सोमवार, 19 जुलाई 2010

आयुर्वेदिक दवाओं का मानकीकरण रामभरोसे

लीवर संक्रमण, हृदय रोग, आर्थराइटिस, एनीमिया, चेस्ट संक्रमण जैसी कई गंभीर बीमारियों के लिए विशेषज्ञ आयुर्वेदिक दवाओं को रामबाण मानते हैं। साथ ही औषधीय (हर्बल) प्रजातियों का इस्तेमाल हजारों वर्षो से हो रहा है। बावजूद इसके आयुर्वेद को प्रोत्साहित करने के प्रति सरकार गंभीर नहीं है। आयुर्वेदिक दवाओं के मानकीकरण के लिए पूरे देश में सिर्फ एक प्रयोगशाला है। इस क्षेत्र में अनुसंधान न होने की वजह से आजादी के 63 वर्ष बाद भी कोई नई औषधि खोजने में सफलता नहीं मिली है।
इस बाबत आयुर्वेद विशेषज्ञ डॉ. आरपी पराशर का कहना है कि आयुर्वेदिक दवाओं के मानकीकरण के लिए व्यवस्थाएं ठीक नहीं हैं। गाजियाबाद में सिर्फ एक लैब है, जहां थोड़ा बहुत काम हो रहा है। यही वजह है कि भारत में तैयार होने वाली आयुर्वेदिक दवाएं कई बार विकसित देशों में विवादों के घेरे में आ जाती हैं। डॉ. पराशर का कहना है कि इस क्षेत्र में अनुसंधान भी नहीं हो रहा है।
दूसरी तरफ एलोपैथी में अनुसंधान के लिए मल्टीनेशनल कंपनियां काफी धन लगा रही हैं। इसके चलते आयुर्वेद पिछड़ता जा रहा है। एक दशक पहले नेशनल प्लान मेडिसिन बोर्ड का गठन किया गया था। हर्बल खेती को प्रोत्साहन, किसानों को कम ब्याज दर पर ऋण आदि की व्यवस्था करना बोर्ड की जिम्मेदारी है। बोर्ड के गठन के बाद स्थिति में सुधार आया है। ऑल इंडिया आयुर्वेद कांग्रेस के अध्यक्ष देवेंद्र त्रिगुना का कहना है कि प्राचीन समय से ही हर्बल औषधियों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। आज भी इनकी मांग बहुत ज्यादा है।
कल तक 15-20 हजार रुपए प्रतिकिलो आसानी से उपलब्ध केसर आज डेढ़ से दो लाख रुपए में भी बमुश्किल ही मिल पा रहा है। कई औषधियां तो पहले हिमालय के निचले इलाकों में भी मिल जाती थी, लेकिन आज वे ऊपरी- हिमालय में भी नहीं मिल पा रही हैं। लगभग एक दर्जन प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। टीसू कृषि पद्धति एवं किसानों को इनकी खेती करने के लिए प्रोत्साहित करने से विलुप्त होती औषधियों को बचाया जा सकता है।
गौरतलब है कि भारतीय इलाज की प्राचीन पद्धतियों एवं औषधीय प्रजातियों को बचाने के लिए आयुष विभाग का गठन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन किया गया है। आयुष को हाईटेक बनाने के लिए विशेष बजट भी स्वीकृत है। साथ ही प्राचीन पद्धतियों के प्रचार के लिए भी कई तरह के संचार कार्यक्रम बनाए गए हैं। इसके बावजूद विलुप्त औषधियों को बचाने के लिए योजनाएं केवल फाइलों तक सिमट कर रह गई हैं(धनंजय कुमार,दैनिक भास्कर,दिल्ली,19.7.2010)।

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