हमारे आस पास तमाम ऐसी वनस्पतियां पाई जाती हैं जिनमें औषधीय गुण मिलते हैं। समझ और सजगता का अभाव होने के कारण इनका सही प्रयोग नहीं हो पाता। इन्हीं वस्पतियों में घृतकुमारी का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। आयुर्वेद में इसे ग्वारपाठा, घी कुंवारा, स्थूलदला, कुमारी आदि नामों से इसे जाना जाता है। घृतकुमारी के पत्तों का इस्तेमाल यकृत विकार, आमवात, कोष्ठबद्धता, बवासीर, स्त्रियों के अनियमित मासिक चक्र और मोटापा घटाने के साथ ही चर्म रोग में भी लाभकारी होता है। घृतकुमारी सभी स्थानों पर पूरे वर्ष सुगमता से मिलता है। इसके गूदे में लौह, कैल्शियम, पोटैशियम एवं मैग्नीशियम पाया जाता है। इनके औषधीय गुणों पर गौर किया जाये तो उदर विकार एवं यकृत के रोगों में यह बहुत कारगर होता है। घृतकुमारी के पत्तों का गूदा एक छोटा चम्मच, दो दाना काली मिर्च का चूर्ण एक साथ मिलाकर 50 ग्राम पानी में घोलकर नियमित रूप से प्रयोग करना चाहिए। उदर विकार में यह बहुत ही लाभ पहुंचाता है। यदि पेट में किसी भी प्रकार की परेशानी हो तो घृतकुमारी एक चम्मच, सेंधा नमक और शुद्ध हल्दी का चूर्ण मिलाकर पीने से पेट के सभी रोगों से छुटकारा मिलता है। यह जोड़ों के दर्द में भी लाभ पहुंचाता है। मोटापे की स्थिति में भी यह बहुत राहत देता है। शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाने में सहायक होता है। यदि आंख की रोशनी में कमी आ रही हो तो घृतकुमारी का घोल तथा आंवले का चूर्ण मिलाकर पीने से फायदा पहुंचता है। घृतकुमारी का घोल, त्रिकुट का चूर्ण 2 ग्राम मिलाकर नियमित रूप से लेने पर जोड़े के दर्द एवं सूजन में अत्यंत लाभ पहुंचता है। फोड़े-फुंसी के दाग होने पर या चेहरे पर झांई या फिर बढ़ती उम्र के निशान को मिटाने के लिए घृतकुमारी का लेप चेहरे पर करने से फायदा होता है। स्त्रियों के अनियमित मासिक चक्र को ठीक करने में भी यह सहायक होता है। घृतकुमारी को तिल के तेल में डालकर लोहे के पात्र में धीमी आंच पर पका लें यह सिद्ध तैल टूटते हुए बालों के लिए फायदेमंद होता है।
(वैद्य आशुतोष मालवीय,दैनिक जागरण,इलाहाबाद,7.11.2010)। घृतकुमारी के बारे में अखिल विश्व गायत्री परिवार का एक आलेख देखिएः घी के समान तापच्छिल पीत मज्जा होने से इसे घृतकुमारिका अथवा घीकुँआर कहा जाता है । इसका क्षुप बहुवर्षायु 30 से 60 सेण्टीमीटर ऊँचा होता है । पत्तियाँ माँसल, भालाकार, एक से दो फीट लम्बी, 3-4 इंच चौड़ी, अग्रभाग में तीक्ष्ण गूदेदार, बाहर से चमकीले हरे रंग की होती हैं । पत्तों का चौड़ा हिस्सा कुछ मुड़ा-काँटों युक्त होता है । पत्ते बढ़ने व क्षुप के कुछ पुराने होने पर पत्रों के बीच से एक मुसल निकलता है जिस पर रक्ताभ पुष्प निकलते हैं । कभी-कभी एक से सवा इंच लंबी फलियाँ भी शीत ऋतु में आती हैं । घीकुँआर में मुख मार्ग से प्रयुक्त औषधि निर्माण हेतु कड़ुवी जाति प्रयुक्त होती है । जिसे विशेष रूप से बोया जाता है । सामान्यतया खेतों की मेड़ों पर या जंगलों में पाई जानेवाली कुछ मिठास भरा गूदा लिए होती है तथा बाह्य प्रयोग के लिए ही इस्तेमाल होती है । आयुर्वेद मतानुसार यह लेप हेतु उत्तम वस्तु है । इसके गूदे को पेट पर बाँधने से पेट के अन्दर की गाँठें गल जाती हैं, कड़ा पेट मुलायम होता है तथा आँतों में जमा मल बाहर निकल जाता है । श्री नादकर्णी ने अपनी पुस्तक 'मटेरिया मैडीका' में ऐलोवेरा के बाह्य उपयोगों की खुले शब्दों में प्रशंसा की है । वे लिखते हैं कि घृतकुमारी का गूदा व्रणों को भरने के लिए सबसे उपयुक्त औषधि हे । विशेषकर अमेरिका में 'रेडिएशन' के कारण हुए असाध्य व्रणों पर इसके प्रयोग से असाधारण सफलता मिली है । श्री दस्तूर के अनुसार घृतकुमार की पुल्टिस अर्बुद 'सिस्ट' सूजन दाह तथा अधपके व्रणों में अत्यधिक लाभ करती है । यूनानी औषधि विज्ञान में इसे सिब्र या मुसब्बर नाम से जाना जाता है और इसके अनेकों बाह्य प्रयोगों का वर्णन यूनानी व तिब्बती चिकित्सा पद्धति में मिलता है । इस औषधि में एलोइन, आइसोवारबेलिन, इमोडिन, क्राइसोफेनिक अम्ल आदि अनेकों रसायन मिले हैं । इसके ये सभी घटक तथा एन्जाइम्स (ऑक्सीडेस वकेटेलेस) घावों को भरने तथा स्थानीय प्रयोगों में सहायक होते हैं । आधुनिक भेषज में भी घृतकुमारी के उपरोक्त वर्णित बाह्य प्रयोगों के समर्थन में कई अभिमत मिलते हैं । प्रायोगिक जीवों पर विकिरण जन्य दाह तथा व्रणों पर प्रयोग कर यह पाया गया है कि घृतकुमारी के प्रयोग से अन्य औषधियों की अपेक्षा जल्दी दग्धों के भरने की दर बढ़ती है । जीवों के अन्दर इन घावों को भरने वाले, एन्जाइम्स की मात्रा में अत्यधिक वृद्धि होती पायी गई है । इस औषधि में पाया जाने वाला क्रांईसोफेनिक अम्ल भी प्रचण्ड जीवाणुनाशी है । बाह्य प्रयोगों के लिए घीकुँआर के पत्रों से प्राप्त लसीला द्रव्य जो सफेद गूदे के रूप में होता है, प्रयुक्त होता है । जले स्थान, त्वचा रोगों, जीर्ण व्रणों, अर्बुदों, स्तन्यशोथ, पाइल्स (अर्श) में लुगदी की पुल्टिस लगायी जाती है । इसका गूदा आँखों में लगाने से लाली व गर्मी दूर होती है । वायरस कंजक्टीवाईटिस में यह लाभ करती है । एक अन्य आलेख हिमालय गौरव सेः
कनखल के वैद्य दीपक कुमार जी ने पोर्टल के सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी को दिये गये अपने आलेख में कहा है कि कुमारी और घृतकुमारिका संस्कृत शब्द है। हिन्दी में इसी को घी कुंवार और ग्वारपाठा के नाम से जाना जाता है। यह हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक सर्वत्र देखने को मिलती है। लैटिन में एलाबेरा कहते है। इसकी रासानिक संरचना का विश्लेषण करने से ज्ञात हुआ है कि एलुआ में एलोहन नामक ग्लूकोसाइड समूह होता है। यही इसका मुख्य क्रिया तत्व है अथर्ववेद १०/४/१४ में कुमारी का विस्तार से वर्णन है। यूरोपीय देशों को दसवी शताब्दी में इसके गुणकारी स्वरूप का बोध हुआ। ईसा से ४०० वर्ष पूर्व में यूनानी हकीमों ने इसके औषधीय गुणों का पता लगा लिया था। हकीम अरस्तू का परामर्श पाकर सिकन्दर ने स्काट्रा नामक टापू को आक्रमण करके अपने अधिकार में इसलिए ले लिया कि इसमें औषधीय गुणों वाली घृतकुमारी का आरोपण था। प्राचीन आगन अथवा तंत्राशास्त्रा में पांच प्रकार के सम्प्रदायों का प्रमुख रूप से उल्लेख है जिन्हें शैव, वैष्णव, सौर, शाक्त और गाणपत्य के नाम से जाना जाता है। वनौषधियों के नाम पर भी इनका प्रभाव है। शाक्ततंत्र के प्रभाव से ही इस वनौषधि को कुमारी के नाम से जाना गया है। भारतीय संस्कृति में तो किन्ही मांगलिक सुअवसरों पर कुमारी कन्याओं के पूजन-अर्चन का विधि विधन चिरकाल से चला आ रहा है। इस दृष्टि से भी इस औषधि की गरिमा बढ जाती है। इसके मोते पत्ते के छिलके में कडुआपन होता है किन्तु भीतर के गूदे का स्वाद मीठा है।
अमेरिका में घृतकुमारी को एलोविरा के नाम से जाना जाता है। इसके द्वारा निर्मित शैम्पू बडा ही लोकप्रिय बनता जा रहा है। ब्रिटिश पफार्मोकोपिया ने तीन प्रकार के एलुवा को अंगीकार किया है। जो घृतकुमारी के रस से एक विशेष प्रकार का तत्व निकालता है। इनको कुराकाओं, सकोतरी और अन्तरीपीय एलुआ के नाम से जाना जाता है। कुमारी के रस को प्राप्त करने हेतु उसके पत्तों को काट कर एक मिट्टी के घडे में बंद करें। घडें में छोटे-छोटे छिद्र बनायें। चौडे मुख वाले पात्रा में घडे में रखें। लकडी के माध्यम से भीतर पत्तों को हिलाने पर रस बाहर आ जाता है। एलुवा की असलियत को समझने के लिए छने हुए विलियन २० मि.ली. में २ ग्राम सुहागा की मात्रा मिला दें, दोनों को घुल जाने तक गरम करते रहें किसी पात्रा के जल में इसकी कुछ बूंदे डालें यदि उसमें हरे रंग का फन दिखने लगे तो एलुवा असली माना जायेगा।
रक्तवर्धक, पित्तदारक और पाचकता के गुण विद्यमान होने से घृतकुमारी यकृत-प्लीहा में विशेष लाभ पहुँचाती है। पित्ताशय की सहज स्वाभाविक क्रिया में किसी भी तरह का व्यवधान उत्पन्न होने पर पित्त रस आँत में न पहुँचकर रक्त में चला जाता है। जिससे कामला (जॉण्डिस) रोग पैदा हो जाता है। घृतकुमारी का कार्य पित्ताशय की क्रिया को सुसंचालित रखने का होता है। तभी तो इसे ’कुमारी रौद्ररूपाणाम् कामलानाम् विनाशिनी‘ कहकर पुकारा जाता रहा है। कोष्ठब(ता के कारण विजातीय तत्वों का संग्रह होने लगता है। जिससे प्लीहोदर नामक उदर रोग उभर कर आता है। घृतकुमारी के रस में हरिद्राचूर्ण मिलाकर सेवन करने से प्लीहोदर रोग मिट जाता है। इस रोग में श्वेत रक्त कण बढते हैं और लाल रक्त कण घटने से शरीर में रक्तहीनता आने लगती है। कुमारी तुरंत ही रक्त में वृद्वि कर देती है।
नीम गिलोय के साथ घृतकुमारी का सेवन निरंतर करते रहने से वृद्वावस्था में भी युवाओं जैसी स्फर्ति बनी रहती है। दोनों को पीसकर पानी में मिलाकर लेने से इन्दि्रयों में शिथिलता नहीं आती है। पाचकाग्नि के बिगड जाने से भी विकार ग्रसित होने लगती है। कुमारी का रस इसमें बडा ही गुणकारी सिद्व होता है। वात पित्त कपफ के शमनार्थ एलुआ को शंखभस्म में मिलाकर लिया जा सकता है। जब आमाशय में हाइड्रोक्लारिक एसिड की मात्राा अधिक स्रवित हो उठती है तो शंखभस्म की क्षारीय प्रकशित तुरंत शांत कर देती है इस प्रकार बढी हुई अम्लता समाप्त हो जाती है और अम्लपित्त और आमाशय शोथ का उपचार होता है। इस सम्मिश्रण की १-१ ग्राम मात्रा दिन में तीन बार लेने से प्रारम्भ में मल पतला हो सकता है इसकी चिंता न करें कुछ कम मात्राा में सेवन करते रहें। यह चर्म रोग और रक्त विकार में लाभकारी सिद्व होता है।
मधुमेह के रोगियों को घृतकुमारी के रस का सेवन करने से लाभ होता है। शुक्राणुओं की दुर्बलता को मिटाता है। स्त्रियों के रोगों में तो यह रामबाण की तरह सफल होता है। एलुवा में उष्णता होने से गर्भाशय में शूल, अनियमित मासिक स्राव और अतिस्राव के विकारों को दूर करता है। बंग भस्म और शिलाजीत का संयोग पाकर तो कुमारी श्वेत प्रदर में भी गुणकारी साबित होती है।
रोगोपचार के अन्तर्गत रसौषधियों की अपनी विशिष्टता होती है। जिनमें अनेकों तरह की जडी-बूटियाँ काम आती है। घृतकुमारी उन सभी वनौषधियों में अपनी अलग उपयोगिता रखती है। पारद तथ अन्यान्य कई प्रकार की धातुओं के शोधन, संस्कार, मारण आदि में कुमारी की भूमिका सर्वोपरि मानी गयी है। चित्राक आदि के कषाय के साथ कुमारिका का मर्दन करने से पारद के सप्तमलों का परिषोधन हो जाता है। स्वर्णभस्म बनाने के लिए २ ग्राम स्वर्ण की मात्रा को कुमारी स्वरस में घोंटकर पतली टिकिया बना लें और ६० ग्राम निर्मली बीज चूर्ण बनाकर उक्त टिकिया बना कर सुखा लें इसके पश्चात तीन बार लघु पुट देने से स्वर्णभस्म बन कर तैयार हो जाती है। इसी तरह रजत, ताम्र, बंग, त्रिावंग, पित्तल, प्रवाल, लौह, मण्डूर, जहरमोहरा खताई, अकीक, संगजराहतु तथा कूर्मास्थि आदि भस्मों को तैयार किया जा सकता है।
यूनानी चिकित्सा में कुमारी कृमि नाशक, रक्तशोधक और सूजन के स्थान पर इसका लेप बडा ही लाभकारी होता है। बबासीर को मिटाने के लिए गन्धना नामक वनस्पति के काढे में कुमारी के एलुवे को मिलाकर और उसमें साँप की केंचुली को डालकर लेप बनायें और उसके मस्सों पर लगाने से रोगमुक्ति का लाभ मिलता है। आज की चिकित्सा प(ति में एन्थ्रासीन श्रेणी की रेचक औषधियों के अन्तर्गत एलुवा प्रधान है। इसमें मरोड का दोष अवश्य उत्पन्न हो सकता है। लेकिन इसका प्रयोग एक्सट्रैक्ट बेलाडोना अथवा हायोसायमस के साथ में मिलाकर लेने से यह दोष भी नहीं रहता है। बच्चों के नाभि चक्र पर अरण्ड तेल के साथ कुमारी का मर्दन करने से कब्ज की शिकायत दूर होती है। घश्तकुमारी का गूदा व्रणों (ट्यूमर) के घावों को भरने में महाऔषधि का काम करता है। चिकित्सकों के मतानुसार विकिरण के कारण असाध्य घावों को कुमारी अपने ही देश में नहीं बल्कि अमेरिकादि में भी उपयोगी साबित हो रही है। इस औषधि में एलोहन आदि रसायनों का समिश्रण होता है ये सभी घटक और एन्जाइम्स घावों को जल्दी भरने में सहायक होते हैं। कुमारी में पाया जाने वाला क्राइसोपफोनिक अम्ल कृमिनाशक है। डा. ईथर पफोर्ड के अनुसार कुमारी के एलुवे का प्रभाव स्त्रियों के गर्भाशय में ’पेल्विक सरक्यूलेशन‘ पर पडता है जिससे उनको मासिक धर्म नियमित होने और अन्यान्य प्रकार के गुप्त रोगों से मुक्ति मिलती है।
शरीर के किसी भाग में गांठ बन जाती है तो कुमारीमज्जा पर हरिद्रा और रसौत पीसकर गरम-गरम बांधने से ग्रन्थि बैठ जाती है। कुत्ते के काटने के घाव पर घृतकुमारी के साथ सेंधा नमक ५ दिन तक बांधने से घाव मिट जाता है। नेत्रों की पीडा में कुमारी का गूदा ११ ग्राम में २२० मि.ग्रा. अपफीम मिलाकर एक पोटली से आँखों पर लगाते रहें। एक-दो बूंद नेत्रों में भी डाली जा सकती है। हरिद्राचूर्ण को मज्जे ;गूदाद्ध में मिलाकर गरम करके पैर के तलवों पर बांधने से भी आँखों का दुखना बंद हो जाता है। कुमारिका रस में थोडी सी मात्राा घी की मिलाकर नस्य लेने से कामला रोग भागता है। कान दर्द की स्थिति में स्वरस को ही गरम करके डालने से लाभ होता है। नस-नाडयों की पीडा होने पर पर कुमारिक स्वरस में मेंथी के बीजों की टिकिया बनाकर बांधने से लाभ मिलता है। ईंट-पत्थर की रगड से दर्द वाले स्थान पर कुमारी स्वरस की पट्टी बांधने पर पीडा हट जाती है। चोट लगने पर मज्जा के साथ सज्जीक्षार, हरिद्रा केसर और अपफीम को पीसकर लगाने से चोट का दर्द दूर हो जाता है।
वातशूल होने पर दारूहरिद्रा को ऊपर से छिडकर कुमारी पत्रा को गरम करके बांध दें। चर्मकील में ताजा कुमारी स्वरस में तेल की मात्राा मिलाकर बांधने से लाभ होता है। शोथ में कुमारिका मज्जा आम्रहरिद्रा और श्वेतजीरक को पीस कर लेप कर लें। अग्नि दग्ध के कारण जब कोई घाव होता है तो कुमारी स्वरस में मक्खन मिला कर लगाने से लाभ होता है। घाव की सामान्य अवस्था में पत्ते को छीलकर उसमें हरिद्रा चूर्ण डालकर गरम करके हृदय के ऊपर सिकाई करें। यदि कोई घाव पकने की स्थिति में है तो कुमारी मज्जा के साथ सज्जीक्षार और हरिद्रा रखकर बांध दें। कुमारी मज्जा पर थोडी सी मात्रा गेरू की बुरकने से रक्तस्राव रूकता और पीडा नहीं रहती है। सिर में दर्द होने पर इसके गूदे में दारूहल्दी का चूर्ण मिलाकर गरम करके दर्द वाले स्थान पर कपडे की गाँठ के माध्यम से लगाने पर दर्द बंद हो जाता है। कुमारी की जड को कुचल कर गर्म पानी में पीस लें थोडी सी हल्दी मिलाकर दिन में २-३ बार लगाने से स्तनों का दर्द बंद हो जाता है। कई बार शरीर में रसों की कमी होने पर नाखून मोटे होने लगते हैं और पैरों के नीचे सूजर आ जाती है। कुमारिकामज्जा के कल्क में कच्ची पिफटकरी मिलाकर मर्दन करने से अपरस का उपचार होता है।
नपुसंकता भीतर का रोग है जिसकी वजह से व्यक्ति को संतान सुख से वंचित रहना पडता है। घृतकुमारी की जड के ऊपर के छिलके को निकल डालें और अन्दर के मज्जा को धूप म सुखाकर उसका चूर्ण बना लें प्रतिदिन ३ ग्राम की मात्रा में प्रातः सेवन करते रहें। तेल, गुड, मिर्च, खटाई आदि से बचें। कुछ ही दिनों में नपुसंकता नहीं रहेगी। दुर्बल और दूषित गर्भाशय को पुष्ट और शुद्व करने में कुमारी बडी ही गुणकारी सिद्व हुई है। कई आयुर्वेदिक पफार्मेसी तो घृतकुमार इन्जैक्शन भी निर्माण कर चुकी हैं जो उदर विकार और स्त्रिायों के रोगों के उपचार में बडा ही सफल-सार्थक सिद्ध हुआ है।
नोटःइस पोस्ट की चर्चा दिनांक 8.11.2010 के चिट्ठाचर्चा ब्लॉग पर की गई है जिसका लिंक यहां है।
कनखल के वैद्य दीपक कुमार जी ने पोर्टल के सम्पादक चन्द्रशेखर जोशी को दिये गये अपने आलेख में कहा है कि कुमारी और घृतकुमारिका संस्कृत शब्द है। हिन्दी में इसी को घी कुंवार और ग्वारपाठा के नाम से जाना जाता है। यह हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक सर्वत्र देखने को मिलती है। लैटिन में एलाबेरा कहते है। इसकी रासानिक संरचना का विश्लेषण करने से ज्ञात हुआ है कि एलुआ में एलोहन नामक ग्लूकोसाइड समूह होता है। यही इसका मुख्य क्रिया तत्व है अथर्ववेद १०/४/१४ में कुमारी का विस्तार से वर्णन है। यूरोपीय देशों को दसवी शताब्दी में इसके गुणकारी स्वरूप का बोध हुआ। ईसा से ४०० वर्ष पूर्व में यूनानी हकीमों ने इसके औषधीय गुणों का पता लगा लिया था। हकीम अरस्तू का परामर्श पाकर सिकन्दर ने स्काट्रा नामक टापू को आक्रमण करके अपने अधिकार में इसलिए ले लिया कि इसमें औषधीय गुणों वाली घृतकुमारी का आरोपण था। प्राचीन आगन अथवा तंत्राशास्त्रा में पांच प्रकार के सम्प्रदायों का प्रमुख रूप से उल्लेख है जिन्हें शैव, वैष्णव, सौर, शाक्त और गाणपत्य के नाम से जाना जाता है। वनौषधियों के नाम पर भी इनका प्रभाव है। शाक्ततंत्र के प्रभाव से ही इस वनौषधि को कुमारी के नाम से जाना गया है। भारतीय संस्कृति में तो किन्ही मांगलिक सुअवसरों पर कुमारी कन्याओं के पूजन-अर्चन का विधि विधन चिरकाल से चला आ रहा है। इस दृष्टि से भी इस औषधि की गरिमा बढ जाती है। इसके मोते पत्ते के छिलके में कडुआपन होता है किन्तु भीतर के गूदे का स्वाद मीठा है।
अमेरिका में घृतकुमारी को एलोविरा के नाम से जाना जाता है। इसके द्वारा निर्मित शैम्पू बडा ही लोकप्रिय बनता जा रहा है। ब्रिटिश पफार्मोकोपिया ने तीन प्रकार के एलुवा को अंगीकार किया है। जो घृतकुमारी के रस से एक विशेष प्रकार का तत्व निकालता है। इनको कुराकाओं, सकोतरी और अन्तरीपीय एलुआ के नाम से जाना जाता है। कुमारी के रस को प्राप्त करने हेतु उसके पत्तों को काट कर एक मिट्टी के घडे में बंद करें। घडें में छोटे-छोटे छिद्र बनायें। चौडे मुख वाले पात्रा में घडे में रखें। लकडी के माध्यम से भीतर पत्तों को हिलाने पर रस बाहर आ जाता है। एलुवा की असलियत को समझने के लिए छने हुए विलियन २० मि.ली. में २ ग्राम सुहागा की मात्रा मिला दें, दोनों को घुल जाने तक गरम करते रहें किसी पात्रा के जल में इसकी कुछ बूंदे डालें यदि उसमें हरे रंग का फन दिखने लगे तो एलुवा असली माना जायेगा।
रक्तवर्धक, पित्तदारक और पाचकता के गुण विद्यमान होने से घृतकुमारी यकृत-प्लीहा में विशेष लाभ पहुँचाती है। पित्ताशय की सहज स्वाभाविक क्रिया में किसी भी तरह का व्यवधान उत्पन्न होने पर पित्त रस आँत में न पहुँचकर रक्त में चला जाता है। जिससे कामला (जॉण्डिस) रोग पैदा हो जाता है। घृतकुमारी का कार्य पित्ताशय की क्रिया को सुसंचालित रखने का होता है। तभी तो इसे ’कुमारी रौद्ररूपाणाम् कामलानाम् विनाशिनी‘ कहकर पुकारा जाता रहा है। कोष्ठब(ता के कारण विजातीय तत्वों का संग्रह होने लगता है। जिससे प्लीहोदर नामक उदर रोग उभर कर आता है। घृतकुमारी के रस में हरिद्राचूर्ण मिलाकर सेवन करने से प्लीहोदर रोग मिट जाता है। इस रोग में श्वेत रक्त कण बढते हैं और लाल रक्त कण घटने से शरीर में रक्तहीनता आने लगती है। कुमारी तुरंत ही रक्त में वृद्वि कर देती है।
नीम गिलोय के साथ घृतकुमारी का सेवन निरंतर करते रहने से वृद्वावस्था में भी युवाओं जैसी स्फर्ति बनी रहती है। दोनों को पीसकर पानी में मिलाकर लेने से इन्दि्रयों में शिथिलता नहीं आती है। पाचकाग्नि के बिगड जाने से भी विकार ग्रसित होने लगती है। कुमारी का रस इसमें बडा ही गुणकारी सिद्व होता है। वात पित्त कपफ के शमनार्थ एलुआ को शंखभस्म में मिलाकर लिया जा सकता है। जब आमाशय में हाइड्रोक्लारिक एसिड की मात्राा अधिक स्रवित हो उठती है तो शंखभस्म की क्षारीय प्रकशित तुरंत शांत कर देती है इस प्रकार बढी हुई अम्लता समाप्त हो जाती है और अम्लपित्त और आमाशय शोथ का उपचार होता है। इस सम्मिश्रण की १-१ ग्राम मात्रा दिन में तीन बार लेने से प्रारम्भ में मल पतला हो सकता है इसकी चिंता न करें कुछ कम मात्राा में सेवन करते रहें। यह चर्म रोग और रक्त विकार में लाभकारी सिद्व होता है।
मधुमेह के रोगियों को घृतकुमारी के रस का सेवन करने से लाभ होता है। शुक्राणुओं की दुर्बलता को मिटाता है। स्त्रियों के रोगों में तो यह रामबाण की तरह सफल होता है। एलुवा में उष्णता होने से गर्भाशय में शूल, अनियमित मासिक स्राव और अतिस्राव के विकारों को दूर करता है। बंग भस्म और शिलाजीत का संयोग पाकर तो कुमारी श्वेत प्रदर में भी गुणकारी साबित होती है।
रोगोपचार के अन्तर्गत रसौषधियों की अपनी विशिष्टता होती है। जिनमें अनेकों तरह की जडी-बूटियाँ काम आती है। घृतकुमारी उन सभी वनौषधियों में अपनी अलग उपयोगिता रखती है। पारद तथ अन्यान्य कई प्रकार की धातुओं के शोधन, संस्कार, मारण आदि में कुमारी की भूमिका सर्वोपरि मानी गयी है। चित्राक आदि के कषाय के साथ कुमारिका का मर्दन करने से पारद के सप्तमलों का परिषोधन हो जाता है। स्वर्णभस्म बनाने के लिए २ ग्राम स्वर्ण की मात्रा को कुमारी स्वरस में घोंटकर पतली टिकिया बना लें और ६० ग्राम निर्मली बीज चूर्ण बनाकर उक्त टिकिया बना कर सुखा लें इसके पश्चात तीन बार लघु पुट देने से स्वर्णभस्म बन कर तैयार हो जाती है। इसी तरह रजत, ताम्र, बंग, त्रिावंग, पित्तल, प्रवाल, लौह, मण्डूर, जहरमोहरा खताई, अकीक, संगजराहतु तथा कूर्मास्थि आदि भस्मों को तैयार किया जा सकता है।
यूनानी चिकित्सा में कुमारी कृमि नाशक, रक्तशोधक और सूजन के स्थान पर इसका लेप बडा ही लाभकारी होता है। बबासीर को मिटाने के लिए गन्धना नामक वनस्पति के काढे में कुमारी के एलुवे को मिलाकर और उसमें साँप की केंचुली को डालकर लेप बनायें और उसके मस्सों पर लगाने से रोगमुक्ति का लाभ मिलता है। आज की चिकित्सा प(ति में एन्थ्रासीन श्रेणी की रेचक औषधियों के अन्तर्गत एलुवा प्रधान है। इसमें मरोड का दोष अवश्य उत्पन्न हो सकता है। लेकिन इसका प्रयोग एक्सट्रैक्ट बेलाडोना अथवा हायोसायमस के साथ में मिलाकर लेने से यह दोष भी नहीं रहता है। बच्चों के नाभि चक्र पर अरण्ड तेल के साथ कुमारी का मर्दन करने से कब्ज की शिकायत दूर होती है। घश्तकुमारी का गूदा व्रणों (ट्यूमर) के घावों को भरने में महाऔषधि का काम करता है। चिकित्सकों के मतानुसार विकिरण के कारण असाध्य घावों को कुमारी अपने ही देश में नहीं बल्कि अमेरिकादि में भी उपयोगी साबित हो रही है। इस औषधि में एलोहन आदि रसायनों का समिश्रण होता है ये सभी घटक और एन्जाइम्स घावों को जल्दी भरने में सहायक होते हैं। कुमारी में पाया जाने वाला क्राइसोपफोनिक अम्ल कृमिनाशक है। डा. ईथर पफोर्ड के अनुसार कुमारी के एलुवे का प्रभाव स्त्रियों के गर्भाशय में ’पेल्विक सरक्यूलेशन‘ पर पडता है जिससे उनको मासिक धर्म नियमित होने और अन्यान्य प्रकार के गुप्त रोगों से मुक्ति मिलती है।
शरीर के किसी भाग में गांठ बन जाती है तो कुमारीमज्जा पर हरिद्रा और रसौत पीसकर गरम-गरम बांधने से ग्रन्थि बैठ जाती है। कुत्ते के काटने के घाव पर घृतकुमारी के साथ सेंधा नमक ५ दिन तक बांधने से घाव मिट जाता है। नेत्रों की पीडा में कुमारी का गूदा ११ ग्राम में २२० मि.ग्रा. अपफीम मिलाकर एक पोटली से आँखों पर लगाते रहें। एक-दो बूंद नेत्रों में भी डाली जा सकती है। हरिद्राचूर्ण को मज्जे ;गूदाद्ध में मिलाकर गरम करके पैर के तलवों पर बांधने से भी आँखों का दुखना बंद हो जाता है। कुमारिका रस में थोडी सी मात्राा घी की मिलाकर नस्य लेने से कामला रोग भागता है। कान दर्द की स्थिति में स्वरस को ही गरम करके डालने से लाभ होता है। नस-नाडयों की पीडा होने पर पर कुमारिक स्वरस में मेंथी के बीजों की टिकिया बनाकर बांधने से लाभ मिलता है। ईंट-पत्थर की रगड से दर्द वाले स्थान पर कुमारी स्वरस की पट्टी बांधने पर पीडा हट जाती है। चोट लगने पर मज्जा के साथ सज्जीक्षार, हरिद्रा केसर और अपफीम को पीसकर लगाने से चोट का दर्द दूर हो जाता है।
वातशूल होने पर दारूहरिद्रा को ऊपर से छिडकर कुमारी पत्रा को गरम करके बांध दें। चर्मकील में ताजा कुमारी स्वरस में तेल की मात्राा मिलाकर बांधने से लाभ होता है। शोथ में कुमारिका मज्जा आम्रहरिद्रा और श्वेतजीरक को पीस कर लेप कर लें। अग्नि दग्ध के कारण जब कोई घाव होता है तो कुमारी स्वरस में मक्खन मिला कर लगाने से लाभ होता है। घाव की सामान्य अवस्था में पत्ते को छीलकर उसमें हरिद्रा चूर्ण डालकर गरम करके हृदय के ऊपर सिकाई करें। यदि कोई घाव पकने की स्थिति में है तो कुमारी मज्जा के साथ सज्जीक्षार और हरिद्रा रखकर बांध दें। कुमारी मज्जा पर थोडी सी मात्रा गेरू की बुरकने से रक्तस्राव रूकता और पीडा नहीं रहती है। सिर में दर्द होने पर इसके गूदे में दारूहल्दी का चूर्ण मिलाकर गरम करके दर्द वाले स्थान पर कपडे की गाँठ के माध्यम से लगाने पर दर्द बंद हो जाता है। कुमारी की जड को कुचल कर गर्म पानी में पीस लें थोडी सी हल्दी मिलाकर दिन में २-३ बार लगाने से स्तनों का दर्द बंद हो जाता है। कई बार शरीर में रसों की कमी होने पर नाखून मोटे होने लगते हैं और पैरों के नीचे सूजर आ जाती है। कुमारिकामज्जा के कल्क में कच्ची पिफटकरी मिलाकर मर्दन करने से अपरस का उपचार होता है।
नपुसंकता भीतर का रोग है जिसकी वजह से व्यक्ति को संतान सुख से वंचित रहना पडता है। घृतकुमारी की जड के ऊपर के छिलके को निकल डालें और अन्दर के मज्जा को धूप म सुखाकर उसका चूर्ण बना लें प्रतिदिन ३ ग्राम की मात्रा में प्रातः सेवन करते रहें। तेल, गुड, मिर्च, खटाई आदि से बचें। कुछ ही दिनों में नपुसंकता नहीं रहेगी। दुर्बल और दूषित गर्भाशय को पुष्ट और शुद्व करने में कुमारी बडी ही गुणकारी सिद्व हुई है। कई आयुर्वेदिक पफार्मेसी तो घृतकुमार इन्जैक्शन भी निर्माण कर चुकी हैं जो उदर विकार और स्त्रिायों के रोगों के उपचार में बडा ही सफल-सार्थक सिद्ध हुआ है।
नोटःइस पोस्ट की चर्चा दिनांक 8.11.2010 के चिट्ठाचर्चा ब्लॉग पर की गई है जिसका लिंक यहां है।
घृतकुमारी ka pauda hota kaisa hai, ye bataiye
जवाब देंहटाएंबढिया बात
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी ... आचा लगा आपके ब्लॉग पर आ कर ....
जवाब देंहटाएंBahut achhi jankari..... aabhar
जवाब देंहटाएंReally A nice Blog and its news
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