पुरुष प्रधान समाज में पुरुष अपने आपको सर्वोच्च मानता है। उसका यही अहम् उसके रोग को बढ़ाता है जो दबा कर रखने से लाइलाज हो जाता है। महिलाओं का समाज में द्वितीय स्थान प्राप्त होने से उनके रोगों को बढ़ा-चढ़ाकर शीघ्र ही पुरुष सर्वादित करते हैं। पुरुषों को जन्म से मृत्यु तक अनेक रोगों का प्रतिकार करना होता है।
पुरुषों में जन्म से ही अनेक रोग उनके संपूर्ण जीवन में देखे जाते हैं। जन्म होते ही "प्राइमरी कॉम्पलेस" से शुरू होकर हृदय रोग, मधुमेह घुटनों के दर्द, शीघ्रपतन, प्रोस्टेटका बढ़ना, मूत्ररोग और अंत में कैंसर जैसे रोगों की संभावना बनी रहती है। मनुष्य का रोगी होना प्रकृति का नियम है। प्रकृति को जन्म-मृत्यु का चक्र जो चलाना होता है और हमें बुद्धि भी प्रकृति ने ही प्रदान की है। अतः उसका सदुपयोग करना भी हमारी प्रकृति हैं। रोगों से बचने का उपाय भी प्राकृतिक ही होने से पुरुष अनेक रोगों से संपूर्ण निरोगी रह सकते हैं।
आज की स्थिति में योग एक प्राकृतिक क्रिया है। जीवन शैली को बदलते या प्राकृतिक करते हैं तो रोगों से जल्दी छुटकारा स्थाई रूप से मिलता है। कृत्रिम जीवनशैली से अनेक असाध्य रोग होते हैं, उन रोगों को पूर्णरूप से निवारण संभव नहीं है। एक बार रक्तचाप बढ़ने लगा कि नियमित अप्राकृतिक गोलियाँ, दवाइयाँ चालू होती हैं वे जीवनभर चलती रहती है। डॉक्टरों से पूछें कि कब तक दवाइयाँ खानी हैं? वे कहते हैं "जब तक आप को चाँद-सूरज दिखता है तब तक" अर्थात रोगों को नियंत्रित किया जाता है परंतु समाप्त नहीं किया जाता है।
पुरुष समाज का अंग अपनी पढ़ाई पूर्ण करने के बाद बनता है और अपने व्यवसाय, नौकरी या स्वयं का उद्योग स्थापित करते ही उसका विवाह होता है। घर में नई नवेली बहू का पदार्पण, नए काम की शुरुआत एक के बाद होती है। घर-गृहस्थी एवं कार्य में सामंजस्य बनाते-बनाते पुरुषों को तनाव घेर लेता है। तनाव नींद कम करता है, व्यायाम करने की इच्छा मूलरूप से भारतीयों में नहीं होती। मित्र-मंडली, टेलीविजन क्लब, रात को पार्टियाँ भी चैन से सोने नहीं देतीं। आए दिन आयोजन रात्रिभोज, जन्मदिन, विवाह की वर्षगाँठ आदि से पुरुषों को अपने लिए समय नहीं मिलता। बच्चे छोटे-छोटे होते तब उनको अच्छे विद्यालय में भर्ती करना, दोस्ती निभाना और रिश्तेदारी निभाते-निभाते पुरुषों को तनाव का सामना करना पड़ता है। तनाव भूख बढ़ाता है,मोटापा,उच्चरक्तचाप,हृदय रोग 35-40 की आयु में होने लगता है। अनिद्रा,शीघ्रपतन,अवसाद,पत्नी से अनबन शुरू होते ही,पुरुषों के पत्नियों से संबंधों में दरारें पड़ने लगती हैं। तलाक़,आत्महत्या,हत्याएं,विवाहेतर संबंध आदि पुरुषों के जीवन को दुष्कर कर देती है। अंत में लगभग पचास की आयु में हृदयरोग,मधुमेह,कमर दर्द,घुटने,कूल्हों का दर्द एवं उसका प्रत्यारोपण आदि रोग होने लगते हैं। मूत्र रोग,पुरुषों में प्रोस्टेट ग्रंथि की समस्याएं विकराल रूप धारण करने लगती हैं।
यदि पुरुष जीवन में व्यायाम,विश्राम,संयमित कार्य एवं सामाजिक संबंध निभाते हुए प्रतिदिन निम्न योगाभ्यास करे,तो उसके रोग दूर किए जा सकेंगे अथवा पुरुष इनसे स्वतः मुक्त रह सकते हैं। सूर्य नमस्कार,अग्निसर क्रिया,ब्रह्ममुद्रा,कंध संचालन, तडासन, त्रिकाणासन, गरुड़ासन, उत्कटासन, मार्जरासन, वज्रासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन, पद्मासन, शाकासन, भुजंगासन, शलभासन, नौकासन, धनुरासन, विपरितकरणी मुद्रा, उत्तानपादान, पवनमुक्तासन, सेतुबंधासन, अश्विनी मुद्रा 100,शक्तिचालिनी मुद्रा 100 एवं शवासन करने के उपरान्त प्राणायाम का अभ्यास 10 मिनट प्रतिदिन करना चाहिए। प्राणायाम के बाद 10 मिनट सोsहम की सामान्य श्वास प्रवास पर धारणा एवं ध्यान करने से पुरुषों के उपरोक्त अनेक रोगों का निवारण प्राकृतिक रूप से संभव है।
श्वास का शरीर का संबंध
अक्सर लोग साँस और शरीर के रिश्ते को नहीं पहचानते। जिस तरह साँस का शरीर के साध जीवनभर का नाता होता है उसी तरह माँसपेशियों और हड्डियों के ढाँचे का भी संबंध होता है। भावनाओं और मस्तिष्क का भी ऐसा ही संबंध होता है। योग पुरुषों को जरा रुककर अपने अंदर की आवाज सुनने का अवसर देता है। किसी भी प्रतिस्पर्धा में बेहतर प्रदर्शन के लिए योग मददगार साबित होता है। उदाहरण के तौर पर यदि आप एक जिमनास्ट के तौर पर प्रशिक्षित तो शरीर की हर माँसपेशी उसी तरह काम करेगी। यदि आप मलखंब के खिलाड़ी हैं तो शरीर भी खास मौके पर विशेष तरह से प्रतिक्रिया करेगा। शरीर की कुछ माँसपेशियाँ सिकुड़ जाएँगी तो कुछ लचीली होकर बड़ी हो जाएँगी। शरीर का एक खास न्यूरोलॉजिकल और न्यूरोमस्क्यूलर पैटर्न तय हो जाएगा। मलखंब की किसी खास प्रतिस्पर्धा में शरीर आपके इशारे पर नाचेगा। यही वजह है कि आप बार-बार एक ही तरह के करतब दिखा पाते हैं। योग शब्द का अर्थ ही मन मस्तिष्क और शरीर के आपस में जुड़ाव से है(डॉ. बी.के.बांद्रे,सेहत,नई दुनिया,मार्च प्रथमांक 2011)।
बहुत उम्दा आलेख...आभार आपका.
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