रमजान के बारे में हदीस (मोहम्मद साहब की शिक्षा एवं उपदेश) में कहा गया है कि यह सब्र (संयम) का महीना है। इसका मतलब यह है कि रमजान में जो रोजा रखा जाता है वह वास्तव में संयम की शिक्षा और ट्रेनिंग है। इस महीने में व्यक्ति कुछ समय के लिए खाना-पीना छोड़ देता है। उसकी दिनचर्या बदल जाती है। आराम में कमी आती है, इस तरह यह एक तरह का त्याग है। हदीस में कहा गया है कि जब तुम में से कोई व्यक्ति रोजा रखे हो और दूसरा व्यक्ति उसे गाली दे, तो रोजा रखने वाले को कहना चाहिए, ‘मैं तो रोजादार हूं..मैं तो रोजादार हूं।’ अर्थात् मैंने अपने को बुरा कहने से रोक रखा है। गाली देने से अपने को रोक रखा है। नकारात्मक सोच से अपने को रोक रखा है। यह त्याग और संयम ही रोजे की मूल भावना है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने सामान्य जीवन में व्यक्ति किसी भी योग्य हो और किसी भी स्तर का हो, लेकिन रमजान में कम सोने, कम खाने और कम पीने के लिए कहा गया है। कमतर पर राजी होने की शिक्षा दी गई। ‘एतकाफ’ इसी का अंतिम रूप है। ‘एतकाफ’ की अवधि में इन तमाम वस्तुओं के इस्तेमाल में और कमी कर दी जाती है। जिसे हम आम भाषा में सादा जीवन कहते हैं, अर्थात् कम से कम आवश्यकताओं के अनुसार जिंदगी गुजारना और जीवन को सीमित रखना, रोजे में यही तमाम बातें सिखाई जाती हैं। आज के जीवन में इसका महत्व बहुत बढ़ गया है। इन्सान ‘ग्लोबल वार्मिग’ से परेशान है। यह वास्तव में लाइफ स्टाइल के कारण पैदा होने वाली समस्या है। रमजान के रोजों द्वारा इस समस्या को कम या समाप्त किया जा सकता है। इसलिए कि रमजान में रोजा रखा जाएगा तो जीवन में सादगी आएगी। व्यक्ति अपनी आवश्कताओं को सीमित करेगा और उसमें बहुत-से सद्गुण पैदा होंगे।
रोजे का एक महत्व और उद्देश्य सामाजिक भी है। जब हम भूखे व प्यासे रहेंगे तो हमें उन लोगों के दु:ख और आवश्यकताओं का भी एहसास होगा जिन्हें भूखा रहना पड़ता है। हमें अंदाजा होगा कि हमें कुछ देर के लिए स्वयं को खाने से रोकने पर कितना दु:ख हुआ और भूख लगी। तो जो लोग बराबर ऐसी स्थिति का सामना करने के लिए मजबूर हैं उनका क्या हाल होता होगा। इसीलिए हदीसों से पता चलता है कि हजरत मोहम्मद साहब रोजे के दिनों में बहुत दान आदि देते थे।
भारत जैसे बहुधर्मी और अनेक सभ्यताओं वाले देश में रोजे का अधिक महत्व है क्योंकि रोजा हमें संयम बरतना सिखाता है। जहां अनेक विचारधाराओं वाले लोग रहेंगे वहां जरूर खटपट होगी, आपस में शिकायतें भी। इसलिए चाहे वह मुसलमान हों या हिंदू आपस में शिकायतें हो सकती हैं। इन हालात में रोजे से मिलने वाली सब्र (संयम) की शिक्षा का बहुत महत्व है। अगर कोई आपको तकलीफ पहुंचाए या गाली भी दे, तो सब्र करें। मान लीजिए आप अपनी गाड़ी से कहीं जा रहे हैं और आपकी गाड़ी की दूसरी गाड़ी से टक्कर हो जाती है। ऐसे में अगर आप सब्र करेंगे तो टकराव और लड़ाई से बच जाएंगे। और बहुसभ्यता वाले समाज में सब्र से ही जिंदगी खुशगवार हो सकती है। बहरहाल यह स्पष्ट है कि सब्र, संयम या धैर्य जैसे गुणों का शांतिपूर्ण समाज में अपना महत्व है और यह सब गुण रोजा रखने से व्यक्ति में पैदा होते हैं, और एक अच्छे समाज के निर्माण में सहायक होते हैं।
रोजों का आर्थिक महत्व भी है। रोजों में खाना छोड़ देने से हमें खाने का महत्व पता चलता है। पानी न पीने से पानी के महत्व का अंदाजा होता है। जब आप खाने व अन्न के महत्व को समझेंगे तो खेती के विकास को महत्व देंगे। पानी की बर्बादी से बचेंगे और जल संचयन करेंगे और इस तरह समाज में अन्न और जल के लिए एक सकारात्मक सोच पैदा होगी। रोजा मानव समाज को एक-दूसरे का आदर करना भी सिखाता है, लोग एक-दूसरे के दु:ख और तकलीफ को समझकर उनके काम आते हैं, उनकी भावनाओं का आदर करते हैं। यह भी जान लेना आवश्यक है कि रोजा शरीर के हर भाग का होता है। अर्थात् कान को बुराई सुनने, जबान को बुरा कहने और आंख को बुरा देखने से बचना चाहिए।
रोजा सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर नियंत्रण की शिक्षा देता है और जिस समाज में आप रह रहे हैं उसके लिए आपको अपने कर्तव्य निभाने की शिक्षा देता है। समाज के तमाम दु:ख-दर्द में आपको भागीदार बनने की शिक्षा देता है। रोजा इन्सान के बाहरी और आंतरिक व्यक्तित्व में पवित्रता लाता है और उसे शारीरिक, सामाजिक व भावनात्मक रूप से एक अच्छा इन्सान बनाता है। जब समाज में अच्छे इन्सानों की तादाद अधिक होती है तो वह समाज शांतिपूर्ण समाज होता है, खुशहाल समाज होता है, समानता पर आधारित समाज होता है। इस तरह व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर भी रोजे का बहुत महत्व है।
रोजे के बाद आने वाला ईद का त्यौहार भी हमें आपसी मेल-मिलाप और भाईचारे का संदेश देता है। हम एक दूसरे से दिल खोलकर मिलते हैं। एक-दूसरे को सिंवई आदि के रूप में कुछ मीठा पेश करते हैं। अर्थात् रोजों के महीने यानी रमजान का अंत भी बहुत अच्छे और सद्भावपूर्ण माहौल में होता है। इस तरह रोजा हमें संयम, दूसरों के दु:ख-दर्द को समझना और समाज के काम आने की शिक्षा देता है और सामाजिक समस्याओं के हल में सहायक सिद्ध है।
मांसाहार और इस्लाम
क्या ये रोज़े पूरे साल नहीं हो सकते ।
जवाब देंहटाएंआज आवश्यकता तो इसी की है ।
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं ।