सोमवार, 2 अगस्त 2010

यूपी में दिमागी बुखारःअसर नहीं दिखा रहा टीका

जापानी इंसेफेलाइटिस (जेई) की रोकथाम के लिए लगाए जा रहे टीके बेदम साबित हो रहे हैं। करोड़ों बच्चों को टीके लगाए जाने के बावजूद दिमागी बुखार से उनकी मौतों का सिलसिला नहीं थम रहा है। कहा जा रहा है कि मौतें जेई से नहीं बल्कि उस एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) से हो रही हैं जिसके कारणों का ही अभी सही से पता नहीं है। तीन दशक से सूबे में पांव पसारे जेई के विकराल रूप लेने पर केंद्र सरकार ने 2005 में प्रभावित जिलों में व्यापक टीकाकरण कराने का फैसला किया था। चरणबद्ध तरीके से सूबे के जेई प्रभावित 34 जिलों के तकरीबन 3.51 करोड़ बच्चों का टीकाकरण 2006 से लेकर 2009 के बीच किया गया। 2006 में जहां जेई से सर्वाधिक प्रभावित गोरखपुर सहित सात जिलों के एक से 15 वर्ष की आयु वाले 68.36 लाख बच्चों का टीकाकरण किया गया वहीं 2007 में 11 जिलों के 94.99 लाख, 2008 में नौ जिलों के 1.09 करोड़ तथा 2009 में सात जिलों के 78.45 लाख बच्चों का टीकाकरण हुआ। राज्य सरकार ने दावा किया कि 34 जिलों के 95.39 फीसदी बच्चों का टीकाकरण किया गया, लेकिन इस दावे में कितनी सच्चाई थी इसका अंदाजा गोरखपुर व बहराइच जिले में हुए टीकाकरण का यूनीसेफ द्वारा कराए गए सर्वे से लगाया जा सकता है। स्वास्थ्य महकमे के मुताबिक गोरखपुर के 97 फीसदी बच्चों का टीकाकरण किया गया जबकि सर्वे में यूनीसेफ को 52.3 फीसदी बच्चों का ही टीकाकरण मिला। बहराइच के 100.2 फीसदी बच्चों के टीकाकरण की बात कही गई, लेकिन यूनीसेफ को सिर्फ 50.5 फीसदी बच्चे ही ऐसे मिले जिन्हें टीके लगे थे। अब कौन सही और कौन गलत यह तो अब तक तय नहीं हो सका, लेकिन स्वास्थ्य महकमा यूनीसेफ के सर्वे को गलत मानता है। संबंधित डाक्टरों का कहना है कि यूनीसेफ के सर्वे का दायरा बहुत छोटा था। बहरहाल, राज्य सरकार का मानना है कि व्यापक टीकाकरण से ही जेई के मामलों में उल्लेखनीय कमी आई है। वर्ष 2005 में जहां दिमागी बुखार से पीडि़त मरीजों की जांच में 39 फीसदी में जेई पाया गया था वहीं 2006-07 में यह घटकर 12 फीसदी जबकि 2008 में 7.27 फीसदी रह गया है। यद्यपि 2009 में जेई के मामले फिर बढ़कर 9.82 फीसदी हो गए। इस साल जुलाई तक एईएस के कुल 585 मामलों में 18 में ही जेई पाया गया है। ऐसे में भले ही जेई का तांडव कम हुआ हो, लेकिन एईएस के चलते न पीडि़तों की संख्या में और न ही उससे मरने वालों की संख्या में कोई खास कमी आई है। 2005 में जहां एईएस से 29 फीसदी पीडि़तों की जान गई थी वहीं 2006 में 23, 2007 में 22, 2008 में 17.69 जबकि 2009 में 18.09 फीसदी जीवित न बच सके। ऐसे में साफ दिखाई दे रहा है कि टीके लगाए जाने का कुल मिलाकर कोई खास फायदा नहीं हो रहा है। टीके लगने के बाद भी न दिमागी बुखार के पीडि़तों की संख्या में कोई खास कमी आई है और न ही मरने वाले की संख्या में(अजय जायसवाल,दैनिक जागरण,लखनऊ,2.8.2010)।

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