मृत देह किसी काम की नहीं होती, लेकिन इसी मृत देह के जरिए मेडिकल छात्र काबिल डॉक्टर अवश्य बन सकते हैं। एमबीबीएस और बीडीएस की शिक्षा में मृत देह का ठीक वैसे ही महत्व है जैसे किसी मकान के निर्माण में नींव का, लेकिन असल दिक्कत देहदान की कमी है। लखनऊ के छत्रपति शाहू जी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय में एमबीबीएस और बीडीएस प्रथम वर्ष की 250 सीटें हैं। एनाटॅमी विभागाध्यक्ष डॉ. ए. के. श्रीवास्तव का कहना है कि इतने छात्रों के लिए प्रतिवर्ष 40 मृत शरीरों की आवश्यकता पड़ती है। चिकित्सा विश्वविद्यालय के आंकड़े देखें तो यहां पिछले पांच वर्ष में 18 देहदान हुए हैं, जबकि इस वर्ष अब तक छह देहदान हो चुके हैं। डॉ. श्रीवास्तव का कहना है कि देहदान की कमी से मेडिकल शिक्षा पर सीधा असर पड़ता है। हालांकि कई संस्थाएं लोगों को देहदान के लिए प्रेरित करने का काम कर रही हैं।
डॉ. श्रीवास्तव का कहना है कि ऐसे व्यक्ति जो यह समझते हैं कि मौत के बाद उनकी देह किसी के काम आए तो वह अपना पंजीकरण किसी भी मेडिकल शिक्षण संस्थान के एनाटॅमी विभाग में करवा सकते हैं। इसके लिए हर संस्थान में एक सहमति फॉर्म नि:शुल्क उपलब्ध है। फार्म भरने वाले शख्स को इसमें दो गवाह का भी ब्यौरा देना होता है। उनकी यह नैतिक जिम्मेदारी होती है कि पंजीकरण करवाने वाले व्यक्ति की मौत के बाद उसकी देह एनॉटमी विभाग को सौंपें, लेकिन यह दायित्व केवल नैतिक ही होता है। पंजीकरण फॉर्म भरने के बावजूद कोई ऐसा कानून नहीं जिसके जरिए मृत देह एनाटॅमी विभाग को मिले ही। कई बार परिवारजन लोकलाज की वजह से भी मृत्यु की सूचना नहीं देते। धीरे-धीरे देहदान के प्रति लोगों में जागरूकता आ रही है। अकेले लखनऊ चिकित्सा विश्वविद्यालय में इस समय 500 लोगों ने देहदान के लिए अपना पंजीकरण करवा रखा है। सूचना मिलते ही एनाटॅमी विभाग की एक टीम सरकारी वाहन के साथ मृत देह लेने जाती है। हालांकि लावारिस शव भी विभाग को मिलते हैं, लेकिन इनका महत्व कम रहता है। एनाटॅमी विभाग में प्रोफेसर के पद नियुक्त डॉ. अशोक सहाय का कहना है कि पहले ज्यादातर लावारिस शव ही आते थे। तब पुलिस हर शव का पोस्टमार्टम नहीं कराती थी, लेकिन अब बिना पोस्टमार्टम कोई लावारिस शव विभाग को नहीं मिल पा रहा है। एनाटॅमी विभाग में मृत देह को सुरक्षित रखने के लिए फार्मालिन व अन्य रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है। पोस्टमार्टम होने पर शरीर कई जगह से खुल जाता है। ऐसे में शरीर में कोई भी दवा नहीं रुकती। बिना पोस्टमार्टम मृत देह एनाटॅमी विभाग में रसायनों के जरिए वर्षो तक सुरक्षित रखी जा सकती है, लेकिन पोस्टमार्टम के बाद शव एक माह तक भी सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। औपचारिकताएं
- देश के सरकारी व गैर सरकारी चिकित्सा विश्वविद्यालयों, मेडिकल कॉलेजों का एनाटॅमी विभाग में एक घोषणा पत्र फॉर्म उपलब्ध रहता है। इस फॉर्म पर ही देहदान सहमति का घोषणा पत्र भरना होता है। - फॉर्म में देहदान करने वाले का नाम, पता, फोन नम्बर और सबसे नजदीकी रिश्तेदार का ब्योरा होता है। - इस फॉर्म की कोई कानूनी वैधता नहीं होती। इसे सिर्फ सहमति पत्र माना जाता है। - देहदान करने वाले व्यक्ति की मृत्यु के छह घंटे के अंदर संबंधित मेडिकल कॉलेज के एनाटॅमी विभाग को सूचना देनी होती है। इस अवधि में शव मिल जाने पर आँखों से कॉर्निया निकालकर दो लोगों के जीवन में रोशनी भी की जा सकती है। - एनाटॅमी विभाग के विभागाध्यक्ष अथवा कोई सीनियर डॉक्टर कर्मचारियों के साथ जाकर शव को हिफाजत में लेते हैं। रीति-रिवाज निभाने का अवसर भी
मृत्यु के बाद सभी धर्मो में अपने रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार किए जाने की परंपरा है। इसे देखते हुए एनाटॅमी विभाग में देहदान के पहले अंतिम संस्कार की परिजनों की इच्छा भी पूरी की जा रही है। देश के कई मेडिकल, विश्वविद्यालयों के एनाटॅमी विभाग ने इसके लिए सभी धर्मो के धर्मगुरुओं से एक करार भी किया है। ये धर्मगुरु एनाटॅमी विभाग में ही व्यापक पूजा-पाठ, यज्ञ और प्रतीकात्मक रूप से फूल चुनने जैसी परंपराओं का निर्वहन कराते हैं। लखनऊ के छत्रपति साहू जी महाराज का एनाटॅमी विभाग अपनी स्थापना दिवस पर हर वर्ष देहदान करने वाले परिवारों को बुलाकर सम्मानित भी करता है। इलाज में भी मिलती है छूट
लखनऊ चिकित्सा विश्वविद्यालय में जिस व्यक्ति का देहदान होता है उसके करीबी रिश्तेदारों को इलाज में 50 प्रतिशत छूट भी दी जा रही है। साथ ही उपचार में विशेष रूप से प्रशासन ध्यान भी देता है। यह व्यवस्था अभी एक वर्ष पूर्व से ही लागू की गई है। इसका व्यापक असर भी नजर आ रहा है। डॉ. श्रीवास्तव का कहना है कि यदि कोई अपने परिवारजन का देहदान मेडिकल शिक्षा के लिए करता है तो हमारा भी फर्ज बनता है कि हम उसके लिए कुछ सोचें। आदर्श स्थिति
एनाटॅमी के प्रोफेसरों का कहना है कि अगर 10 से 20 छात्र एक शव से मानव शरीर की संरचना का अध्ययन करें, तो उसे आदर्श स्थिति माना जाएगा। मगर जागरूकता के अभाव में लोग देहदान नहीं करते। इससे छात्रों को चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई में खासी दुश्वारियां होती हैं। पुलिस कर सकती है सहयोग
देश की पुलिस अगर चाहे मानव शव की कमी को आसानी से पूरा कर सकती है। मसलन, रेलवे, बस स्टेशनों व दूसरे स्थानों पर पाई जाने वाली लावारिस लाशों को नदी-पोखरों या अन्य स्थानों पर फेंकने के बजाए उसे वह मेडिकल कालेजों के सुपुर्द कर सकती है। चूंकि लावारिस शव को मेडिकल कालेजों को सौंपने के लिए कुछ कानूनी औपचारिकताएं करनी होती है। (आलोक उपाध्याय,हिंदुस्तान,26.10.2010)
"ऐसा नहीं कहा जा सकता कि आप फलां तरीक़े से स्वस्थ हैं और वो अमुक तरीक़े से। आप या तो स्वस्थ हैं या बीमार । बीमारियां पचास तरह की होती हैं;स्वास्थ्य एक ही प्रकार का होता है"- ओशो
शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010
देहदान: चिकित्सा और समाज की बड़ी जरूरत
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