सोमवार, 9 अगस्त 2010

आबादी और स्वास्थ्य

पिछले हफ्ते लोकसभा में देश की जनसंख्या को स्थिर रखने के बारे में चर्चा करते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद ने जो कुछ कहा उससे उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के कान खड़े हो जाने चाहिए। इन दोनों राज्यों में आबादी जिस दर से प्रतिवर्ष बढ़ रही है, वह हमारे संसाधनों को देखते हुए गंभीर चिंता का विषय है। मध्य भारत जिसमें राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड भी शामिल है, आबादी की वृद्धि दर वांछित दर से दोगुनी हो चुकी है। आज पश्चिमी देशों ने जनसंख्या स्थिरीकरण के मामले में सफलता पा ली है और कई यूरोपीय देशों ने तो आबादी की वृद्धि दर को नकारात्मक स्तर पर लाकर यह लक्ष्य पाया है जबकि भारत और चीन में तो जनसंख्या विस्फोट जैसी स्थिति है। अनुमान लगाए गए हैं कि २०५० तक आबादी के मामले में भारत चीन से भी आगे निकल जाएगा जबकि आकार और संसाधनों के मामले में चीन भारत से कहीं बड़ा देश है। तब चीन की १ अरब ३९ करोड़ की आबादी की तुलना में भारत की आबादी १ अरब ५३ करोड़ के लगभग होगी। इस बात को ध्यान में रखकर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने २००१ में टोटल फर्टिलिटी रेट (टीएफआर) को २०१० तक २.१ तक रखने का लक्ष्य निर्धारित किया था ताकि २०४५ तक जनसंख्या स्थिरीकरण संभव हो जाए। यानी उतने ही शिशु जन्म लें, जितने लोगों की एक साल में मृत्यु हो। आज समीक्षा करने पर पाया गया है कि तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, गोवा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, सिक्किम, चंडीगढ़, पांडिचेरी (पुडूचेरी) और अंडमान निकोबार द्वीप समूह तो यह टीएफआर या सकल प्रजनन दर प्राप्त कर लेंगे लेकिन मध्य भारत के कारण इस मामले में भारत का भट्ठा बैठ जाएगा। दुनिया में जितनी जमीन है, उसका सिर्फ २.४ प्रतिशत हिस्सा भारत के पास है, जबकि कुल जनसंख्या की तुलना में हम १७ प्रतिशत हैं। जाहिर है , इतनी बड़ी आबादी का भरण-पोषण बेहद चुनौतीपूर्ण काम है। जनसंख्या नियंत्रण के मामले में दो तरह के दृष्टिकोण हैं। पहला तो यह है कि आबादी का विस्तार अगर रोकना है तो विकास कार्यों में तेजी लाई जाए ताकि आदमी को रोजगार के साथ-साथ स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा के अवसर मिलें। इस दृष्टिकोण के समर्थक विकास को ही गर्भनिरोधक के रूप में देखते हैं। दूसरे दृष्टिकोण वाले गर्भनिरोधकों के प्रचार-प्रसार को आबादी नियंत्रण के लिए ज्यादा मुफीद मानते हैं। लेकिन कोई भी दृष्टिकोण समान रूप से सभी देशों पर लागू नहीं होता। हमारे अपने ही देश में जहां प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश से आगे रहा है, वहां अपेक्षया विकास ने गर्भनिरोधक की-सी भूमिका अदा की है। इससे यह नतीजा निकलता है कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे राज्यों में जनसंख्या नियंत्रण के लिए परिवार कल्याण कार्यक्रमों पर बल देना होगा। इमरजेंसी के दौरान संजय गांधी की प्रेरणा से चलाए गए नसबंदी कार्यक्रम से कांग्रेस इतनी बुरी तरह अपने हाथ जला चुकी है कि मौजूदा सरकार सहित कोई भी सरकार इस तरह के कार्यक्रम चलाने की हिम्मत नहीं कर सकती। गुलाम नबी आजाद ने लोकसभा में स्पष्ट कह भी दिया है कि जबरन नसबंदी जैसे कार्यक्रम नहीं चलाए जाएंगे। लेकिन अगर आज शरद यादव जैसे जय प्रकाशवादी-लोहियावादी संजय गांधी की भूमिका की तरफ सकारात्मक संकेत कर रहे हैं तो हमें यह तो सोचना ही चाहिए कि दबाव से नहीं तो क्या पुचकार से-प्रोत्साहन से भी यह काम नहीं किया जाना चाहिए। चीन में वर्षों से एक संतान-एक परिवार का कार्यक्रम लागू है जिसकी अंतर्निहित विसंगतियों के बावजूद देश और समाज के लिए उसके नतीजे काफी सार्थक रहे हैं। इसलिए यह विषय नए सिरे से इस समस्या पर सोचने की मांग करता है। भारत पहला ऐसा देश है जिसने करीब ४० साल पहले परिवार नियोजन के बारे में गंभीरता के साथ सोचा। अगर ज्यादतियां हुईं और देश ने उसका प्रायश्चित भी कर लिया तो क्या सदा-सर्वदा के लिए इस बदनाम शब्द को ही निर्वासन का अभिशाप दे दिया जाए? इसकी जगह लाए गए परिवार कल्याण शब्द के इस्तेमाल में भी अतिरिक्त सावधानियां बरती जाएं? जनसंख्या विस्फोट के खतरे को देखते हुए तो यह शब्द हमारे राष्ट्रीय विमर्श और नीति निर्धारण प्रक्रिया का अनिवार्य शब्द बनना चाहिए। गुलाम नबी आजाद ने जनसंख्या के स्थिर न होने के जो कारण गिनाए हैं उन्हें कौन नहीं जानता। यह कि गरीबी और जल्दी विवाह करने की प्रवृत्ति इसके लिए जिम्मेदार है या यह कि कानून के बल से जनसंख्या स्थिरीकरण का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। यह तो सबको पता है। सरकार को बताना चाहिए कि उसने उच्च कोटि की स्वास्थ्य सेवाएं क्यों नहीं दीं? आज भी डॉक्टर गांवों में नहीं जाते और स्वास्थ्य कर्मचारियों की हजारों नौकरियां खाली पड़ी हैं। पूछा जाना चाहिए कि क्या हमारी सरकारों ने शिशु मृत्यु दर को कम करने और प्रसूति के दौरान जच्चा को बचाने के कार्यक्रमों पर उतना ध्यान दिया है, जितना उसे देना चाहिए था? गर्भनिरोधकों का प्रचार-प्रसार क्यों ठंडा पड़ गया जबकि बड़ी कंपनियां गर्भनिरोधकों के उपयोग को राष्ट्रीय लक्ष्य के बजाय आनंद के साधन की तरह पेश कर रही हैं। इनका उपयोग करने वाले तो वैसे भी जागरूक लोग हैं। शिक्षित तो उन्हें किया जाना है जो अनजान हैं, गरीब हैं। वैसे गरीब लोग भी आज ज्यादा संतान नहीं चाहते। मगर एक तो वे साधनहीन हैं और दूसरे कोई उन्हें छोटे परिवार की उपयोगिता के बारे में नहीं बताता। तीसरे स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव के कारण और कुपोषित बच्चों के मरने के कारण वे मजबूरन दो से ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं। इसलिए सबसे जरूरी यह है कि स्वास्थ्य मंत्री प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का देश में जाल बिछवाएं और उन्हें आधुनिक साधनों से संपन्न करें। डॉक्टरों को वहां जाने के लिए प्रोत्साहन दिया जाए और जरूरी हो( संपादकीय,नई दुनिया,दिल्ली,8.8.2010)

2 टिप्‍पणियां:

  1. विचारणीय..आभार इस सारगर्भित आलेख के लिए.

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  2. सामाजिक परिवर्तन शिक्षा के द्वारा ही लाया जा सकता है । जिन बातों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए थी उन्हे मध्यवर्ती सूची में डाल के उनका भट्ठा बैठा दिया गया - शिक्षा और स्वस्थ्य । धोबी का कुत्ता .........

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