गुरुवार, 13 जनवरी 2011

ब्लड ग्रुप

लगभग सौ वर्ष पहले जब आदमी को ब्लड-ग्रुप की जानकारी नहीं थी तो किसी व्यक्ति को खून देना मुश्किल था। तब यह भी पता नहीं था कि ऐसा है क्यों। सबसे पहले 1901 में ऑस्ट्रिया के कार्ल लैंडस्टीनर ने पता लगाया कि हर व्यक्ति का ब्लड-ग्रुप अलग-अलग होता है, जिसकी वजह से अगर किसी एक ब्लड ग्रुप के व्यक्ति को दूसरे अलग ब्लड ग्रुप वाले व्यक्ति का खून दिया गया जो यह क्लॉट के रूप में जम जाएगा, जिससे उसे लाभ के बजाय नुकसान होगा। ब्लड-ग्रुप आठ तरह के होते हैं। ये ए,बी, एबी और ओ पॉजिटिव या निगेटिव होते हैं।

सब जानते हैं कि केवल समान ब्लड ग्रुप वाले व्यक्तियों के खून की अदला बदली हो सकती है। लोगों के ब्लड ग्रुप में अंतर खून में पाए जाने वाले अणुओं, जिन्हें एंटीजन और एंटीबॉडी कहते हैं, की मौजूदगी या नामौजूदगी की वजह से होता है। एंटीजन, खून में पाई जाने वाली लाल रक्त कणिकाओं की सतह पर पाए जो हैं और एंटीबॉडी ब्लड प्लाजमा में। लोगों में एंटीजन और एंटीबॉडी अणुओं का संयोग अलग-अलग तरह से होता है। आमतौर पर लोगों में पाया जाने वाला ब्लड ग्रुप आनुवांशिक होता है। अब तक बीस तरह के आनुवांशिक ब्लड ग्रुप की खोज हो चुकी है, लेकिन एबीओ और आरएच फैक्टर दो ऐसे महत्वपूर्ण तत्व हैं, जो खून के लेने देने (ब्लड ट्रांसफ्यूजन) के लिए जिम्मेदार होते हैं। ब्लड ग्रुप की जानकारी और ट्रांसफ्यूजन की प्रक्रिया की खोज के लिए कार्ल लैंडस्टीनर को 1930 में नोबेल दिया गया।

आमतौर पर एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में 4-6 लीटर खून होता है। साधारण स्थिति में केवल समान ब्लड ग्रुप वाले लोगों में ही खून का आदान-प्रदान होता है, जिसकी वजह से यह भ्रांति है कि किसी और ग्रुप का खून दूसरे को दिया ही नहीं जा सकता, लेकिन ऐसा पूरी तरह सच नहीं है। एबी ग्रुप को समान ग्रुप मौजूद न होने पर ओ ग्रुप या फिर कि सी दूसरे ग्रुप का ब्लड दिया जा सकता है। ऐसे ही ओ ग्रुप को यूनिवर्सल डोनर माना गया है, यानी यह ओ के साथ ही बाकी सारे ब्लड ग्रुप वाले लोगों को भी दिया जा सकता है(हिंदुस्तान,दिल्ली,10.1.11)

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