बुधवार, 3 नवंबर 2010

मुस्कान बांटते फरिश्ते

कोई किसी को सबसे अच्छा उपहार क्या दे सकता है? पैसा? लक्जरी आइटम? नौकरी? घर? सोना? चांदी? हीरे-जवाहरात? कार? ट्रैवल ट्रिप? या कुछ और? ज्यादातर लोग इन्हीं सब चीजों को बेहतरीन उपहार मानते-समझते हैं। ज्यादातर लोग। वे लोग, जिनके लिए जिंदगी के मायने ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं जुटाना, ज्यादा वैभव के साथ रहना-जीना और दूसरों के सामने सिर ऊंचा करके चलना है। लेकिन इन सब चीजों में लेन-देन का समीकरण जुड़ा होता है। आपको किसी ने किसी मौके पर हल्का उपहार दिया। आपकी प्रतिक्रिया होगी, 'ये अपनी आदत से बाज नहीं आता। पर मेरा भी क्या जाता है? मैं भी इसे सस्ते में कटा दूंगा।' आपको किसी ने महंगा उपहार दिया। आपकी प्रतिक्रिया होगी, 'बहुत टाटा-अंबानी बना फिरता है। मुझे भी अब ऐसा ही कुछ इसे देना होगा। मेरी जेब पर तो बोझ डाल दिया ना!' यानी हम ना कम पाकर खुश होते हैं, ना ही ज्यादा पाकर। हमारे मन में हमेशा एक असंतोष जमा रहता है, जो मौका मिलते ही पिघलकर बहने लगता है। और इसका कोई समय या सीमा नहीं होती। ऐसा कभी भी हो जाता है। इससे हमारे मन में कई भाव आते हैं। मस्तिष्क में कई रासायनिक क्रियाएं होती हैं। और कुल मिलाकर, हमें जो भी मिल जाये, हम परेशान, उद्वेलित, आक्रोशित, हताश और निराश ही रहते हैं। ऐसा क्यों होता है?- इसकी वजह है हमारे मन की अशांति। दर्प और अहंकार। इनफिरिअरिटी व सुपीरियरिटी कॉम्प्लेक्स। आज अगर किन्हीं 10 लोगों का सर्वे कराया जाये, तो उनमें से 8-9 या शायद सभी 10 लोग इन सभी या इनमें से कुछ के शिकार होते हैं। क्यों?- क्योंकि हमारा अंतर्मन शांत नहीं रहता। क्योंकि हमारा अंतर्मन खुश नहीं रहता। क्योंकि हमारा अवचेतन परेशान रहता है। क्योंकि हम हंसते-खिलखिलाते नहीं। क्योंकि हम मुस्कुराते नहीं। जी हां, ब्रिटिश वैज्ञानिकों के एक सर्वे के अनुसार, मुस्कान सबसे बड़ा निदान है। हीलिंग है। ऊर्जा का स्रोत है। सकारात्मक तरंगों का उद्गम है। इसलिए शायद सबसे मूल्यवान चीज है। लेकिन मिलती मुफ्त है। इसलिए मुस्कान से बेहतर उपहार दुनिया में कुछ नहीं हो सकता। इसे देने वाले का कुछ नहीं जाता, लेने वाले को बहुत आता है। खुशी देने वाले को भी मिलती है, लेने वाले को भी। और जो मुस्कान बांटने को अपना मिशन बना ले, उससे ज्यादा खुश इनसान भला कौन होगा? लोग तो उसे फरिश्ता ही मानने लगेंगे। आज की भागती-दौड़ती, मतलबी, असहिष्णु और हर चीज से असंतुष्ट दुनिया में ऐसे लोगों को फरिश्ता ही तो कहा जायेगा। ऐसा ही एक फरिश्ता है विनोद श्रीधर। 30 साल का विनोद मुंबई के बाशिंदों को मुस्कान बांटता है। उसका तरीका जरा अजब है। उससे पहली बार मिलने वाले पहले अचकचाते हैं, फिर खिलखिलाते हैं और उससे विदा लेते समय ठहाके लगाते हैं। विनोद कहते हैं कि वे अचानक अजनबियों से बात करने लगते हैं। वैसे वे एक कंपनी में इकॉलजी अवेयरनेस का काम करते हैं। यह काम करने के बाद वे अपना सारा समय दूसरों को मुस्कान बांटने में लगाते हैं। कभी सड़क पर अनजान लोगों को चॉकलेट या आइसक्रीम खिलाते हैं। कभी अपना पुराना लैपटॉप अपने नौकर के बच्चों को पढ़ाई के लिए दे देते हैं। कभी नेत्रहीनों को सड़क पार कराते हैं। कभी भूखों को खाना खिलाते हैं। कभी प्यासों को पानी की बोतल थमा देते हैं। और अपने इन सब कामों को रेंडम ऐक्ट्स ऑफ काइंडनेस (आरएओके) का नाम देते हैं। आरएओके एक अंतरराष्ट्रीय अभियान है। इसमें किसी के लिए कुछ अच्छा काम किया जाता है और उसे एक स्माइल कार्ड दिया जाता है। इस कार्ड में उससे किसी और तक प्यार, स्नेह, दया या सहानुभूति का संदेश देखने का अनुरोध किया जाता है। विनोद को यह आइडिया 'सुपर संडेज' ग्रुप से मिला। यह ग्रुप हर संडे को मिलता था। इसके सदस्य दूसरों की तरह मूवी या पिकनिक नहीं जाते थे। अजनबियों को स्माइल कार्ड बांटते थे। विनोद की उनसे मुलाकात हुई, तो खुद वे भी इसी राह पर चल पड़े। अब उनके पास 100 स्माइल कार्ड्स का एक सेट है। यह उन्हें एक वेबसाइट से मिला है। वे अजनबियों को ये कार्ड देकर उनसे कार्ड दूसरों को देने की गुजारिश करते हैं। इस तरह ये कार्ड आगे बढ़ते चले जाते हैं। मजेदार बात ये है कि दूसरों को दिये 20 कार्ड पिछले एक साल में विनोद को ही वापस मिल गये। यानी उन्हें कुछ अजनबियों ने लौटाये, जो खुद उन्हें भी अजनबियों से मिले थे और शायद उन अजनबियों को विनोद से। इस तरह मुस्कानों का एक सिलसिला शुरू हुआ। गोल दुनिया की तरह, यह सिलसिला भी गोल हो गया और लोगों की निराशा-हताशा को गोल करने लगा। विनोद का कहना है, 'अगर मैं किसी को मुस्कान देता हूं और वह खुश होता है, तो उससे ज्यादा खुशी मुझे मिलती है। इस तरह हम अपने आसपास बिना कुछ खास काम किये बहुत सहजता से खुशियां बांट सकते हैं, बढ़ा सकते हैं। आज के मुश्किल वक्त में इससे बड़ा उपहार भला क्या हो सकता है?' ... और विनोद श्रीधर मुंबई में अकेले नहीं हैं मुस्कान बांटने वाले। मिठीबाई कॉलेज और एन.एम. कॉलेज के विद्यार्थी संडे को वृद्धाश्रमों में जाकर अपने घरों से त्यागे गये बूढ़ों को अपनेपन की सौगात दे आते हैं। निर्मला निकेतन और एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय की छात्राएं फुटपाथों के अनाथ बच्चों को खुशियां बांटती हैं। आईआईटी के स्टूडेंट्स आदिवासी गांवों के लिए बिजली बनाने के तरीके ईजाद कर रहे हैं। एक अंकल लोकल ट्रेन के मुसाफिरों के लिए अपने बैग में रखकर 10 बोतल पानी लाते हैं। जो भी प्यासा दिखता है, उसे पानी पिलाते हैं। ब्लाइंड स्टूडेंट्स के लिए एग्जाम में पेपर लिखने के लिए वॉलिंटियर्स ढूंढने नहीं पड़ते। जब भी, जहां भी कोई ब्लड डोनेशन कैंप लगता है तो ब्लड डोनेट करने वालों की लाइन लग जाती है। इसीलिए तमाम भागमभाग, तनाव, दबाव, हताशा, निराशा, अवसाद और कुंठा के बावजूद मुंबईकर 'बिंदास' रहते हैं। एक मुस्कान उनकी बहुत सी परेशानियों को जो हर लेती है। और मुस्कान बांटने वाले फरिश्ते यहां मिल जाते हैं। ये फरिश्ते मुस्कानें बांटते हैं और मुस्कानें खुशियां बांटती हैं! (भुवेंद्र त्यागी,नवभारत टाइम्स,मुंबई,28.9.2010)

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