गुरुवार, 1 जुलाई 2010

छोटी दवा कंपनियों के हितों पर करारी चोट

फार्मास्युटिकल्स सेक्टर में जो खेल चल रहा हैउसमें लघु और मझोली दवा कंपनियों को नुकसान ही होगा। बड़ी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को इससे फायदा मिलेगा। केंद्र सरकार के अस्पतालों को दवा सप्लाई के लिए राइट्स लि. जो शर्ते थोप रहा है, उससे एसएमई सेक्टर में बेचैनी पैदा हो रही है। पहले तो राइट्स ने दवा सप्लाई के लिए कंपनी के टर्नओवर की शर्त में बदलाव किया। न्यूनतम टर्नओवर 3 करोड़ से बढ़ाकर 35-50 करोड़ रुपये कर दिया। इससे तमाम छोटी कंपनियां पात्रता शर्त में ही बाहर हो गई। अब राइट्स ने इन कंपनियों के लिए डब्ल्यूएचओ-जीएमपी (गुड मैन्यूफेक्चरिंग प्रैक्टिस)को अनिवार्य कर दिया। यह शर्त पूरी करना भी एसएमई सेक्टर की दवा कंपनियों के लिए मुश्किल होगा। अभी तक डब्ल्यूएचओ-जीएमपी सिर्फ निर्यातक कंपनियों के लिए अनिवार्य था। इसके तहत निर्धारित मानक पूर करने में कंपनियों को करीब एक-डेढ़ करोड़ रुपये खर्च करने पड़ेंगे। यह पैसा खर्च कर पाना छोटी दवा कंपनियों के लिए मुश्किल होगा। दरअसल विश्व स्वास्थ्य संगठन देश में 2003 से फूड एंड हैल्थ प्रोग्राम चला रहा है। 35 साल तक चलने वाले इस कार्यक्रम के लिए डब्ल्यूएचओ पैसा मुहैया करा रहा है। यही वजह है कि उसकी शर्तो पर ही राइट्स ने बंदिश लगाकर छोटी दवा कंपनियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। डब्ल्यूएचओ बड़ी कंपनियों की हितैषी बनकर सामने आ गया है। छोटी दवा कंपनियों के सामने मुश्किल यह है कि वे खुले बाजार में बड़ी कंपनियों के सामने आसानी टिक ही नहीं पाती हैं, ऐसे में अगर सरकारी अस्पतालों को सप्लाई करने का बाजार भी उनके हाथ से निकल गया तो उनके अस्तित्व पर ही संकट आ जाएगा। सरकारी अस्पतालों की खरीद कुल दवा बाजार में खासी अहमियत रखता है। केंद्र सरकार के ही अस्पताल करीब 5000-6000करोड़ रुपये की दवाओं की खरीद करते हैं। इसके अलावा राज्य सरकारों के अस्पताल अलग से खरीद करते हैं। करीब एक लाख करोड़ रुपये के भारतीय दवा बाजार में सरकारी खरीद की अहमियत इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाती है। इन शर्तो के पहले छोटी दवा कंपनियों सरकारी अस्पतालों को करीब 75फीसदी दवाओं की सप्लाई करती थी। इसमें से करीब 15-20 फीसदी दवाओं की सप्लाई प्रत्यक्ष रूप से की जाती थी। बाकी दवाओं की सप्लाई बड़ी कंपनियों के जरिये की जाती थी। बड़ी कंपनियां बहुत तरह की दवाएं छोटी कंपनियों से ही बनवाती हैं। नई शर्तो से प्रत्यक्ष बाजार छोटी कंपनियों के हाथ से निकल जाएगा। बड़ी कंपनियों की आउटसोर्सिग के जरिये मिले बाजार में छोटी कंपनियों को मार्जिन बहुत कम मिल पाता है। छोटी कंपनियों में उत्पादन की बेहतर प्रक्रिया को बढ़ावा देना किसी भी तरह से गलत नहीं माना जा सकता है लेकिन वित्तीय मदद देने की ऐवज में थोपी गई शर्ते स्वीकार करने एसएमई सेक्टर का रास्ता रोकना ठीक नहीं है। रोजगार देने और सकल घरलू उत्पादन (जीडीपी) में योगदान के मामले में एसएमई सेक्टर देश के लिए कहीं ज्यादा अहमियत रखता है। सरकार को विदेशी वित्तीय मदद स्वीकार करने से पहले घरलू उद्योगों के हितों को ध्यान में रखकर शर्तो पर गहराई से विचार करना चाहिए(संपादकीय,बिजनेस भास्कर,दिल्ली,30.6.2010)।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

एक से अधिक ब्लॉगों के स्वामी कृपया अपनी नई पोस्ट का लिंक छोड़ें।