गर्भावस्था में मानसिक तनाव से बचाने के लिए दी जाने वाली एंटी साइकोटिक दवाएं शिशु के लिए खतरनाक साबित हो सकती हैं। एक शोध के नतीजों में खुलासा हुआ है कि एंटी साइकोटिक दवाएं शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास पर गंभीर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। आमतौर पर यह असर उसके किशोर होने पर प्रकट होता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जंतु विज्ञान विभाग की न्यूरो बायोलॉजी प्रयोगशाला में यह शोध प्रो. केपी सिंह के निर्देशन में निधि त्रिपाठी और मनोज सिंह कर रहे हैं। प्रोफेसर केपी सिंह बताते हैं कि गर्भवती महिलाओं को अवसाद और चिंता से बचाने के लिए पूर्व में डॉक्टर थायोरिडॉजीन, हेलोपेरिडोल और क्लोरोप्रोपाजाइन आदि एंटी साइकोटिक दवाएं देते रहे हैं। पुरानी जेनरेशन (टिपिकल) की इन दवाओं में बड़े स्तर पर विपरीत प्रभाव देखे गए थे। बाद में एटिपिकल दवाओं, जैसे क्यूटापाइन, रिसेपेरोडोन, ओलेंजापाइन प्रयोग में आई। ये दवाएं भी भ्रूण के विकसित हो रहे दिमाग और शरीर पर विपरीत प्रभाव डालती हैं। इनसे न केवल शिशु का वजन और उसकी लंबाई कम हो जाती है, बल्कि दिमाग का वजन और विकास भी कम हो जाता है। शोध के दौरान चूहों में इन दवाओं का प्रयोग गर्भावस्था के समय किया जा रहा है। पैदा हुए बच्चों में रियरिंग (चूहों का अपने पैरों पर खड़ा होना) और सेल्फग्रूमिंग (कानों को पंजों से झाड़ना) में जबरदस्त बढ़ोतरी देखने को मिली। यह लक्षण मस्तिष्क की अतिसक्रियता को व्यक्त करता है, जो शिशु के भावी जीवन के लिए ठीक नहीं है। तंत्रिका प्रभावित होने से आगे चलकर बच्चे भी एनक्जाइटी (चिंता) और अवसाद आदि से ग्रसित हो जाते हैं। दरअसल साइकोटिक दवाएं न केवल प्लेसेंटा (गर्भनाल) बल्कि ब्लड ब्रेन बैरियर यानि नर्व सिस्टम के कवर को भी भेद जाती हैं। विकासशील मस्तिष्क में होने वाले रासायनिक कारकों से न्यूरोट्रांसमिटर्स में गड़बड़ी को जिम्मेदार मानते हुए कारणों पर शोध चल रहा है। साइकोटिक दवाओं का बाद में उपयोग किए जाने से भी खतरा रहता है। मां के दूध के साथ भी हानिकारक रसायन बच्चों में पहुंचते हैं। गर्भ और प्रसव के बाद भी दवाओं का घातक असर बरकरार रहता है। इसलिए इस मामले में बेहद सावधानी बरते जाने की जरूरत है(अखिलेश त्रिवेदी,दैनिक जागरण,इलाहाबाद,11.2.11)।
सही सुझाव।
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