केंद्र सरकार प्रचार माध्यमों के दबाव में आकर ‘एड्स’ के भूत का पीछा कर रही है, जबकि अन्य कई रोग एड्स से अधिक खतरनाक हैं और तेजी से फैल रहे हैं। घेघा या गॉयटर ऐसा ही एक रोग है। इसके शिकार रोगी के गले में थैली की तरह मांस का लोथड़ा लटक आता है। गरीबी, कुपोषण और प्रकृति से हो रही छेड़छाड़ से उपजे इस रोग के प्रति जागरूकता पैदा करने के नाम पर सरकारी तंत्र महज आयोडीन युक्त नमक का प्रचार कर जाने-अनजाने नमक बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों की झंडाबरदारी कर रहा है।
शुरुआती दिनों में हिमाचल, हिमालय की तराई, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, मणिपुर और नगालैंड को ही घेघाग्रस्त इलाका माना जाता था। लेकिन अब मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और राजधानी दिल्ली में भी घेघा रोगियों की संख्या अप्रत्याशित ढंग से बढ़ रही है। अनुमानतः देश में पांच करोड़ 40 लाख से अधिक लोग गॉयटर के शिकार हैं।
इस रोग का एक मूल कारण बेशक शरीर में आयोडीन की कमी होना है। शरीर के लिए अत्यावश्यक हारमोन्स ‘थायरोक्सीन’ के निर्माण में आयोडीन की जरूरत होती है। ‘थायरोक्सीन’ का स्राव थायराइड ग्रंथि से होता है। यह गं्रथि श्वास नली की बाहरी सतह पर चिपकी होती है। गुलाबी रंग की इस ग्रंथि में एक लसदार तरल होता है। इसी में आयोडीन युक्त थायरोक्सीन होता है। यह रक्तचाप, जल, खनिज लवणों की मात्रा आदि का सामंजस्य बनाए रखता है। जनन अंगों के विकास और वृद्धि में भी यह सहायक होता है। शरीर को प्रतिदिन लगभग 200 माइक्रो ग्राम आयोडीन की जरूरत होती है, जिसका तीन-चौथाई भाग थायराइड में थायरोक्सीन निर्माण में खर्च हो जाता है।
जब शरीर को लगातार आयोडीन नहीं मिलता, तो थायरोक्सीन का निर्माण रुक जाता है। नतीजतन थायराइड ग्रंथि में वृद्धि होने लगती है। शरीर में अनावश्यक उत्तेजना, थकावट, चिड़चिड़ापन, घबराहट, अधिक पसीना, आंखें लाल व बड़ी होना, गरदन में सूजन इसके प्रारंभिक लक्षण हैं। हर रोज मात्र सूई की नोक के बराबर यानी 150 माइक्रोग्राम आयोडीन हमारे लिए पर्याप्त है। कुछ खाद्य पदार्थ भी आयोडीन की क्रियाशीलता को कम कर देते हैं। मसलन, फूलगोभी, पत्तागोभी, शलजम, सरसों, मूंगफली और सोयाबीन केअधिक सेवन से गॉयटर की आशंका हो जाती है। डेयरी के दूध में प्रिजरवेटिव के रूप में प्रयुक्त थायोसाइनेट्स केअधिक सेवन से भी घेघा हो जाता है। कुछ साल पहले दिल्ली में स्कूली बच्चों के बीच किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला था कि साधारण स्कूलों की अपेक्षा अमीर स्कूल के बच्चों में घेघा रोग के लक्षण थे। फास्ट फूड में ऐसे प्रिजरवेटिव्स का उपयोग बढ़ गया है। पानी की कठोरता भी घेघा का कारण हो सकती है।
विभिन्न सर्वेक्षणों के नतीजे बताते हैं कि जहां घेघा रोग नहीं था और लोग आयोडीन युक्त नमक का इस्तेमाल कर रहे थे, वहां भी इस रोग में 35 फीसदी बढ़ोतरी हो गई। पिछले दो दशकों से लगातार आयोडीन वाला नमक के इस्तेमाल के बावजूद हिमाचल में घेघा रोगियों की संख्या 20.5 फीसदी बढ़कर 34.5 प्रतिशत, पंजाब में 9.5 फीसदी से 45.8 फीसदी, चंडीगढ़ में 11.2 प्रतिशत से बढ़कर 45.9 प्रतिशत और बिहार में 40.3 प्रतिशत से बढ़कर 64.5 प्रतिशत हो गई। अव्वल तो ऐसे नमक में आयोडीन की मात्रा का प्रभाव दो महीने से अधिक नहीं होता, फिर साधारण स्थिति में इसका अतिरिक्त इस्तेमाल नुकसानदेह है।
आयोडीन नमक के प्रचलन का एक दूसरा स्याह पक्ष भी है। इस महंगे नमक कानून के कारण 12 लाख कामगार बेरोजगार हो गए हैं। पहले नमक छोटे व्यापारियों के जरिये आम लोगों तक पहुंचता था, पर इस कड़ी के टूटने से छोटे व्यापारियों और मजदूरों पर संकट आ गया है।
देश में नमक की सालाना खपत लगभग डेढ़ करोड़ टन है। इनमें से केवल 40 लाख टन ही खाद्य पदार्थ के रूप में होता है। शेष नमक का इस्तेमाल मछलियों आदि के संरक्षण, चमड़ा पकाने और अन्य औद्योगिक काम में होता है। लेकिन इन कामों में लगी कंपनियों को भी पचास पैसे किलो वाला नमक मजबूरी में छह रुपये की दर से खरीदना पड़ता है। जाहिर है कि इस समूचे तमाशे के पीछे कुछ नमक उत्पादक कंपनियों के हितों का ध्यान रखा गया है(पंकज चतुर्वेदी,अमर उजाला,16.11.2010)।
निसंदेह यही दृष्टिकोण काम कर रहा है।
जवाब देंहटाएंAapke is post se kai paksh saaamne aaye....jinki jankari nahin thi
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