"पावरफुल" से "पावरफुल" एंटीबायॉटिक्स की "मौत" पर पूरी दुनिया में भले ही मर्सिया प़ढ़ा जा रहा हो लेकिन भारत में अभी भी कई ऐसे एंटीबायॉटिक्स हैं जो ५० बर्ष बाद भी बैक्टीरिया को मारने में सबसे अव्वल हैं। पुरानों की तुलना में नए एंटीबायॉटिक्स ही बैक्टीरिया के सामने ज्यादा ढेर हो रहे हैं। दवा कंपनियां भी पेटेंट से बाहर होने वाली अपनी दवाओं को बेवजह मारने का खेल करती रहती हैं।
लांसेट में छपी "सुपरबग" स्टोरी ने पूरी दुनिया में हंगामा बरपा दिया है। कहते हैं इस सुपरबग को मारने में दुनिया का सबसे ताकतवर एंटीबायॉटिक्स भी नाकाम हो गया है।
वैज्ञानिक इस चिंता में दुबले हो रहे हैं कि ऐसे सुपरबग की सेना तैयार हो गई तो उन्हें मारने का "हथियार" कहां से आएगा, लेकिन ५० साल पुरानी टाइफाइड बुखार की एंटीबायॉटिक क्लोरामफेनीकॉल को लीजिए। अभी भी उसका कुछ नहीं बिग़ड़ा है।
यह "ग्राम पॉजिटिव" एवं "ग्राम निगेटिव" बैक्टीरिया की कई किस्मों पर प्रभावी है। वैसे ब्रांडेड एवं उंची कीमत वाले एंटीबाॉटिक्स बनाने में लगी कंपनियां ऐसे पुराने एंटीबायॉटिक्स को आगे ब़ढ़ाने में रुचि नहीं लेती, लेकिन दिल्ली सहित पूरे देश में टाइफायड के इलाज में इस का केवल खूब उपयोग ही नहीं हो रहा है बल्कि यह दूसरे नए एंटीबायॉटिक्स से ज्यादा प्रभावी भी साबित हो रहा है।
नए एंटीबायॉटिक्स के निष्पप्रभावी होने की घटना को देखते हुए अब क्लोरामफेनीकॉल, एमोक्सीसाइक्लिन एवं एस्टासाइक्लिन जैसे इस पुराने एंटीबायॉटिक्स का महत्व ब़ढ़ने लगा है। क्लोरामफेनीकॉल काफी सस्ती एंटीबायॉटिक्स भी है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के महानिदेशक डॉ. वीएम कटोच ने कहा कि बेशक क्लोरामफेनीकॉल अभी भी बहुत प्रभावी दवा है लेकिन "बोन मैरो" पर इसके दुष्प्रभाव की वजह से इसके प्रयोग में जोखिम है। यह अस्थ मज्जा का दमन कर सकती है।
वैसे यह विरले ही होती है लेकिन हो जाने के बाद जान बचाना मुश्किल है। पंचतारा अस्पताल रॉकलैंड के इंटरनल मेडिसिन के विशेषज्ञ डॉ. आरपी सिंह ने कहा कि २० साल पहले क्लोरामफेनीकॉल को हम अमोघ अस्त्र की तरह मानते थे लेकिन अब उससे अधिक सुरक्षित दवा मौजूद है।
आल इंडिया केमिस्ट एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स फेडरेशन के अध्यक्ष कैलाश गुप्ता ने कहा कि सुपरबग दवा कंपनियों की चाल है। हम उनके खेल को बेहतर समझते हैं। वे सस्ती लेकिन प्रभावी दवाइयों को यह सब कह कर "किल" करती हैं ताकि वे अधिक कीमती एंटीबायॉटिक्स बना सकें। सवाल है क्लोरामफेनीकॉल जैसी सस्ती दवाइयां अभी तक निष्प्रभावी क्यों नहीं हुई हैं(धनंजय,नई दुनिया,दिल्ली,16.8.2010)।
आभार ...
जवाब देंहटाएंयार यही तो मुश्किल है ..पहले कहते हैं ये पहले से बेहतर हैं..फिर कहते हैं साइड इफेक्ट है..खाएं तो मरे..न खाएं तो मरें....करे क्या आम इंसान....
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