यह सवाल लंबे समय से उठता रहा है कि भारत में एड्स सबसे बड़ी समस्या नहीं है । यहां स्वास्थ्य संबंधी ऐसे कई दूसरे संकट हैं जिस वजह से एड्स से कई गुना अधिक मौतें हो रही हैं । एड्स से पहले प्रसव के दौरान माताओं और शिशुओं की हो रही मौतों जैसी दूसरी अन्य समस्याओं का निदान होना चाहिए । एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहली बार यह स्वीकार किया गया है कि भारत में एड्स के पहले मातृ शिशु मौत को रोकने का अभियान जरूरी था, जो नहीं किया गया ।
दिल्ली में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ मिल कर आयोजित ३५० संगठनों की शीर्ष संस्था पार्टनरशिप फॉर मेटरनल, न्यूबॉर्न एंड चाइल्ड हेल्थ (पीएमएनसीएच) के मंच से कई विशेषज्ञों ने यह स्वीकार किया है कि एड्स को बहुत ज्यादा महत्व मिल गया जबकि मिलना चाहिए था मातृ व शिशु मृत्यु दरों में कमी करने के अभियान को । इस अंतरराष्ट्रीय मंच में विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे कई ऐसे संगठन शामिल हैं जो अब तक एड्स का हौवा खड़ा करते रहे हैं । भारत में हर साल १३६००० महिलाएं बच्चे को जन्म देते वक्त उन कारणों से मर जाती हैं जिन्हें आसानी से दूर किया जा सकता है ।
हावर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के डॉ. जुलियो फ्रेंक ने कहा है कि भारत में एड्स पर बेहिसाब पैसा खर्च किया गया लेकिन मातृ शिशु की मौत की समस्या की उपेक्षा की गई । केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव सुजाता राव ने भी उनकी हां में हां मिलाया ।
मजे की बात है कि इसके पहले जब सुजाता राव कई साल तक नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (नाको) की महानिदेशक थीं तो उन्हें एड्स के सिवा और कोई दूसरा रोग महत्वपूर्ण लगता ही नहीं था ।
समझा जाता है कि एड्स के नाम पर अकूत चंदा जुटाया गया और उसकी बंदरबांट भी हुई । इन संगठनों की नींद तब टूटी है जब मां-शिशु की मौत को कम करने के तय मिलेनियम लक्ष्य को पूरा करने में मात्र पांच साल रह गए हैं । २०१५ तक बच्चे के जन्म में माताओं की मौतों की संख्या सौ से नीचे लाने का लक्ष्य है । यह पूरा होना बेहद कठिन लग रहा है। अभी भारत में बच्चा जनने के समय प्रति १००० में २३० महिलाओं की मौत हो रही है (धनंजय,नई दुनिया,दिल्ली,18.11.2010)।
चिकित्सा के क्षेत्र में लाइफ-सेविंग उपकरणों तथा सेवाओं की बेहद आवश्यकता है।
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