दुनिया में लाखों नि:संतान दंपतियों के जीवन में खुशियों का संचार करने वाले 81 वर्षीय ब्रिटिश बायोलॉजिस्ट एबर्ट एडवर्ड्स को आखिरकार नोबेल का सम्मान मिल गया है, जिससे उन्हें वर्षों तक वंचित रखा गया था। एडवर्ड्स और उनके सहयोगी स्व. पैट्रिक स्टेपटो द्वारा विकसित इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) तकनीक से 32 वर्ष पहले 25 जुलाई 1978 को लूसी ब्राउन का जन्म हुआ था। प्रजनन चिकित्सा केक्षेत्र में यह बहुत बड़ी क्रांति थी, लेकिन लोगों को इस बात पर बहुत बड़ा आश्चर्य था कि इतनी बड़ी सफलता के बावजूद दुनिया को उन्हें सम्मानित करने में इतना वक्त क्यों लगा? कुछ लोगों को शक है कि वेटिकन इस तकनीक का विरोध कर रहा था, क्योंकि उसकी नजर में यह तकनीक गर्भधारण की कुदरती प्रक्रिया के खिलाफ थी। शुरू में अनेक मजहबी समूहों और संगठनों ने भी आईवीएफ तकनीक की नैतिकता को लेकर सवाल खड़े किए। ब्रिटेन की मेडिकल रिसर्च काउंसिल ने एडवर्ड्स और स्टेपटो के प्रयोगों को धन देने से इनकार कर दिया था। इस वजह से दोनों वैज्ञानिकों को अपना काम जारी रखने के लिए प्राइवेट ग्रांट का सहारा लेना पड़ा। बाद में अनेक संगठनों ने अपने रवैये में परिवर्तन किया, लेकिन कैथोलिक आईवीएफ तकनीक का विरोधी बना रहा। पोनटीफिकल एकेडमी फॉर लाइफ के प्रमुख इग्नेशियो करास्को डि पॉला ने आईवीएफ रिसर्च की यह कहकर आलोचना की कि इससे भ्रूणों को नष्ट करने और मानव अंडाणुओं का व्यावसायिक बाजार खोलने का रास्ता सुगम हुआ है। उनका यह भी कहना है कि यह रिसर्च बांझपन की मूल समस्या को हल नहीं करती। एडवर्ड्स ने स्कॉटलैंड में एडिनबरा यूनिवर्सिटी से डाक्टरेट प्राप्त करने के बाद 50 के दशक में आईवीएफ तकनीक पर प्रयोग आरंभ किए थे। इन प्रयोगों से पूर्व कुछ अनुसंधानकर्ता पहले ही दिखा चुके कि खरगोश के अंडाणुओं का परखनली में सफलतापूर्वक निशेचन किया जा सकता है। एडवर्ड्स शुरू में यह मान रहे थे कि मानव अंडाणुओं का मामला कुछ अलग रहेगा। बहरहाल यह बात सामने आई कि मानव अंडाणुओं का जीवन चक्र खरगोश के अंडाणुओं से काफी अलग होता है। अगले 20 वर्षो में एडवर्ड्स ने कई बुनियादी खोजें की और यह स्पष्ट किया कि मानव अंडाणु किस तरह मेच्योर होते हैं और किस तरह विभिन्न हारमोन उनकी परिपक्वता को निर्मित करते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि किन परिस्थितियों में शुक्राणु अंडाणुओं को निशेचित करने में सक्षम हो सकते हैं। 1969 तक उन्हें परखनली में एक अंडाणु निशेचित करने में सफलता मिल गई थी। लेकिन यह निशेचित अंडाणु कोशिका विभाजन की पहली स्टेज से आगे नहीं बढ़ पा रहा था। एडवर्ड्स ने महसूस किया कि अंडाणु को गर्भाशय में कुछ समय और परिपक्व होने की जरूरत है। उन्होंने एक गायनकोलॉजिस्ट पैट्रिक स्टेपटो से संपर्क किया। स्टेपटो लेप्रोस्कोपी के धुरंधरों में से थे। इस तकनीक में अंडाशय को देखने और अंडाणुओं को हिलाने-डुलाने या मैनिपुलेट करने के लिए एक पतली दूरबीन का इस्तेमाल किया जाता है। लंबी रिसर्च के बाद इस वैज्ञानिक जोड़ी ने लेसली ब्राउन पर अपनी नई आईवीएफ तकनीक का परीक्षण किया। लेसली और उनके पति जॉन नौ वर्षो से संतान प्राप्ति की कोशिश कर रहे थे। हारकर उन्होंने एडवर्ड्स केक्लीनिक की शरण ली। इस प्रयोग के उपरांत लूसी का जन्म हुआ और पूरी दुनिया में प्रजनन चिकित्सा के क्षेत्र में एक नए अध्याय की शुरुआत हो गई। लूसी के जन्म के बाद आईवीएफ तकनीक से दुनिया में 40 लाख शिशुओं का जन्म हुआ था। लूसी के जन्म के 67 दिन बाद ही भारत में दूसरा परखनली शिशु पैदा हुआ, लेकिन यह उपलब्धि काफी विवादों में घिरी रही। इंडियन मेडिकल रिसर्च काउंसिल के मुताबिक यह शिशु 3 अक्टूबर 1978 को कोलकाता में पैदा हुआ था, लेकिन डॉ. सुभाष मुखोपाध्याय के प्रयासों को आईवीएफ तकनीक की श्रेणी में नहीं माना गया, क्योंकि इसे वैज्ञानिक तौर पर रिकॉर्ड नहीं किया गया था। भारत के पहले वैध आईवीएफ शिशु का जन्म 6 अगस्त 1986 को हुआ। मुंबई के केईएम हास्पिटल में डॉ. इंदिरा हिंदुजा ने हर्षा चावड़ा के जन्म के लिए आईवीएफ तकनीक का इस्तेमाल किया था(मुकुल व्यास जी का यह आलेख आज दैनिक जागरण में बहुप्रतीक्षित सम्मान शीर्षक से प्रकाशित हुआ है)।
पिछली सदी की सबसे बड़ी उपलब्धि ।
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