शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

बिहारःकांप रहा विज्ञान

बिहार में,औरंगाबाद जिले के महुआधाम एवं मनोरा में भूत, पिशाच व डायन से पीडि़त लोगों की भीड़ उमड़ी हुई है। मुक्ति की लालसा लिये लोग बड़ी दूर-दूर से आये हैं। महिलाओं की संख्या अधिक है। इस भीड़ में वे भी शामिल हैं, जो संतान चाहते हैं, जो मानसिक रोग से ग्रसित हैं। इधर राजधानी पटना से थोड़ी दूर पर स्थित बिहटा के दो गांवों में डायन बताकर दो महिलाओं को पीटा गया है। यह क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? कौन जिम्मेदार है? क्या यही इक्कीसवीं सदी का बिहार है? बात औरंगाबाद और बिहटा की ही नहीं है। शारदीय नवरात्र के साथ प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर भूतों का मेला लगने लगा है। ओझा व तांत्रिक की टोली अपना काम कर रही है। जगह-जगह ओझा जय बजरंग बली, तोड़ दुश्मन की नली, जय जय शिव शंकर कांटा लगे ना कंकर जैसे गीतों के साथ गांजे का कश लगाते व शराब की घूंट भरते दिखते हैं। भूत भगाने के नाम पर महिलाओं के साथ जो कुछ भी किया जाता है, वह मानवता की सारी सीमाएं तोड़ मध्ययुगीन बर्बरता का अहसास कराता है। दर्जनों लोगों का चीखना-चिलाना, झूमना, नाचना, गाना बड़ा भयावह दृश्य पैदा करता है। आस्था और अंधविश्वास के पूर्णतया घालमेल वाले इस खेल के यहां बाकायदा घोषित स्थल हैं। कई स्थानों पर तो सालों भर भूत भगाने का काम होता है। प्रशासन, ऐसे आयोजनों पर बिजली-पानी का प्रबंध करता है। पुलिस, यात्रियों की सुरक्षा को तत्पर रहती है। बिहार, कहां जा रहा है? देखा जाये तो पारलौकिक शक्तियां हमेशा से लोगों को रोमांचित करती रहीं हैं। पश्चिमी देशों में भी नीयर डेथ एक्सपेरिएंस (निकट मृत्यु अनुभव) पर शोध हो रहे हैं। ऐसे अनुभव रखने वालों (एंडीयर्स) की बातें सिरे से खारिज नहीं की जातीं हैं। धर्म एवं जादू की अपनी- अपनी परिभाषा है लेकिन बिहार में यह सब कुछ घोर मध्ययुगीन मानसिकता में जकड़ा हुआ है और इसके प्रत्येक स्तर पर बस बर्बरता है। डायन के नाम पर हत्या व प्रताड़ना का रिकार्ड है। डायन बताकर महिलाओं को मार दिया जाता है, उनसे बलात्कार होता है। उन्हें नंगा घुमाया जाता है। शौच-मूत्र पिलाना तो आम बात है। डायन प्रथा प्रतिषेध विधेयक 1999 में दर्ज रोकथाम की व्यवस्थाएं फाइलों में रह गई हैं। जागरूकता अभियान लापता है। बेशक, हमारा देश ऋषि-मुनियों का रहा है लेकिन कड़वी सच्चाई यह भी है कि इसका बेजा फायदा ढोंगी बाबा लोग उठा रहे हैं। उनके कारनामों से विज्ञान कांप रहा है। सामाजिक शर्म के रूप में स्थापित अंधविश्वास की यह पराकाष्ठा, मानव विकास से ताल्लुक रखे लगभग सब कुछ को खारिज करता है। यह कौन सा तरीका हुआ कि हम एक तरफ मातृ शक्ति की आराधना में लीन हैं और दूसरी तरफ मानव रूप वाली इसी शक्ति को जानलेवा प्रताड़ना दे रहे हैं? कोई रोकेगा यह सब? वह कौन है? कहां है? अभी तक चुप क्यों है? अब किस बात के इंतजार में है?(संपादकीय,दैनिक जागरण,पटना,15.10.2010)

1 टिप्पणी:

  1. baat to chinta karne ki hay...jahan insan apne jiwan ko behatar se behtar banane par tula hay..wahin kuchh logo ki andhbiswas hame sharminda hone par vivas karti hay..kahin na kahin jagrukta ki kami aur kathit babaon ke lalach ne logon ko gumrah karne me aham bhumika nibhayai hay..aaj bhi dayan kah kar hatya karne se nahi chukte hay kuchh andhbiswasi..jo ek samaj ke liye abhishap hay..bhut pret ka kaalpanik drama aane wale samay ke liye kitna ghatak hoga..iska ham agar andaza lagayen to wo dar ek bhut ke dar se zyada hoga..aise bhi baba log ek bhut ko bhagane ka dawa kar sakte hayn..magar ham sabhi samajik log is andhbiswas ko hatane ka dawa bhi nahi kar sakt..ye behad sharm ki baat hay.

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