बुधवार, 25 अगस्त 2010

..ताकि महंगी न हो जाएं दवाएं

विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा भारतीय दवा कंपनियों के एक के बाद एक अधिग्रहण से सरकार चौकन्नी हो गई है। माना जा रहा है कि इससे सस्ती जीवन रक्षक दवाओं की उपलब्धता पर असर पड़ सकता है। वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने दवा क्षेत्र में ऑटोमेटिक रूट से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया है। मंत्रालय ने पेटेंटशुदा दवाओं के उत्पादन के लिए तीसरे पक्ष को लाइसेंस देने की व्यवस्था भी अनिवार्य करने की सिफारिश की है। वाणिज्य व उद्योग मंत्री आनंद शर्मा ने स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद को इस सिलसिले में एक संदेश भेजा है। इसमें कहा गया है कि औद्योगिक नीति और संवर्धन विभाग ने दवा क्षेत्र में भारतीय पेटेंट अधिनियम के तहत तीसरे पक्ष के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग शुरू करने का विकल्प आजमाने के लिए एक परिचर्चा पत्र तैयार किया है। औषधि क्षेत्र में स्वत: मंजूरी वाले मार्ग के बजाय सरकारी अनुमति के रास्ते विदेशी निवेश मंजूर करने की व्यवस्था होनी चाहिए। इससे इस क्षेत्र में अधिग्रहण प्रस्तावों की विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड (एफआईपीबी) में गहन छानबीन हो सकेगी। शर्मा ने उद्योग चैंबर सीआईआई के एक कार्यक्रम के दौरान संवाददाताओं से कहा कि सरकार जनता को उचित दाम पर दवाएं उपलब्ध कराने के लिए प्रयासरत है। साथ ही दवा उद्योग के सतत विकास पर भी ध्यान दिया जा रहा है। वर्ष 2008 में देश की सबसे बड़ी दवा निर्माता रैनबैक्सी को जापान की दाइची सैंक्यो ने 4.6 अरब डॉलर में खरीद लिया था। हाल ही में अमेरिका की अबॉट लैबोरेटरीज ने पीरामल हेल्थकेयर के घरेलू डायग्नॉस्टिक कारोबार का 3.7 अरब डॉलर में अधिग्रहण किया है। अनिवार्य लाइसेंसिंग प्रणाली के तहत सरकार आवश्यकता पड़ने पर पेटेंटधारक कंपनी की अनुमति के बिना भी तीसरे पक्ष यानी किसी अन्य कंपनी को संबंधित दवा के उत्पादन का लाइसेंस दे सकती है। हालांकि दवाओं का आयात बढ़ रहा है, लेकिन निर्यात पर जोर की वजह से घरेलू खपत में वृद्धि काफी धीमी है(दैनिक जागरण,दिल्ली,25.8.2010)।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

एक से अधिक ब्लॉगों के स्वामी कृपया अपनी नई पोस्ट का लिंक छोड़ें।