देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में इस साल जनवरी से जुलाई तक मलेरिया से 31 लोगों की मौत हो चुकी है जबकि 17,136 लोग पीडि़त हुए। इस संबंध में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि मलेरिया की रोकथाम के बजाए उस पर राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। कुपोषण, गंदगी और पीने के साफ पानी की कमी मलेरिया को आमंत्रित करते हैं, लेकिन मलेरिया के विरुद्ध लड़ाई में ये मुद्दे गायब हैं। दरअसल प्लालजमोडियम परजीवी द्वारा फैलने वाला मलेरिया एक संक्रामक रोग है। प्रत्येक वर्ष यह 50 करोड़ से अधिक लोगों को प्रभावित करता है तथा लगभग दस लाख लोगों को मौत की नींद सुला देता है। मलेरिया को आमतौर पर गरीबी से जोड़ कर देखा जाता है किंतु यह खुद अपने आपमें गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास का प्रमुख अवरोधक भी है। जिन क्षेत्रों में यह व्यापक रूप से फैलता है वहां यह अनेक प्रकार के नकारात्मरक आर्थिक प्रभाव डालता है। प्रति व्येक्ति जीडीपी की तुलना यदि 1995 के आधार पर करें तो मलेरिया मुक्त क्षेत्रों और मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में पांच गुना अंतर नजर आता है। जिन देशों में मलेरिया फैलता है उनके जीडीपी में 1965 से 1990 के मध्य प्रतिवर्ष केवल 0.4 फीसदी की वृद्धि हुई वहीं मलेरिया से मुक्त देशों में यह 2.4 फीसदी रही। संक्रमण रोकने तथा इलाज करने के प्रयासों के होते हुए भी 1992 के बाद इसके मामलों में बढ़ोतरी होती जा रही है। यदि मलेरिया की वर्तमान प्रसार दर बनी रही तो अगले 20 वषरें में मृत्यु दर दोगुनी हो सकती है। इस मामले में खासतौर पर भारत जैसे देशों को अधिक सावधानी बरतने की जरूरत है, जहां लगभग हर जगह मलेरिया के विषाणुओं के पनपने की स्थितियां मौजूद हैं। अतीत में भारत पर मलेरिया का काफी आतंक रहा है। इसी को देखते हुए आजादी के तुरंत बाद राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम और राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम के तहत युद्धस्तर पर इस रोग पर काबू पाने की कोशिशें हुईं। इसके परिणाम सकारात्मक रहे। 1953 में जहां भारत में 7.5 करोड़ मामले दर्ज हुए और आठ लाख लोगों की मौत हुई वहीं 1965 में मलेरिया के मात्र एक लाख मामले सामने आए थे और कोई मौत नहीं हुई थी। यह सफलता तीन दशक तक जारी रही। लेकिन इसके बाद मलेरिया की चपेट में आने वालों की संख्या बढ़ने लगी और पिछले डेढ़ दशक से यह फिर हमारे लिए चिंता कारण बन गया है। इसका कारण है कि मच्छर अब कीट प्रतिरोधी बन गए हैं और उनके व्यवहार में भी बदलाव आया है। मलेरिया के परजीवी अब अपने को मारने वाली दवाओं से भी नहीं मरते। तापमान में बढ़ोतरी और भूजल के दोहन से धान की खेती के विस्तार ने ग्रामीण क्षेत्रों में मलेरिया को फैलाने का काम किया तो शहरी क्षेत्रों में झुग्गी-झोपडि़यों के विस्तार ने मलेरिया को खाद-पानी की आपूर्ति की। भले ही देश में मलेरिया के मामले बढ़ रहे हों लेकिन सरकारी आंकड़े कुछ और ही बयां कर रहे हैं। उदाहरण के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुसार 2006 में मलेरिया के 18 लाख मामले प्रकाश में आए और 1700 लोगों की मौत हुई। दूसरी ओर विश्व मलेरिया रिपोर्ट-2008 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के हवाले से बताया गया है कि 2006 में भारत में एक करोड़ छह लाख लोग मलेरिया से पीडि़त हुए और पंद्रह हजार मौतें हुईं। 2008 में भारत में मलेरिया से मरने वालों की तादाद चालीस हजार के आसपास थी। मलेरिया से पीडि़त होने और उससे होने वाली मौतों का सटीक अनुमान लगाना कठिन है। इसका कारण है कि मलेरिया से पीडि़त लोगों की संख्या के बारे में प्रामाणिक आंकड़ों का अभाव रहा है। मलेरिया की पहचान के जो तरीके अपनाए जा रहे हैं वे कारगर नहीं हैं। फिर मलेरिया के ज्यादातर रोगी ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। वे न तो चिकित्सालय जाते हैं और न ही उनके मामलों का लेखाजोखा रखा जाता है। स्पष्ट है कि मलेरिया पर राजनीति करने के बजाए इससे निपटने के अभियान के अलावा इसके पीछे काम कर रहे सामाजिक कारकों को दूर करने के कारगर प्रयास करने होंगे(रमेश दुबे,दैनिक जागरण,16.8.2010)।
जानलेवा है मलेरिया -बहुत सावधानी की जरूरत है ! बढियां लेख !
जवाब देंहटाएंमलेरिया गया ही कहां था जो वापस हो।
जवाब देंहटाएंहमारे यहां तो कुछ इलाके मलेरिया सेक्टर के रुप में चिन्हित हैं।
जहां जाने से पहले ही दो गोली लैरियेगो की खाकर जाना पड़ता है।
यह पुन: विस्तार पा रहा है,इस मौसम में।
मच्छरों के सामने तो अमेरिका की हाईटैक फ़ौजें भी बेबस हैं।
नाना पाटेकर का संवाद याद आया--एक मच्छर आदमी को.....!