देश में मेडिकल टूरिज्म जोर पकड़ रहा है। बताया जा रहा है कि बड़ी संख्या में विदेशी हमारे देश के अस्पतालों में इलाज कराने आ रहे हैं। ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि स्वास्थ्य क्षेत्र को भी देश में किसी बड़े उद्योग के मॉडल पर विकसित किया जाए। देश में कई बड़े अस्पतालों और उनकी चेन का निर्माण मुनाफा कमाने वाले उद्योग की शैली में ही किया गया है। यह उद्योग खासा चल निकला है,अच्छा मुनाफा दे भी रहा है। जहां तक दवा उद्योग का सवाल है, वह तो काफी पहले से ही मोटे मुनाफे पर आधारित उद्योग की तरह चल रहा है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमारे नागरिकों में से ज्यादातर की माली हालत इन अस्पतालों में इलाज कराने की नहीं है।
सरकार से सस्ती या लगभग मुफ्त जमीन हासिल करने के लिए ये अस्पताल गरीब मरीजों का नि:शुल्क या सस्ते इलाज का वादा तो करते हैं,लेकिन इस पर अमल नहीं करते। ऐसे में अगर स्वास्थ्य क्षेत्र का विकास मुनाफा कमाने वाले उद्योग की तर्ज पर किया जाएगा,तो इससे आम आदमी की मुश्किलें और ज्यादा बढ़ेंगी। बहरहाल, समस्या सिर्फ इलाज महंगा होते जाने की नहीं है।
डॉक्टर के पर्चे की ताकत
जब कोई व्यक्ति बाजार में कोई भी चीज खरीदने जाता है तो वह उसे कई दुकानों पर देखता-परखता है, महंगी-सस्ती पूछता है। फिर तय करता है उसे खरीदे या न खरीदे। कम खरीदे या ज्यादा खरीदे, या कोई और विकल्प ढूंढे। लेकिन जब डॉक्टर एक पर्ची पर दवा लिख देता है, तो मरीज या उसके परिजन के पास इसके सिवा कोई और चारा नहीं होता कि वह ठीक वही दवा और उतनी ही खरीदे, जिसे डॉक्टर ने पर्ची पर लिखा है। डॉक्टर की पर्ची की इतनी विशिष्ट स्थिति और ताकत को देखते हुए दवा और स्वास्थ्य क्षेत्र को किसी भी दूसरे उद्योग की तरह मानना गलत होगा। अन्य मामलों में व्यक्ति अपना भला-बुरा तय करने में समर्थ हो सकता है, लेकिन दवा व स्वास्थ्य सेवा के मामले में वह पूरी तरह डॉक्टर की सलाह पर निर्भर है। इसलिए दूसरे उद्योगों के मुकाबले स्वास्थ्य व दवा के क्षेत्र में जिम्मेदारी सुनिश्चित करना और भी ज्यादा जरूरी है।
दवाएं और टेस्ट फालतू तो नहीं
हमारे देश में ज्यादातर मरीजों को अपनी बीमारी और उसके इलाज या दवाओं से संबंधित विस्तृत जानकारी नहीं होती है। जब तक इलाज ठीक तरह से चलता है, तब तक तो इसमें कोई विशेष समस्या नहीं होती। लेकिन अगर कभी बहुत से गैरजरूरी टेस्ट लिख दिए जाते हैं या फालतू की महंगी दवाएं बता दी जाती हैं,तो दिक्कतें बढ़ जाती हैं। यह मामला सिर्फ अनावश्यक खर्च का नहीं है बल्कि गैरजरूरी दवाओं और टेस्टों से मरीजों को शारीरिक या मानसिक नुकसान भी हो सकता है। कई बार नए महंगे इलाज और तकनीक आजमाइश के दौर में होते हैं। इस स्थिति में दवा कंपनियों और अस्पतालों अथवा डॉक्टरों की सांठगांठ से मरीजों पर अनावश्यक नया इलाज थोप दिए जाने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसी हालत में मरीज को कोई नई बीमारी भी हो सकती है। उसके इलाज की अवधि और खर्च तो इससे बढ़ ही जाते हैं।
इन समस्याओं के उल्लेख का मतलब यह नहीं है कि ऐसा सभी मरीजों के साथ होता है। बहुत से मरीज तो हंसी-खुशी अस्पताल को धन्यवाद देते हुए वहां से लौटते हैं। पर जिन समस्याओं का यहां जिक्र किया गया है, अस्पतालों में उनके पैदा होने की संभावना से पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता। अपनी बीमारी को लेकर पहले से परेशान मरीज को तरह-तरह से भ्रमित करने और उसे जानकारी नहीं होने का बेजा फायदा उठाने की जितनी संभावना स्वास्थ्य के क्षेत्र में है, उतनी दूसरी जगह नहीं है। इसी तरह वाजिब कीमत से कहीं ज्यादा और अनैतिक मुनाफा अर्जित करने की जितनी संभावना दवा के व्यवसाय में है, उतनी शायद किसी दूसरी इंडस्ट्री में नहीं है।
यही वजह है कि हम स्वास्थ्य और दवा क्षेत्र को किसी भी दूसरे उद्योग की तरह नहीं मान सकते हैं। इधर इस क्षेत्र में भी ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ रही है,इसलिए कुछ सावधानियों का पालन करना जरूरी हो गया है। पहली जरूरत तो यह है कि इस क्षेत्र में पारदर्शिता बढ़ाई जाए, साथ ही इसे कानूनी मान्यता भी दी जाए। इसका व्यावहारिक रूप यह होगा कि मरीज के इलाज के हर पहलू की जानकारी लिखित रूप में मरीज या उसके परिजन को दी जाएगी। यह लिखित रेकॉर्ड मौजूदा रेकॉर्डों से कहीं अधिक विस्तृत होगा। प्रेस्किप्शन यानी डॉक्टर के पर्चे के रेकॉर्ड के रूप में प्रत्येक डॉक्टर को इलाज की लिखित जिम्मेदारी लेनी होगी।
दूसरी बड़ी जरूरत स्वास्थ्य क्षेत्र में नियंत्रक या रेगुलेटरी एजेंसी को मजबूत करने की है। यह तय करना होगा कि ऐसी एजेंसी पूरे देश में मौजूद हो। इसका एक काम यह होगा कि कोई भी मरीज इसके पास अपना रेकॉर्ड यानी डॉक्टर की पर्ची लाकर यह जांच करवा सकता है कि उसका इलाज मेडिकल साइंस के कायदों के मुताबिक हुआ या नहीं। कहीं उसे फालतू की दवाएं तो नहीं दी गईं और गैरजरूरी टेस्ट तो नहीं करवाए गए। ऐसे में मरीजों को उचित इलाज मिलेगा और अनावश्यक इलाज या टेस्ट से उनके बचने की संभावना बढ़ जाएगी।
कैसे मिले सस्ती दवा
यदि दवा उद्योग महंगी दवा बेच रहा है तो डॉक्टर व अस्पताल चाहकर भी मरीज को सस्ती दवाएं नहीं दे सकते। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि दवाओं की कीमतों पर काबू पाने के लिए आवश्यक दवाओं की लिस्ट जारी करने जैसे उपाय किए जाएं। नुकसानदेह और गैरजरूरी दवाओं के इस्तेमाल पर रोक लगाना भी जरूरी है। सरकार जरूरी दवाओं के उत्पादन में अपनी स्थिति मजबूत बनाए। आईडीपीएल जैसे बीमार सार्वजनिक उपक्रमों की गलतियों से सबक लेकर उन्हें नया जीवन देना चाहिए। इस मामले में 'लोकास्ट' जैसी सेवाभावी संस्थाओं से सीख लेनी चाहिए जिन्होंने अच्छी क्वॉलिटी की सस्ती दवाओं का उत्पादन व वितरण संभव किया है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेटेंट कानूनों में ढील देकर व अन्य उपायों से भी सस्ती दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करनी चाहिए(भारत डोगरा,नवभारत टाइम्स,29.6.2010)।
जानकारी के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंएक सुझाव, कृपया जानकारी को छोटे छोटे पैरों में बाँट दिया करें, तो पढना सुविधाजनक हो जाता है।
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दिव्य शक्ति द्वारा उड़ने की कला।
किसने कहा पढ़े-लिखे ज़्यादा समझदार होते हैं?