देश में हर गर्भवती महिला को अस्पताल तक पहुंचाने का लक्ष्य पूरा नहीं होता देख अब सरकार ने अपनी नीति ही बदल दी है। इसके तहत अगर गर्भवती महिला अस्पताल तक नहीं पहुंच सके तो आशा कार्यकर्ता के जरिए उसे उसके घर पर ही प्रसव करवाने की व्यवस्था की जा रही है। जबकि हालत यह है कि आशा कार्यकर्ताओं को मामूली इलाज भी करना नहीं आता और प्रसव के दौरान महिला को ऑपरेशन तक की जरूरत पड़ती है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने संस्थागत प्रसव को लेकर संतोषजनक काम नहीं होता देख तय किया है कि अब इस काम में आशा कार्यकर्ताओं को भी शामिल किया जाएगा। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद दैनिक जागरण से बातचीत में कहते हैं, जिन इलाकों में खराब सड़क, अस्पताल की दूरी या वाहन की अनुपलब्धता जैसे कारण से गर्भवती महिलाओं का अस्पताल तक पहुंचना मुमकिन नहीं हो, उन्हें हम उनके हाल पर नहीं छोड़ सकते। इसलिए तय किया गया है कि जरूरी सावधानी और निगरानी उन्हें आशा कार्यकर्ताओं के जरिए उनके घर पर ही मिले। वह स्पष्ट करते हैं कि ऐसा करके हम जच्चा को अस्पताल तक पहुंचाने का अपना प्रयास कम नहीं करने जा रहे हैं। नई रणनीति के तहत आशा कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण भी दिया जाना शुरू कर दिया गया है। स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल के दौरान सितंबर के अंत तक सिर्फ 70 लाख बच्चों का जन्म ही डॉक्टरी निगरानी में हुआ, जो इस दौरान हुए कुल प्रसव के मुकाबले बहुत कम है। स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों के मुताबिक सरकार की अब तक नीति रही है कि सभी गर्भवती महिलाओं को प्रसव के लिए प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) या सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) तक लाया जाए। क्योंकि आम तौर पर इन्हीं जगहों पर प्रशिक्षित डॉक्टर की निगरानी और जरूरी उपकरण उपलब्ध होते हैं। मगर बाद में उन इलाकों के लिए जहां पीएचसी भी दूर हो, स्वास्थ्य उप केंद्र (एससी) का लक्ष्य रखा गया। उप केंद्रों पर सिर्फ प्रशिक्षित नर्स दाई (एएनएम) और स्वास्थ्य कार्यकर्ता होती हैं। ये ऑपरेशन भले न कर सकें, लेकिन बाकी काम के लिए प्रशिक्षित होती हैं। लेकिन आशा कार्यकर्ता तो अब तक किसी भी तरह के इलाज में शामिल नहीं की जातीं। उनका काम सिर्फ मरीजों को स्वास्थ्य केंद्र तक पहुंचाने में मदद करना भर है(मुकेश केजरीवाल,दैनिक जागरण,दिल्ली,31.1.11)।
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