शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

डेंगू के डंक को ज़हरीला बनाती दवाएँ

इस साल राजधानी दिल्ली व उसके आसपास जम कर बरसे बादल। कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारी के चलते दिल्ली और उसके आसपास जम कर जल-भराव भी खूब हुआ। जाहिर है कि यह मच्छरों के लिए माकूल माहौल भी था- ठहरा हुआ साफ पानी, बारिश के बाद अचानक नमी-भरी गर्मी और घनी आबादी। डेंगू का असर दिखना शुरू हो गया है। दिल्ली और करीबी इलाकों में औसतन हर रोज दो मौतें डेंगू के कारण हो रही हैं। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले ही चेता चुका था कि इस साल दिल्ली में डेंगू महामारी बन सकता है। स्थानीय प्रशासन विभाग इंतजार कर रहा है कि कुछ ठंड पड़े तो समस्या अपने आप खत्म हो जाएगी। अखबारों व विभिन्न प्रचार माध्यम भले ही खूब विज्ञापन दिखा रहे हों, लेकिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के हर शहर-गांव, कॉलोनी में डेंगू के मरीजों की बाढ़ अस्पतालों की ओर आ रही है। गाजियाबाद जैसे जिलों के अस्पताल तो बुखार-पीड़ितों से पटे पड़े हैं। अब तो इतना खौफ है कि साधारण बुखार का मरीज भी बीस-पच्चीस हजार रुपए दिए बगैर अस्पताल से बाहर नहीं आता है। डॉक्टर जो दवाएं दे रहे हैं उनका असर भगवान-भरोसे है। डेंगू के मच्छरों से निबटने के लिए दी जा रही दवाएं उलटे उन मच्छरों को ताकतवर बना रही हैं।
डेंगू फैलाने वाले "एडिस" मच्छर सन १९५३ में अफ्रीका से भारत आए थे। उस समय कोई साढ़े सात करोड़ लोगों को मलेरिया वाला डेंगू हुआ था, जिससे हजारों मौतें हुई थीं। अफ्रीका में इस बुखार को डेंगी कहते हैं। हर साल करोड़ों रुपए के डीडीटी, बीएचसी, गेमैक्सिन, वीटेकस और वेटनोवेट पाउडर का छिड़काव हर मुहल्ले में हो रहा है, ताकि डेगू फैलाने वाले मच्छर न पनप सकें लेकिन मच्छर इन दवाओं को खा-खा कर और अधिक खतरनाक हो चुके हैं। यदि किसी कीट को एक ही दवा लगातार दी जाए तो वह कुछ ही दिनों में स्वयं को उसके अनुरूप ढाल लेता है। भले ही देश के मच्छरों ने अपनी खुराक बदल दी हो लेकिन अभी भी हमारा स्वास्थ्य -तंत्र " क्लोरिन" पर ही निर्भर है। हालांकि यह नए किस्म के मलेरिया यानी डेंगू पर पूरी तरह अप्रभावी है। डेंगू के इलाज में "प्राइमाक्वीन" कुछ हद तक सटीक है लेकिन इसका इस्तेमाल तभी संभव है, जब रोगी के शरीर में "जी-६ पी.डी." नामक एंजाइम की कमी न हो। यह दवा रोगी के यकृत में मौजूद परजीवियों का सफाया कर देती है। इसके अलावा "क्वीनाइन" नामक एक महंगी दवा भी उपलब्ध है, लेकिन इसकी कीमत आम मरीज की पहुंच के बाहर है। कुल मिला कर मच्छर और उससे फैल रहे रोगों से निबटने की सरकारी रणनीति ही दोषपूर्ण है। हम मच्छर को पनपने दे रहे हैं, फिर उसे मारने के लिए दवा तलाश रहे हैं जबकि जरूरत है मच्छरों की पैदावार रोकना(पंकज चतुर्वेदी,नई दुनिया,12.11.2010)।

2 टिप्‍पणियां:

  1. ऐसे ही नहीं गाया है महान नाना नाना पाटेकर ने साला एक मच्छर आदमी को .... बना देता है। पर एक बात है कि अगर कोई सवाल है तो उसका हल भी होगा ही। आखिर कहीं तो होगा इन मच्छरों को काबू में करने का उपाय। हो सकता है उपाय हो बस हम उस तक पहुंच नहीं पा रहे हों।

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  2. Dengue ke ilaaj mein Primaquine ka koi asar nahin hota. Primaquine malaria ke lie jimmedar keval Protozoa ( Plasmodium falsiparum ) ki kuchh stages mein hi prabhavi hai. Dengue to ek viral disease hai.

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