इन दिनों भारत ही नहीं, लगभग पूरी दुनिया गंभीर रोगों की चुनौतियों से जूझ रही है। प्रचलित पुराने रोगों के अलावा नए उभरे रोगों की जानलेवा किस्में बड़े पैमाने पर कहर बरपाने की फिराक में हैं। रोगों के खात्मे के नाम पर चलाए जाने वाले सरकारी कार्यक्रमों की या तो दिशा बदल दी गई है या उनकी मियाद बढ़ा दी गई है। दुनिया के स्तर पर सेहत की चौकसी करने वाला विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ भी सकते में है।
संगठन ने बीते वर्ष 2007 को अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा वर्ष के रूप में मनाया और दुनिया को आगाह किया कि घातक रोगों की चुनौतियों ने देशों की सीमाएं तोड़कर कहर बरपाने की तैयारी कर ली है। इसलिए सभी देश स्वास्थ्य पर अपना बजट और बढ़ाएं तथा आपसी अंतरराष्ट्रीय सहयोग को और मजबूत करें। डब्ल्यूएचओ की वर्तमान महानिदेशक डॉ. मारग्रेट चान की यह चिंता कोई नई नहीं है, बल्कि संगठन के पूर्व महानिदेशक डॉ. हिरोशी नाकाजिमा ने भी माना था कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में तकनीकी विकास के अनेक कीर्तिमानों के बावजूद हम विभिन्न जानलेवा रोगों की गिरफ्त में फंस चुके हैं। दुनिया का कोई भी गरीब-अमीर देश इस संकट से महफूज नहीं है।
भारत में जिन रोगों को भविष्य का खतरा बताया जा रहा है, उनमें मलेरिया, डेंगू, स्वाइन फ्लू के अलावा डायबिटीज, कैंसर, स्ट्रोक, हृदय रोग और तनाव सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी पिछले वर्ष के अपने वार्षिक रिपोर्ट में पर्यावरण विनाश तथा बढ़ती वैश्विक गर्मी की वजह से गंभीर होते स्वास्थ्य संकट पर ध्यान केंद्रित किया था। उस रिपोर्ट की मुख्य चिंता यह थी कि वर्ष 2030 तक वातावरण में गर्मी बढ़ने से महामारियों, चर्म रोगों, कैंसर जैसी बीमारियों में काफी वृद्धि होगी और ये रोग भविष्य के सार्वाधिक मारक रोगों में गिने जाएंगे। संगठन की यह भी चिंता है कि रोगों के बढ़ने और जटिल होने के साथ-साथ अंग्रेजी दवाओं का बेअसर होना, महामारियों का और घातक होकर लौटना तथा विषाणुओं का और आक्त्रामक हो जाना भी भविष्य की बड़ी चुनौती है।
यदि हम स्वास्थ्य के अपने प्राथमिक ढांचे पर गौर करें तो वर्ष 1972 में कुल 5,192 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र थे, जो वर्ष 1983 में बढ़कर 5,995 हो गए। ताजा आंकड़े के अनुसार, मार्च 2007 तक देश में कुल 22,370 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खोले जा चुके हैं, लेकिन जमीनी सच्चाई है कि इनमें से लगभग 50 प्रतिशत स्वास्थ्य केंद्रों के पास न तो अपना भवन है और न ही उनमें पर्याप्त जरूरी सुविधाएं। नब्बे के दशक में जब वर्ष 2000 तक सबको स्वास्थ्य का लक्ष्य तय किया गया था, तब कहा गया था कि देश में कम से कम 23,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की जरूरत है, लेकिन आज 20 साल बाद भी न तो सबको स्वास्थ्य मिला और न ही स्वास्थ्य के प्राथमिक ढांचे ही खड़े हो पाए। आजादी से पहले की बहुचर्चित भोर समिति ने तो सुझाव दिया था कि प्रत्येक 20,000 की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए, लेकिन राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कहता है कि आज भी औसतन 27,000 लोगों पर मात्र एक चिकित्सक है, जिनमें से 81 प्रतिशत चिकित्सक तो शहरों में हैं। सरकार की तमाम कोशिशों के बाद 18 प्रतिशत चिकित्सक किसी भी तरह से गांव के स्वास्थ्य केंद्रों में जा पाए हैं।
इस पृष्ठभूमि में स्वास्थ्य का संकल्प और लोगों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ बनाने का सपना अब भी मृगमरिचिका लगता है। प्रचलित बीमारियों को ही लें तो वर्षो तक उनके उन्मूलन का अभियान चलाने के बावजूद रोग की भयावहता कम नहीं हुई। मलेरिया, टीबी, डेंगू, स्वाइनफ्लू, कालाजार, मिजिल्स, कालरा लगभग सभी रोग पहले से और खतरनाक ही हुए हैं। भारत में 1995 से पोलियो को जड़ से उखाड़ फेंकने का अभियान चल रहा है। इसके विज्ञापन में महत्वपूर्ण नेता से अभिनेता तक नजर आते हैं। डब्ल्यूएचओ की पहल पर वर्ष 2000 तक पोलियों के विरुद्ध चली इस लड़ाई को अंतिम लड़ाई का नाम दिया गया। पल्स पोलियो नामक इस अभियान में 5 वर्ष तक की उम्र के बच्चों को 6 खुराकें एक महीने के अंतराल पर पिलाई गई। इसमें 11 राज्यों के कोई 16 करोड़ बच्चों को शामिल किया गया, लेकिन तब भी पेालियो के विरुद्ध प्रचारित अंतिम युद्ध अंतिम नहीं बन पाया। बीते 7 वर्षो में हमने इसकी कीमत कोई 9,182 करोड़ रुपये चुकाई।
यदि रोग उन्मूलन के नाम पर केंद्र सरकार का बजट देखें तो वर्ष 2006-07 में पल्स पोलियों के लिए 1004 करोड़ रुपये, अन्य टीकाकरण के लिए 327 करोड़ रुपये, क्षय रोग उन्मूलन के लिए 184 करोड़ का प्रावधन था, लेकिन रोगों की स्थिति और बदतर ही हुई है। इन दिनों हमारा देश कई जानलेवा बीमारियों की गिरफ्त में है। डेंगू, इन्सेफ्लाइटिस, कालाजार, मलेरिया, मेनिन्जोकाक्सीमिया आदि घातक रोग लगभग सभी प्रदेश में रोजाना किसी न किसी की जान ले रहे हैं। टीबी पहले से ज्यादा घातक होकर मल्टी ड्रग्स रेसिस्टेंस ट्यूबरकुलोसिस के रूप में उभरा है। देश के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र मलेरिया, कालाजार एवं कॉलरा की चपेट में हैं। बिहार और उड़ीसा में सांप काटने से होने वाली मौत की खबरें आ रही हैं तो मध्य प्रदेश, राजस्थान में मलेरिया का आतंक है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और आसपास के क्षेत्र में एक रहस्यमय दिमागी बुखार हजारों बच्चों की जान ले चुका है।
डॉक्टर चिकित्सा उपकरण के अभाव में रोग का निदान भी नहीं कर पा रहे हैं। यह स्थिति तो परजीवी से होने वाले रोगों की है। डब्ल्यूएचओ का वर्ष 2007 का तथ्य पत्र देखें तो उच्च आय वाले देशों में सबसे ज्यादा मौतें हृदय रोग, मधुामेह, उच्च रक्तचाप, श्वांस संबंधी रोग आदि से हो रही हैं। ये ऐसे रोग हैं, जिन्हें महज जीवन शैली में बदलाव लाकर रोका जा सकता है। मध्यम आय वाले देशों में भी सर्वाधिक मौतें इन्हीं रोगों से हो रही हैं। लगभग यही आंकड़ा निम्न आय वाले देशों का भी है। वर्ष 2002 में उक्त रोगों से दुनिया में कोई 5 करोड़ 70 लाख लोगों की मौतें हुई। इनमें 72 लाख लोग हृदय रोग तथा 55 लाख हृदयाघात से मरे। वजह धूम्रपान तथा मोटर गाडि़यों से उत्पन्न प्रदूषण बताई गई। तथ्य पत्र कहता है कि निम्न तथा मध्यम आय वाले देशों में लगभग एक करोड़ 50 लाख बच्चे तो 5 वर्ष की आयु से पहले ही मर जाते हैं, जिनमें से 98 प्रतिशत को उपयुक्त चिकित्सा सुविधा देकर बचाया जा सकता है।
भारत में मलेरिया, कालाजार, डेंगू आदि के खत्म न होने के पीछे के प्रमुख कारण हैं बढ़ता शहरीकरण, बड़े बांध एवं बड़े पैमाने पर विस्थापन। एक अन्य महत्वपूर्ण कारण अमीरी और गरीबी के बीच बढ़ती खाई भी है। भारत सरकार द्वारा असंगठित क्षेत्र के उद्यमों की जांच के लिए बनाए गए राष्ट्रीय कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार देश के 83.6 करोड़ यानी 77 प्रतिशत लोग 20 रुपये प्रतिदिन से कम पर अपना गुजारा करते हैं।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की (2004-2005) रिपोर्ट देखें तो ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति दैनिक उपयोग खर्च 19 रुपये से कम था, जबकि शहरी लोगों का औसत दैनिक खर्च 30 रुपये के करीब पाया गया। जीवन के हर क्षेत्र में बाजार के बढ़ते दखल ने समस्या को और विकट बना दिया है। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई नियामक संस्थाओं पर बाजार का पूरा प्रभाव है। समाज का हर प्रभावशाली वर्ग उपभोक्तावाद की गिरफ्त में है।
रोग उन्मूलन के नाम पर राष्ट्रीय टीकारण कार्यक्रम भी बाजार की गिरफ्त में है। इस कार्यक्रम में फिलहाल छह जानलेवा बीमारियों के लिए टीका लगाया जाता है। ये हैं टीबी, खसरा, डिप्थेरिया, काली खांसी, टिटनेस तथा पोलियो। अब इस सूची में अनेक नए टीके भी जोड़े जा रहे हैं। इनमें हिपेटाइटिस बी, एन्फ्लूएन्जा बी, चिकेनपॉक्स, एमएमआर तथा न्यूयोमोकाक्स। इन सबकी संख्या 11 होती है। निजी तौर पर ये टीके लगभग 15 हजार रुपये में लगते हैं। अब बाजार का दबाव है कि इन टीके को राष्ट्रीय कार्यक्रम में शामिल कर लिया जाए। यह सर्वविदित तथ्य है कि दवा निर्माता कंपनियां चिकित्सकों की प्रभावशाली संस्थाओं का इस्तेमाल कर अपना प्रोडक्ट बेचती हैं। इन पर नियंत्रण के सरकारी अधिकार धीरे-धीरे खत्म किए जा रहे हैं। सवाल यह उठता है कि बढ़ती बीमारियों की वजह आखिर है क्या? बढ़ता उपभोक्तावाद, बढ़ती समृद्धि, बढ़ती तकनीक रोगों के प्रति हमारा मूर्खतापूर्ण रवैया या कुछ और?(डॉ. ए.के.अरूण,दैनिक जागरण,23.10.2010)
सत्य वचन।
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