मंगलवार, 13 जुलाई 2010

सही उपचार का इंतजार

झोलाछाप डाक्टरों द्वारा ढाए गए कहर की खबरें अखबारों में अक्सर छपती रहती हैं। गले में सूजन जैसी साधारण बीमारी को लेकर मरीज झोलाछाप डाक्टर के पास गया। कथित डाक्टर ने उल्टी सीधी दवा लिख दी। रोग बढ़ता गया। अंत में मरीज रजिस्टर्ड डाक्टर के पास गया तो पता लगा कि मरीज को गले में कैंसर है। इस प्रकार के फर्जी इलाज से कभी-कभी मरीज की जान भी चली जाती है। इस प्रकार की घटनाओं से उद्वेलित होकर मांग उठ रही है कि झोलाछाप डाक्टरों के विरुद्ध सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए, जो कि उचित ही है। फिर भी यह ध्यान रहे कि पंजीकृत डाक्टरों द्वारा भी इसी प्रकार की गड़बड़ी की जाती है। कोई महिला अध्यापिका स्कूल में गिर पड़ी। घुटने में चोट आई। हड्डी के डाक्टर ने एक्सरे लिया और कहा कि पूरे पैर का प्लास्टर लगवाओ। प्लास्टर बांधने के लिए मोटी रकम वसूल कर ली। घर आई तो उन्होंने दूसरे जानकार डाक्टर मित्र को दिखलाया। उन्होंने कहा कि हड्डी में तनिक भी फ्रैक्चर नहीं है। उन्होंने प्लास्टर खुलवा दिया और केवल गर्म पानी से सेंकने को कहा। कुछ ही समय में दर्द समाप्त हो गया। रजिस्टर्ड डक्टरों द्वारा कमीशन के चक्कर में तमाम अनावश्यक टेस्ट मरीजों पर थोपे जा रहे हैं। विश्व स्वास्थ संगठन की कुछ वर्ष पूर्व की विश्व स्वास्थ्य रपट में कहा गया था कि प्राइवेट डाक्टरों द्वारा अनावश्यक एंटीबायटिक दवाएं दी जा रही हैं। देखने में आता है कि मामूली रोग पर सीटी स्कैन तथा एमआरआई कराया जाता है, क्योंकि डाक्टर को कमीशन मिलता है। गलत इलाज रजिस्टर्ड डाक्टरों के द्वारा भी किए जाते हैं। अंतर इतना है कि रजिस्टर्ड डाक्टरों के पास लाइसेंस टू किल है। इनके द्वारा गलत उपचार से मरीज की मृत्यु हो जाए तो उसे अनहोनी कहा जाता है, जबकि झोलाछाप से वैसा ही हो जाए तो उसे अपराध कहा जाता है। झोलाछाप और रजिस्टर्ड डाक्टर, दोनों में से कुछ गड़बड़ी करने वाले हैं। इनके नियंत्रण को स्वतंत्र एजेंसी स्थापित करनी चाहिए। सरकारी डाक्टर मुख्यत: रजिस्टर्ड श्रेणी में आते हैं। अत: जिले के मुख्य चिकित्साधिकारी का झुकाव रजिस्टर्ड डाक्टरों के हित हासिल करने की ओर होता है। इसलिए रजिस्टर्ड डाक्टरों की गड़बड़ी की सही तस्वीर उभर कर नहीं आती है। इसके अलावा सरकारी डाक्टरों की गड़बड़ी की सुनवाई सरकारी डाक्टर स्वयं करते हैं। जज भी सरकारी डाक्टर और मुजरिम भी सरकारी डाक्टर। ऐसे में मरीज को न्याय नहीं मिलता है। अत: झोलाछाप, रजिस्टर्ड प्राइवेट एवं सरकारी डाक्टरों-सभी के विरुद्ध शिकायतों के निस्तारण के लिए अलग से लोकायुक्त जैसी व्यवस्था बनानी चाहिए। झोलाछाप डाक्टरों द्वारा सस्ता इलाज दूरस्थ इलाकों में उपलब्ध कराया जा रहा है। ग्रामीण इलाकों में सरकारी स्वास्थ्य सेवा अनुपलब्ध है, क्योंकि सरकारी डाक्टर शहरों में पोस्टिंग चाहते हैं। यदि झोलाछाप डाक्टरों की दुकान बंद करा दी गई तो इन दूरस्थ क्षेत्रों के मरीजों को कठिनाई होगी। इसके अतिरिक्त रजिस्टर्ड डाक्टरों की फीस अधिक होती है। यदि झोलाछाप डाक्टरों से प्रतिस्पर्धा समाप्त हो गई तो रजिस्टर्ड डाक्टर खूब चांदी काटेंगे। ध्यान दें कि झोलाछाप डाक्टरों के विरुद्ध मुहिम छेड़ने में मरीज नहीं, बल्कि रजिस्टर्ड डाक्टर आगे रहते हैं। ये चाहते हैं कि झोलाछाप डाक्टरों का सफाया हो जाए, मरीज के हाथ में कोई विकल्प न बचे और उन्हें मनमानी फीस वसूल करने का अवसर मिल जाए। इस समस्या से निपटने के लिए डाक्टरों की सप्लाई बढ़ानी होगी। डाक्टरों की संख्या अधिक होने पर इनमें आपसी प्रतिस्पर्धा होगी और इनकी फीस तथा लोगों के साथ धोखाधड़ी स्वत: कम हो जाएगी। सप्लाई बढ़ाने को दो कार्य करने चाहिए। एक यह कि झोलाछाप डाक्टरों की अलग परीक्षा प्रणाली स्थापित करनी चाहिए। चार्टर्ड एकाउंटंेंट बनने के लिए कुछ परीक्षाएं पास करनी होती हैं और किसी रजिस्टर्ड एकाउंटेंट के अधीन ट्रेनिंग करनी होती है। झोलाछाप डाक्टरों की भी इसी प्रकार परीक्षा ली जा सकती है और उन्हें सीमित दायरे के उपचार करने का कानूनी अधिकार दिया जा सकता है। जिस प्रकार होटल एक सितारे से पांच सितारे तक श्रेणीबद्ध होते हैं उसी प्रकार झोलाछाप डाक्टरों को एक सितारा और सुपर स्पेशलिस्ट डाक्टरों को पांच सितारा का पंजीकरण दिया जा सकता है। झोलाछाप डाक्टरों का पंजीकरण करने से इनकी जवाबदेही बनेगी। दूसरा उपाय है रजिस्टर्ड डाक्टर बनने के लिए प्राइवेट परीक्षा की व्यवस्था कर दी जाए। तमाम ऐसे कंपाउंडर और फार्मेसिस्ट हैं जो रजिस्टर्ड डाक्टरों से ज्यादा अनुभवी एवं सफल हैं। इन्हें दवा का पर्चा लिखने का अधिकार नहीं है। जिस प्रकार बीए की परीक्षा प्राइवेट धारा से दी जा सकती है उसी प्रकार मेडिकल परीक्षा को प्राइवेट धारा से देने की व्यवस्था करनी चाहिए। ऐसा करने से रजिस्टर्ड डाक्टरों की सप्लाई बढ़ जाएगी, ये दूरस्थ ग्रामीण इलाकों में अपने क्लीनिक स्थापित करेंगे और इनकी फीस भी कम हो जाएगी। तब मरीजों को झोलाछाप डाक्टरों की शरण में कम ही जाना पड़ेगा। यह विषय हमारी अपनी स्वास्थ्य परंपरा से भी जुड़ा हुआ है। अपने देशों में वैद्यों, पंडितों, ज्योतिषियों के पंजीकरण की परंपरा नहीं थी। नवयुवक किसी प्रतिष्ठित वैद्य के पास पांच दस वषरें तक ट्रेनिंग करता था और समयक्रम में स्वयं वैद्य बन जाता था। इस परंपरा में विकेंद्रीकरण स्वत: हो जाता है। अलग-अलग वैद्य अलग-अलग तरीकों से उपचार की पद्धति विकसित करते थे। आयुर्वेद का सिद्धांत है कि हर रोग का उपचार स्थानीय जड़ी बूटियों में उपलब्ध है। जरूरत है कि स्थानीय भूगोल तथा वातावरण के अनुकूल स्थानीय जड़ी बूटियों पर शोध किया जाए। यह शोध किसी एयर कंडीशंड लैबोरेट्री में नहीं, बल्कि वैद्य द्वारा मरीजों को अलग-अलग स्थानीय जड़ी बूटियों का सेवन कराकर किया जाता था। यह पद्धति आर्थिक दृष्टि से कुशल थी। गर्म और ठंडे, सूखे और नम वातावरण में सहज ही अलग-अलग उपचार की पद्धतियां विकसित हो जाती थीं। उपचार का खर्च भी कम आता था, जैसे मरीज को बताया जाए कि तुलसी के दो पत्ते रोज चबाकर खाओ तो खर्च भी कम आता है, क्योंकि यह पौधा अनेक घरों में उपलब्ध है। उपचार की यह परंपरागत पद्धति अब मृतप्राय हो रही है। अनुभवी वैद्य को झोलाछाप बता शर्रि्मदा और अपमानित किया जा रहा है। रजिस्टर्ड डाक्टर क्लर्कजैसे होते हैं। उनका काम किताब में बताए अनुसार नुस्खा लिखना मात्र होता है। उनकी स्वतंत्रता मात्र इतनी होती है कि तय करें कि किताब के किस पन्ने पर लिखी उपचार पद्धति का पालन करना है। यह व्यवस्था आर्थिक दृष्टि से अकुशल है। किसी नई जानकारी के मध्यधारा उपचार में प्रवेश करना बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों और केंद्रीकृत सरकारी अधिकारियों के विवेक पर निर्भर हो जाता है। दुर्भाग्य है कि वर्तमान आयुश व्यवस्था ने पश्चिम की इस अकुशल केंद्रीकृत प्रणाली को अपना लिया है। अत: हमें सावधान रहना चाहिए कि झोलाछाप डाक्टरों के विरुद्ध छेड़ी गई मुहिम में हम अपनी कुशल उपचार परंपरा को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में नष्ट न कर दें(डॉ. भरत झुनझुनवाला,दैनिक जागरण,13.7.2010)।

2 टिप्‍पणियां:

  1. झोला-छाप डॉक्टरों की महत्ता का सही विश्लेषण किया है और बहुत ही व्यावहारिक सुझाव दिये हैं । इंजीनियरिंग के क्षेत्र में आईटीआई, डिप्लोमा, इंजीनियरिंग है ; क्यों न स्वास्थ्य-सेवा को भी त्रिस्तरीय बनाया जाय? क्यों नहीं साल-दो साल के मेडिकल पाठ्यक्रम आरम्भ किये जांय?

    यहाँ तो बिडम्बना यह है कि देश की मेडिकल काउंसिल चोर है; पब्लिक स्कूलों से पढ़े-लिखे और आम आदमी के टैक्स से डॉकटरी की शिक्षा पाये ये 'अंग्रेज' गाँव की जनता से घृणा करते हैं; गाँव में किसी कीमत पर नहीं जाना चाहते।

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