नासिक के एडिशनल डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर यशवंत सोनवणे ने अपना कर्तव्य करते हुए पेट्रोल में घासलेट मिलाने वाले मिलावटखोरों पर छापा मारा और लौटते में एक और व्यक्ति को रास्ते में ही मिलावटखोरी के लिए रंगे हाथों पकड़ा तो पेट्रोल मिलावट माफिया के गुंडों ने उन्हें वहीं जिंदा जला दिया। इस लोमहर्षक घटना ने हिन्दुस्तानी समाज में कई विचलित करने वाले प्रश्न उठा दिए हैं। क्या मिलावटियों का साहस इतना बढ़ गया है कि वे एक अफसर को सरेराह जीते-जी जला दें? अराजकता और कानून-व्यवस्था के लोप का यही आलम है कि गुंडों को पता होता है कि कोई उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। थोड़े दिन जुलूस निकलेंगे, हलचल होगी, सरकारें कड़ी कार्रवाई करने का आश्वासन देंगी और फिर सब कुछ जस का तस होगा। अपराधी फिर मौज मनाने लगेंगे। इक्के-दुक्के को सजा हो भी गई तो माफिया का गहरा संजाल नहीं टूटने वाला।
वैसे भी हमारे समाज में मिलावट एक ऐसा रोग हो गया है, जिसमें बड़े-बड़े संगठित माफिया ही सक्रिय नहीं हैं बल्कि सामान्य व्यापारी, विक्रेता और उत्पादनकर्ता भी नकली और मिलावटी माल बेचने में सिद्धहस्त हैं। कभी घी में मिलावट की खबरें आती हैं, कभी दूध में मिलावट की। मसाले हों या मिठाइयाँ मिलावट से कुछ भी मुक्त नहीं है। हम जीवन की छोटी-छोटी चीजों पर भी गौर करेंगे तो पाएँगे कि सामान्य जीवन की कई चीजों में मिलावट नजर आती है। जैसे सामान्य कंकू होता है, भाल पर तिलक लगाने का। आप पाएँगे कि उसका रंग अब चटख लाल नहीं, गुलाबीपन वाला लाल होता है। कंकू पोंछने के बाद भी भाल पर एक गुलाबी धब्बा-सा रह जाता है, जो बहुत रगड़ कर पोंछने के बाद मुश्किल से छूटता है। कुछ सालों पहले तक जब लड़कियाँ मेहँदी लगाती थी, रात को नींद खुलती तो अपनी हथेलियाँ सूँघती और लाइट जलाकर मेहँदी के रंग को नारंगी से हल्के लाल में बदलते हुए देखती थीं। अब मेहँदी में वह खुशगवार खुशबू नहीं आती। उत्फुल्ल लाल की बजाय वह काले-काले रंग में रचती है। हर चीज में मिलावट इतनी आम हो गई है कि विश्वास का भी संकट हो गया है। मिलावट संबंधी कई किंवदंतियाँ चल पड़ी हैं, जिनमें से कई सही हैं और कुछ अतिशयोक्तियाँ भी। आप हरा-भरा धनिया देखेंगे तो आपको लगेगा जरूर, इस पर हरा रंग छिड़का गया है। कभी कोई कहेगा कि तरबूज को मीठा करने के लिए इंजेक्शन लगा दिया गया, तो कोई कहेगा बासी सब्जी ताजी दिखाने के लिए कोई केमिकल छिड़का गया है। सेब पर मोम की पॉलिश होने का संशय भी आम है, जो कि सच भी हो सकता है। इंदौर में पुलिस हेलमेट के लिए सख्त हुई तो नकली आईएसआई मार्क लगाकर नकली, कच्चे हेलमेट बिकने लगे। लोगों के प्राण लेने की कीमत पर भी खुद के चार पैसे कमाना आत्मा को चुभता नहीं। इन सामान्य चीजों में कोई बड़े-बड़े माफिया काम नहीं कर रहे हैं, हम सब आम लोग ही एक-दूसरे को ठग रहे हैं, जिसके हाथ में जो चीज आ जाए, उसमें थोड़ा-सा पैसा कमाने के लिए आदमी अपना जमीर बेच देता है। ऊपर से तुर्रा यह कि जब सब ही यह कर रहे हैं तो हम भी क्यों न करें। गोया कि सब कुएँ में कूद रहे हैं तो हम भी कूद जाएँ। ऐसे में एक मिलावटी केमिस्ट की कथा याद आती है। कथा का यह केमिस्ट नकली इंजेक्शन बनाया करता था। इसके इंजेक्शन से कई बच्चों की मौत हो गई थी। वह अपने घर के लोगों को कभी अपनी फार्मेसी की दवाइयाँ नहीं लेने देता था, मगर एक दिन उसका बच्चा बीमार हुआ। दुर्योग से केमिस्ट शहर के बाहर था। सेल्समैन ने केमिस्ट के बच्चे के लिए अपनी फार्मेसी का इंजेक्शन दे दिया। बच्चा नहीं रहा। यह तो एक रूपक कथा है, मगर भारतीय समाज की हालत अभी यही है। हम सब एक-दूसरे को मिलावट का जहर दे रहे हैं जिसकी अगन किसी-न-किसी रूप में स्वयं के घर पहुँचना ही है। संगठित माफियाओं को सजा मिलने के साथ ही हम सबका सामूहिक जमीर जागना भी आवश्यक है वर्ना रोजमर्रा के जीवन की हर चीज नकली, प्रदूषित और अस्वास्थ्यकर होगी(निर्मला भुराड़िया,नायिका,नई दुनिया,2.1.11)।
पूरे कुएँ में ही भांग पडी हुई है ।
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