सोमवार, 23 अगस्त 2010

एंटीबॉयटिक दवाओं की सीमाएं

वैज्ञानिकों ने एंटीबॉयटिक दवाओं की खोज करके एक बड़ा किला फतह कर लिया था लेकिन डॉक्टरों ने इन दवाओं का इतना ज्यादा इस्तेमाल किया कि बीमारी फैलाने वाले माइक्रोब्स ने एंटीबॉयटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधात्मक शक्ति हासिल कर ली यानी तुम डाल-डाल तो हम पात-पात। हमारे शरीर माइक्रोब्स से भरे पड़े हैं और सारे के सारे माइक्रोब्स खराब नहीं होते कई अच्छे माइक्रोब्स भी होते हैं, मसलन कुछ माइक्रोब्स हमारी पाचन प्रक्रिया के लिए लाभदायक होते हैं। एंटीबॉयटिक दवाओं की खोज मनुष्य जाति के लिए वरदान साबित हुई थी क्योंकि इससे तमाम संक्रामक रोगों से मुक्ति पाने की आशा बंधी थी। मगर जैसे ही संक्रामक रोगों से लड़ने के लिए एंटीबॉयटिक दवाओं का इस्तेमाल शुरू हुआ, वैज्ञानिकों ने देखा कि पुराने माइक्रोब्स ने अपना रूपांतरण कर लिया है। मसलन पेंसिलीन की खोज एक क्रांतिकारी खोज थी मगर वैज्ञानिकों ने देखा कि कुछ ऐसे माइक्रोब्स सामने आ गए है कि पेंसिलीन तक का उन पर कोई असर नहीं पड़ता । माइक्रोब्स इतने सूक्ष्म होते हैं कि उन्हें माइक्रोस्कोप से ही देखा जा सकता है। वायरस और बैक्टीरिया माइक्रोब्स का ही रूप हैं जो किसी भी कोशिका में पहुंचकर शरीर को नुकसान पहुंचाना शुरू कर देते हैं। ये हमारी त्वचा, मुंह और नाक के जरिए हमारे शरीर में पहुंच जाते हैं और फिर एक से दूसरे व्यक्ति में फैलने लगते हैं। इसीलिए आजकल डॉक्टर कहते हैं कि हर व्यक्ति से कम से कम एक हाथ की दूरी बनाकर बात करो। हमारी त्वचा इन माइक्रोब्स का प्रवेश रोकने में सबसे बड़े अवरोधक का काम करती रही है और फिर भी यदि माइक्रोब्स शरीर में दाखिल होते रहे तो एंटीबॉयटिक दवाओं ने उनका काम तमाम कर डाला। संक्रामक रोगों का फैलाव रोकने में एंटीबॉयटिक दवाओं ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इससे पहले भारत में भी अस्पताल संक्रामक रोगियों से भरे रहते थे और डॉक्टर उन्हें बचा नहीं पाते थे। निमोनिया के रोगी को बचाना भी मुश्किल था और अगर खुदा न खास्ता शरीर पर कोई घाव हो गया या वह थोड़ा सा भी कट गया तो टिटनेस और सेप्सिस से ग्रस्त रोगी कुछ ही दिनों का मेहमान रह जाता था। सन्‌ १९४० से १९८० के बीच कुछ नई एंटीबॉयटिक दवाओं की खोज ने जन स्वास्थ्य का नक्शा ही बदल डाला मगर इसके बाद कोई बड़ी खोज नहीं हो पाई। १९९० में एक नई किस्म की एंटीबॉयटिक की खोज जरूर हुई मगर बाजार में जो भी नई दवाएं आईं वे पुरानी दवाओं के ही प्रायः नए संस्करण थे। अब पेच यह है कि नई एंटीबॉयटिक दवाएं विकसित नहीं हो रही हैं,जबकि नए माइक्रोब्स सामने आ रहे हैं जिन्होंने उपलब्ध एंटीबॉयटिक दवाओं की सीमाएं स्पष्ट कर दी हैं। इस पृष्ठभूमि में नए संक्रामक रोगों का खतरा बढ़ रहा है। हाल ही में नई दिल्ली के नाम पर न्यू दिल्ली मेटेलो-बीटा-लेक्टामासे-१ (एनडीएम-१) नामक एक सुपरबग का पता चला है जिसका उत्स भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को बताया जा रहा है। इस सुपरबग की खोज करने वाली टीम में एक भारतीय का नाम भी आया है, जिसने बाद में इस शोध के निष्कर्षों से अपने आप को अलग कर लिया है। मगर यह सुपरबग ऐसा है जिस पर कोई भी मौजूदा एंटीबॉयटिक दवा असर नहीं करती। इस बग के कारण पेशाब की नली में संक्रमण होता है। भारत में साफ पानी और उचित सेनिटेशन की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है इसलिए डॉक्टरों को डर है कि इस बग के कारण कहर टूट सकता है। ऐसा ही एक सुपरबग एमआरएसए नामक बैक्टीरिया को माना जाता है जो त्वचा और नाक के अंदर घुसकर उत्पात मचाता है। इस सुपरबग से त्वचा, सॉफ्ट टिश्यू, हड्डियों, फेफड़ों और हृदय के वॉल्व में संक्रामक बीमारी हो जाती है। इसकी काट के लिए मेथिसिलीन नामक दवा का प्रयोग शुरू किया गया मगर धीरे-धीरे सुपरबग ने इसके खिलाफ भी प्रतिरोधात्मक क्षमता हासिल कर ली। पश्चिमी देशों में एमआरएसए के कारण होने वाले संक्रामक रोग से लड़ने में आज अरबों डॉलर की राशि खर्च हो रही है। अमेरिका आदि में इसके कारण हर साल हजारों मौतें हो जाती हैं। प्रकृति ने मनुष्य को रोगों से लड़ने के लिए अपना प्रतिरक्षात्मक तंत्र दिया है। जैसे व्हाइट ब्लड सैल या लाइफोजाइम है जो बैक्टीरिया को काट देता है। एंटीबॉयटिक दवाओं ने जहां अनेक संक्रामक रोगों से मानव जाति को बचाया,वहीं शरीर की प्रतिरोधात्मक शक्ति को भी तहस-नहस कर डाला। जिस तरह मानव शरीर तापमान और पर्यावरण के अनुकूल अपने को अभ्यस्त कर लेता है, उसी तरह हमारे उदय के समय से ही माइक्रोब्स और उनके विरुद्ध शरीर की प्राकृतिक प्रतिरोधात्मक ताकत का भी विकास होता रहा। एंटीबॉयटिक दवाओं ने दोनों के बीच के संतुलन को नष्ट कर डाला और धीरे-धीरे होने यह लगा कि एंटीबॉयटिक दवाएं जब-जब भारी पड़ीं,माइक्रोब्स या बैक्टीरिया ने अपने को और ताकतवर बना लिया। जैसे सिंह पर सवार दुर्गा रक्तबीजों के सिर काटती थीं और तत्काल नए रक्तबीज पैदा हो जाते थे। सुपरबग इसी तरह के रक्तबीज हैं। इसलिए आज वैज्ञानिक कह रहे हैं कि एंटीबॉयटिक दवाओं का अंधाधुंध इस्तेमाल रुकना चाहिए। आज डॉक्टर लोग खांसी-जुकाम और पेट के साधारण रोगों में भी मरीज को एंटीबॉयटिक दवाएं लिख देते हैं। दुनिया में एंटीबॉयटिक दवाओं का अरबों-खरबों का व्यापार है। दवा कंपनियां अपने मेडिकल-रिप्रजेंटेटिव के जरिए डॉक्टरों को प्रभावित करती हैं और अपने इन सेल्समैनों का वार्षिक टार्गेट बढ़ाती रहती हैं। इस पृष्ठभूमि में जिस मरीज का जुकाम जोशांदे से दो चार रोज में ठीक हो सकता है,उसे भी नाहक एंटीबॉयटिक दवाएं लेनी पड़ती हैं। एलोपैथी ने आयुर्वेद, यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा और होम्योपैथी को अवैज्ञानिक कहकर हाशिए पर डाल दिया है लेकिन एंटीबॉयटिक दवाओं की सीमाएं वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति पर फिर से पुनर्विचार करना होगा(संपादकीय,नई दुनिया,दिल्ली,23.8.2010)

1 टिप्पणी:

  1. आप चिकत्सा सम्बन्धी बहुत अच्छी जानकारी दे रहे है,जिनमे से कुछ तो बिलकुल नयी होती है ..इसके लिए धन्यवाद!!!मेरा एक सुझाव है की आप लेखन में थोडा अंतराल रखा करें !आपकी पोस्ट के बारे में लोग जाने,पढ़े इतने में नयी पोस्ट आ जाती है जिससे पुराणी पोस्ट बिना पढ़े ही रह जाती है!आशा है अन्यथा नही लेंगें!!

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