पहला मतः
भारतीयों की गंदे रहने की आदत का एक बार फिर खुलासा हुआ है। ग्लोबल हाइजीन काउंसिल द्वारा नौ देशों में आठ हजार परिवारों पर रेकिट बेंकिसर की मदद से कराए गए अध्ययन में सऊदी अरब के बाद भारतीय घरों में सबसे ज्यादा गंदगी पाई गई। यह गंदगी सिर्फ कमरों के फर्श, बाथरूम और रसोई में ही नहीं, फ्रिज, कंप्यूटर और बिजली के दूसरे उपकरणों पर भी पाई गई। इससे घरों में खतरनाक कीटाणुओं को पैदा होने का मौका मिलता है। अब यह बात समझ में आ जानी चाहिए कि आखिर क्यों भारतीयों को पेट के रोग ज्यादा होते हैं और दूसरे कई इन्फेक्शन उन्हें घेरे रहते हैं।
अगर इस अध्ययन में घरों से बाहर नजर डाली जाती तो शायद हमारी पॉजिशन और भी खराब होती। इसकी वजह यह है कि यहां जो लोग सफाई-पसंद होने का दावा करते हैं, उनके घरों के पिछवाड़े भी कूड़े के ढेर लगे मिलते हैं। इस अध्ययन से हमारी यही खराब आदतें सामने आई हैं। साफ-सफाई के मामले में सरकार को कोसने वाले मौका मिलने पर कहीं भी कूड़ा फेंकने और दीवारों पर खैनी या पान की पीक थूकने से बाज नहीं आते। इसकी एक वजह यह है कि हमारे देश में स्वच्छता को लेकर ऐसी कोई नागरिक संस्कृति विकसित नहीं हुई। एक दौर में गांधीजी ने इस बारे में कुछ पहल जरूर की थी लेकिन आगे चलकर वह किसी बड़े अभियान में नहीं बदल सकी। इस बारे में आ रहे विदेशी सर्वेक्षणों को खारिज करने की बजाय अगर उनसे अपनी कुछ आदतें बदलने की प्रेरणा ली जा सके, तभी हम बदलाव की उम्मीद कर सकते हैं(नवभारत टाइम्स का मत)।
दूसरा मतः
साफ-सफाई के बारे में ग्लोबल हाइजीन काउंसिल के निष्कर्ष और आपकी आलोचना सिर माथे लेते हुए यह कहना चाहता हूं कि एक छोटे दायरे में सिमटे अध्ययन को पूरे देश पर लागू करना ठीक नहीं है। भारत कोई छोटा सा गांव नहीं है कि आप कुछ सौ या हजार घरों के आधार पर कोई सटीक नतीजा निकाल सकें। हमारे देश में बहुत ज्यादा विभिन्नताएं हैं। सफाई को ही लें तो केरल जैसे साफ-सुथरे राज्य भी यहां हैं। लेकिन अगर आप मुंबई की झोपड़पट्टी के आंकड़े लेंगे तो मैं बताना चाहूंगा कि मैंने बेल्जियम के ब्रसेल्स स्टेशन पर लोगों को खुले में पेशाब करते देखा है। जिस तरह इस घटना को बेल्जियम के लिए मानक नहीं बनाया जा सकता, उसी तरह सीमित दायरे में जुटाए गए तथ्यों के आधार पर भारत के बारे में कोई राय नहीं बनाई जा सकती।
इसलिए मेरी नजर में इस अध्ययन की प्रामाणिकता संदिग्ध है। वैसे भी जहां तक इस तरह की कमियों और समस्याओं का प्रश्न है, खुद भारतीय इनके सबसे बड़े आलोचक हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स की मिसाल लीजिए। इन खेलों की तैयारियों को लेकर विदेशियों से ज्यादा आलोचना खुद हमारी जनता और यहां के मीडिया ने की। इसका सुफल यह निकला कि सारा आयोजन शानदार ढंग से संपन्न हो गया। इसी तरह हमारे घरों की साफ-सफाई के बारे में किसी और को चिंता करने की जरूरत नहीं है। इस समस्या का हल हम खुद निकाल लेंगे(प्रो. पी.सी. जोशी, सोशल एंथ्रोपलॉजी डिपार्टमेंट, डीयू का मत)।
(नवभारत टाइम्स,दिल्ली,23.10.2010)
ये सही है कि हम मे सफाई को ले कर पूरी जागृति नही आयी मगर दुनियाँ मे इससे भी अधिक गन्दगी है। कामनवेल्थ की बात करें तो अगर मेरे पास आपका ई मेल आई डी होता तो आपको एक मैल फार्वर्ड करती जो बाकी देशों की सफाई का सच ब्याँ कर रहे हैं। आलेख अच्छा है। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबेशक सिर्फ भारत ही नहीं है ऐसा ।
जवाब देंहटाएंलेकिन भारत भी है ऐसा , यह सच है ।
यहाँ लोगों की आदतें इतनी ख़राब हैं कि बिना डंडे के कोई समझता ही नहीं । यहाँ तक कि पढ़े लिखे भी ।
वैसे एक वज़ह यह भी है कि यहाँ धूल मिट्टी बहुत है हवा में। इसलिए सफाई रखना भी आसान नहीं ।
शायद इसीलिए हमारे पर्व इतने जोश खरोश से मनाये जाते हैं । अब दिवाली पर साफ सफाई का ही काम होना है हर घर में ।