

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