एक ऋषि जंगल में अपने शिष्यों के साथ रहते थे। उनके रहने के लिए झोपडि़यां बनी थीं। उन्हीं झोपडि़यों के बीच में झाड़-फूस का एक कक्ष भी था। पूरा माहौल देखकर लगता था मानो वह जगह कोई विद्यापीठ हो। राजा को जब ऋषि के इस विद्यापीठ के बारे में पता लगा तो उसके मन में उस स्थान को देखने की उत्सुकता जागी। एक दिन वह जंगल जा पहुंचा।
ऋषि ने राजा का स्वागत किया और जैसी कि राजा की इच्छा थी उसे वहां घुमाना शुरू किया। वह राजा को एक-एक झोपड़ी के पास ले गए और बताने लगे कि उनके शिष्य कहां रहते हैं। कहां स्नान करते हैं, कहां खाना खाते हैं। लेकिन राजा की उत्सुकता तो उन झोपडि़यों के बीच अलग से दिखाई देने वाले कक्ष में थी।
राजा ने ऋषि से कई बार पूछा कि वह इस कक्ष में क्या करते हैं, लेकिन ऋषि ने एक बार भी उसके बारे में कुछ नहीं कहा। आखिरकार राजा झुंझला गया। उसने जोर से कहा, 'आपने मुझे हर जगह घुमाया। हरेक स्थान के बारे में बताया पर इस कक्ष को न तो आपने दिखाया और न ही मेरे बार-बार पूछने पर भी यह बताया कि आप और आपके शिष्य इसमें क्या करते हैं?' ऋषि बोले, 'राजन हम इस कक्ष में कुछ नहीं करते हैं? हम यहां मात्र ध्यान में जाते हैं। ध्यान कुछ करना नहीं है। अगर मैं आपके पूछने पर यह उत्तर दूं कि हम यहां ध्यान करते हैं तो यह गलत होगा। क्योंकि ध्यान कोई क्रिया नहीं हैं। इसलिए जब भी आपने इस कक्ष के बारे में पूछा मुझे चुप रहना पड़ा। ध्यान तो वह स्थिति है जब ध्यानी कुछ भी नहीं करता। उसका शरीर भी शांत होता है और मन भी।' राजा ध्यान का अर्थ समझ गया।
(संकलन: लखविन्दर सिंह,नवभारत टाइम्स,दिल्ली,11.11.2010)
सुन्दर प्रस्तुति .
जवाब देंहटाएंसुन्दर बोध कथा। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंप्रेरणादायक प्रस्तुति. आभार
जवाब देंहटाएंसादर,
डोरोथी.
परम शांति महा शांति। इसी की खोज में तो सारा संसार है।
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