भारतीय स्वास्थ्य उद्योग 15 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। उम्मीद है कि 2012 तक यह 78.6 अरब डॉलर का हो जाएगा। हर साल करीब पांच लाख लोग इलाज कराने भारत आते हैं। इससे जाहिर है कि भारत मेडिकल टूरिज्म के एक बड़े केंद्र के रूप में उभर रहा है, लेकिन इस प्रगति की कहानी का एक स्याह पहलू भी है। बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव और ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा सेवाओं की बदहाली भारतीय स्वास्थ्य क्षेत्र की पोल खोलते हैं। भारत में प्रति 10 लाख लोगों पर 860 बिस्तर हैं, जबकि दुनिया में इसका औसत 2,600 है। देश में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की भारी कमी है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और उपकेंद्र क्रमश: 18.4 और 13.1 प्रतिशत कम हैं। कुल बीमारियों का तीन-चौथाई बोझ ग्रामीण भारत उठाता है, लेकिन बिस्तरों की कुल संख्या का 9वां और स्वास्थ्य संसाधनों का चौथाई हिस्सा ही गांवों तक पहुंच पाता है। दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के 88 लाख बच्चे हर साल मृत्यु का शिकार हो जाते हैं। इनमें 20 लाख से अधिक भारत में है। यही नहीं, भारत में हर पांच मिनट में एक महिला प्रसव के दौरान मर जाती है। कैसा विरोधाभास है कि भारत मेडिकल टूरिस्टों को तो इंटरऑपरेटिव एमआरआई प्रदान कर सकता है, लेकिन अपने देश के बच्चों को डायरिया से होने वाली मौत से नहीं बचा सकता। सकल स्वास्थ्य कल्याण एक ऐसा लक्ष्य है जिसे प्राप्त करने के लिए भारत लंबे समय से जद्दोजहद कर रहा है, लेकिन अभी तक इसके आसपास भी नहीं पहुंचा है। स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने की अधिकतर जिम्मेदारी सार्वजनिक क्षेत्र की रही है, लेकिन अब यह व्यवस्था थकी हुई प्रतीत होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के हालिया सर्वेक्षण में पाया गया कि जनस्वास्थ्य पर खर्च करने के मामले में भारत का स्थान 175 देशों की सूची में 171वां है। पिछले डेढ़ दशक से जनस्वास्थ्य पर हमारा व्यय घटा है। यह अध्ययन यह भी दर्शाता है कि सकल घरेलू उत्पाद का जो 5.2 प्रतिशत स्वास्थ्य कल्याण पर खर्च किया जाता है उसमें निजी क्षेत्र का योगदान 4.3 प्रतिशत है, जबकि सरकार सिर्फ 0.9 प्रतिशत ही खर्च करती है। क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि सरकार ने नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधाएं देने के अपने उत्तरदायित्व से मुक्ति पा ली है? ऐसा नहीं है। स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए घटते खर्च के बावजूद इन्हें उपलब्ध कराने का काम प्राथमिक तौर पर सरकार ही करती है, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और जननी सुरक्षा योजना जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी संख्या में होने वाली मौतों और बीमारियों से लोगों को बचाने का प्रयास कर रही है। जन स्वास्थ्य में घटते सरकारी खर्च और निजी क्षेत्र की उत्सुकता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अगर दोनों क्षेत्र मिलकर काम करें तो भारत स्वास्थ्य कल्याण के क्षेत्र में कमाल कर सकता है। इसके लिए नई सोच और संसाधनों को बेहतर तरीके से इस्तेमाल करने की जरूरत है। स्वास्थ्य कल्याण के क्षेत्र में सरकारी-निजी सहभागिता पर काफी चर्चा हो रही है। तर्कयह दिया जा रहा है की जनस्वास्थ्य प्रणाली का गहन नेटवर्क और निजी क्षेत्र की वित्तीय शक्ति मिलकर स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को हल करने में दूरगामी परिणाम दे सकते हैं। लक्ष्य यह रहेगा कि निजी क्षेत्र की उच्च गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राथमिक व सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के विस्तृत नेटवर्क के माध्यम से भारत के गांवों में बसने वाले लोगों तक पहुंचाया जाए। बेशक इसके लिए नए उपाय और आधुनिक समाधानों को अमल में लाने की जरूरत है। स्वास्थ्य क्षेत्र में टेलीमेडिसिन की सफलता यह साबित करती है कि इस किस्म के उपायों में कितनी क्षमता मौजूद है। आज भारत में 120 से अधिक टेलीमेडिसिन केंद्र हैं। फिर भी अभी स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। सकल स्वास्थ्य कल्याण न सिर्फ एक बड़े तबके तक पहुंचे, बल्कि वह गरीब आदमी की जेब के मुताबिक भी होना चाहिए। नि:संदेह वहन करने की क्षमता एक बड़ा मुद्दा है, जो शहरी गरीबों को बहुत प्रभावित करता है। शहरों में मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल उपलब्ध हैं, लेकिन गरीब लोग इनमें इलाज का भार नहीं उठा सकते। इस बारे में एक दिलचस्प विचार यह है कि उत्कृष्ट पारंपरिक चिकित्सा तकनीकों को आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के साथ मिला दिया जाए। इस तरह से लागत को नीचे लाने में बहुत मदद मिलेगी(अंजन बोस,दैनिक जागरण,31.7.2010)।
सराहनीय व सार्थक प्रस्तुती,शानदार ब्लोगिंग और बेहतरीन जानकारी ...
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