इक्कीसवीं सदी की अच्छी खबर यह है कि हम तकनीकी विकास के श्रेष्ठतम दौर में जी रहे हैं, और बुरी खबर यह कि पुराने और खत्म हो चुके रोग और घातक बनकर लौट रहे हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में डेंगू फैला है। इस साल इसका संक्रमण पिछले २० वर्षों में सर्वाधिक घातक है। एक ओर पूरे देश में वर्षा और बाढ़ का प्रकोप है, वहीं डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया, कालाजार, दस्त, टायफायड, स्वाइन फ्लू जैसे रोग चरम पर हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पूरे देश में 10 करोड़ से ज्यादा लोग मच्छर जनित रोगों की चपेट में हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, दुनिया में सालाना 10 लाख से ज्यादा लोग मच्छर जनित रोग से मरते हैं।
इन दिनों फैले डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया, स्वाइन फ्लू और अन्य रोगों के सूक्ष्म जीवों की सबसे खतरनाक प्रवृत्ति यह है कि वे अपने डीएनए में बदलाव लाकर ज्यादा घातक हो गए हैं। चर्चित सुपरबग एनडीएम-1 इसका ताजा उदाहरण है। ये सुपरबग एंटीबायोटिक के दुरुपयोग की वजह से पैदा हुए हैं। साबिया वायरस, एल्टीचिया बैक्टीरिया, रिट वैली वायरस आदि सूक्षमजीवी तो अभी तक रहस्य ही हैं। एक जानलेवा वायरस ऐसा है, जिसे अब तक नाम भी नहीं दिया जा सका है। वैज्ञानिक इसे ‘एक्स वायरस’ कह रहे हैं। ऐसे अनेक खतरनाक सूक्ष्मजीवी हैं, जिनकी पहचान तक नहीं हो पाई है। ज्यादातर सूक्ष्मजीवी परजीवी होते हैं। ये किसी जीवित कोशिका पर ही पलते-बढ़ते हैं। मसलन, मलेरिया का कारक सूक्ष्मजीवी ‘प्लाजमोडियम’ शरीर की लाल रक्त कणिकाओं में पलता और विकसित होता है। एक रक्त कणिका पर यह तब तक पलता-बढ़ता है, जब तक कि वह रक्त कण नष्ट न हो जाए। इस तरह शरीर के आवश्यक लाल रक्त कण समाप्त होने लगते हैं और प्लाजमोडियम बढ़ता रहता है। धीरे-धीरे आदमी की मृत्यु हो जाती है।
नई आर्थिक नीति के दुनिया में प्रभावी होने के बाद से गरीबी बढ़ रही है। सैकड़ों करोड़ लोग गरीबी के कारण अनेक जानलेवा बीमारियों के साये में जीने को मजबूर हैं। दुनिया की कुल आबादी का पांचवां हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करता है। कुल जनसंख्या के एक तिहाई बच्चे कुपोषित हैं। आधी से ज्यादा आबादी अत्यंत जरूरी दवाएं भी नहीं खरीद पाती। केंद्रीकृत आर्थिक व्यवस्था ने करोड़ों लोगों को जीविकोपार्जन के लिए शहरों की ओर जाने को बाध्य कर दिया है। असंख्य लोगों को तंग और गंदी बस्तियों में जीवन बसर करना पड़ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के पूर्व महानिदेशक डॉ. हिरोषी नाकाजिमा ने एक रिपोर्ट में माना है कि आज स्वास्थ्य के क्षेत्र में तकनीकी विकास के अनेक कीर्तिमानों के बावजूद हम विभिन्न जानलेवा रोगों के चंगुल में फंस गए हैं। पिछले वर्ष कोई एक करोड़, सत्तर लाख लोग असमय मौत के मुंह में समा गए। इनमें से दस्त और निमोनिया से मरे 10 लाख बच्चों को बचाया जा सकता था।
आधुनिक चिकित्सा तंत्र अपने द्वारा पैदा किए इन रोगों के सामने अब खुद लाचार है। केवल तकनीक के बल बूते पर कोई चिकित्सा तंत्र नहीं चल सकता, बल्कि तकनीकी दबदबे के सामने तो वह बौना हो जाता है। चिकित्सा में तकनीक की सीमा निर्धारित होनी ही चाहिए, वरना यह तकनीक मनाव जाति पर राज करेगी। ज्यों-ज्यों दवा की जा रही है, मर्ज बढ़ते जा रहे हैं। सभी संवेदनशील आधुनिक चिकित्सा विज्ञानी एक स्वर से अंगरेजी दवाओं के न्यूनतम प्रयोग की बात कर रहे हैं, लेकिन बाजार की ताकतें इसे अनसुनी कर अनावश्यक दवाओं का ढेर लगा रही हैं। पेनीसिलीन जैसी महत्वपूर्ण एंटीबायोटिक दवा के जनक एलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने माना था कि इस दवा के दुरुपयोग का नतीजा होगा कि इसे मानव व्यवहार से बाहर करना होगा। दुनिया जानती है कि आज पेनीसिलीन एक प्रभावहीन एंटीबायोटिक है।
देश की आजादी के बाद से अब तक यदि चिकित्सा व्यवस्था की समीक्षा करें, तो पाएंगे कि यह सबसे ज्यादा मुनाफे वाला पेशा बन गया है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की जगह पांच सितारा अस्पतालें खोलना सरकार की मुख्य प्राथमिकता बन गई है। जनता के पैसों से खुलने वाले इन अस्पतालों में आम आदमी के उपचार की सहूलियतें न के बराबर हैं। दवा बनाने और टॉनिकों का धंधा करने वाली बड़ी कंपनियों ने रोग और दवा का ऐसा बाजार कायम कर लिया है कि सामान्य व्यक्ति अपनी कमाई का 40 प्रतिशत हिस्सा उपचार और दवा के लिए खर्च करने पर मजबूर है। इन कंपनियों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन पर भी अपना प्रभुत्व कायम कर लिया है। पिछले ही साल स्वाइन फ्लू को घातक महामारी बताकर संगठन ने एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी को करोड़ों डॉलर का मुनाफा पहुंचाया था।
समय आ गया है कि हम निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर व्यापक मानवता के लिए सोचें। रोगों के मामले में हमें व्यापारिक रवैया बदलकर विशुद्ध मानवीय तरीके से सोचना होगा। स्वास्थ्य में दवा की दखल को कम किए बगैर न तो सेहत हासिल की जा सकती है और न ही रोगों को खत्म किया जा सकता है। दवा के कारक सूक्ष्म जीवों के जीवन चक्र को समझकर पर्यावरण और भौतिक परिस्थितियों में नैसर्गिक बदलाव के प्रयास करने होंगे। अंधाधुंध शहरीकरण, विकास के नाम पर बड़े बांध, एक्सप्रेस-वे आदि से परहेज करना होगा। नालों में तबदील होती नदियों और बिल्डिंगों में खत्म होते जंगलों को बचाना होगा। खेतों को रसायन मुक्त करना होगा तथा सामुदायिक स्वास्थ्य ढांचे को दोबारा खड़ा करना होगा। सबसे अहम यह कि स्वास्थ्य को बाजार के हाथ से खींचकर सार्वजनिक और सामुदायिक हाथों में सौंपना होगा, वरना पूरी अर्थव्यवस्था झोंककर भी हम लोगों की सेहत की रक्षा नहीं कर पाएंगे(अमर उजाला,11 सितम्बर,2010)।कार्टून राजस्थान पत्रिका से साभार।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंमशीन अनुवाद का विस्तार!, “राजभाषा हिन्दी” पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें
सत्य को बखूबी उघाडा गया है।
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