दुनिया भर में हो रहे प्रयासों के बावजूद भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में शिशुओं की मौतों में कमी लाने के प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। हालांकि पिछले कुछ सालों में इन मौतों के मामलों में कमी आई है, इसके बावजूद विशेषज्ञों का मत है कि इस दिशा में और प्रयास किए जाने जरूरी हैं। बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था बालमन की प्रतिनिधि संयुक्ता रॉय के मुताबिक, यह सच है कि सरकार की कई योजनाओं के बाद मैदानी स्थिति थोड़ी-बहुत सुधरी है, पर ऐसे मामलों की संख्या बहुत कम है। संस्थागत प्रसव जैसी प्रक्रियाओं ने मातृ मृत्यु दर के साथ शिशु मृत्यु दर को भी कम किया है, लेकिन दूरदराज के क्षेत्रों में हालात बहुत बेहतर नहीं हैं। संयुक्ता ने बताया, भले ही इस बात को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार न किया गया हो, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि बाल मृत्युदर में अभी भी लड़कियों की संख्या काफी ज्यादा है। इसके पीछे आधुनिक तकनीक भी एक बड़ा कारण है। खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में इसे लेकर जागरुकता बहुत जरूरी है। गौर करने वाली बात यह है कि बाल मृत्यु दर में कमी लाने को संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित सहस्राब्दी विकास उद्देश्यों (एमडीजी) के तहत शामिल किया गया है। बाल मृत्यु दर पर समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई शोध हुए हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवॉल्युएशन ने मई में अपनी एक रिपोर्ट जारी करते हुए कहा था कि भारत में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर में चार से पांच फीसदी वार्षिक तौर पर कमी आ रही है। इस रिपोर्ट के लिए 1970 से 2009 के बीच 187 देशों पर अध्ययन किया गया था। वहीं, विशेषज्ञों के मुताबिक पांच साल से कम उम्र के शिशुओं की मौतों का एक बड़ा कारण निमोनिया और कुपोषण है। बांबे अस्पताल से जुड़ीं बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. कुमुदिनी मिश्रा के मुताबिक, शहरों की स्थिति बहुत बेहतर है। शोधों के सिलसिले में हमारा दल बहुत से प्रदेशों के ग्रामीण क्षेत्रों में जाता है, वहां पता चलता है कि कुपोषण शिशुओं की मौतों का बहुत बड़ा कारण है। यह व्यथित करने वाला तथ्य है कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में सबसे ज्यादा मौतें कुपोषण के कारण हो रही हैं(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,7.11.2010)।
विचारोत्तेजक प्रस्तुति. आभार
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.
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