शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

अजब-गजब डिग्रियां हैं झोलाछापों की

आज दैनिक जागरण के पटना संस्करण की एक खबर कहती है कि दिल्ली हो या पटना, देश के किसी भी शहर या गांव में छोलाछाप डाक्टर उसी तरह पाये जाते हैं जैसे विश्र्व में आलू। शहर या गांव में डाक्टर तो झोलाछाप ही होते हैं, डिग्रियां भी फर्जी ही होती हैं अंतर केवल डिग्रियों के अजब-गजब नामों का होता है। कुछ लोग प्रदेश में थोक के भाव मिलने वालीं आरएमपी तथा पीएमपी से काम चलाते हैं तो कुछ एफआरसीएस व एमआरसीएस जैसी विदेशी डिग्रियों से। कोलकाता के कुछ संस्थान तो एमबीबीएस(एएम) जैसी डिग्री देकर मरीजों को गुमराह कर रहे हैं, जबकि भारतीय चिकित्सा परिषद में ऐसी डिग्रियों का कहीं उल्लेख नहीं है। आरएमपी तथा पीएमपी जैसी डिग्रियों को प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में वही मान्यता प्राप्त है जो शहरों में एमबीबीएस, एमडी व एमएस को। वह बात अलग है कि इन डिग्रियों का पूरा नाम अलग-अलग छोलाछाप अलग-अलग बताते हैं। कोई आरएमपी का अर्थ रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर्स बताते हैं तो कुछ लोग रूरल मेडिकल प्रैक्टिशनर्स। जो झोलाछाप कुछ ईमानदार हैं वह पीएमपी डिग्री का हवाला देते हैं। इसका पूरा अर्थ है- प्रैक्टिकल मेडिकल प्रैक्टिशनर्स यानी व्यवाहारिक ज्ञान के आधार पर इलाज करने वाले चिकित्सक। झोलाछाप डाक्टर अपने को प्रमाणित करने के लिए रूस जैसे देशों के आधार पर अमेरिका व लंदन से एफआरसीएस तथा एमआरसीएस जैसी डिग्रियों का प्रयोग भी धड़ल्ले से कर रहे हैं। गांवों में या अन्य जगह अवैध रूप से इलाज करने के लिए वह सरकारी नीतियों को दोषी मानते हैं। मरीजों से वह खुलेआम कहते हैं कि हमारी विदेशी डिग्री को सरकार मान्यता नहीं देती जबकि हम देश के मेडिकल कालेजों से एमबीबीएस पास डाक्टरों से ज्यादा योग्य हैं। दिल्ली तथा पटना जैसे महानगरों में कुछ हद तक शिक्षित लेकिन गरीब मरीजों को भ्रमित करने के लिए झोलाछाप डाक्टर एमबीबीएस (एएम)यानी अल्टरनेटिव मेडिसीन में डिग्री अपने बोर्ड पर धड़ल्ले से लिखते हैं। इन झोलाछापों को लोग कम फीस में इलाज करने वाला देवता स्वरूप डाक्टर मानकर मान्यता देते हैं।
इसी विषय पर अपने संपादकीय में दैनिक जागरण का राष्ट्रीय संस्करण लिखता हैः
सैद्धांतिक रूप से जो रास्ता अनुचित है, वही व्यवहार में सर्वाधिक स्वीकार्य हो, तो इसे क्या कहेंगे? बिना वैध डिग्री के इलाज का पेशा करने वाले (झोलाछाप डाक्टर) लोगों की खासी मौजूदगी यह कड़वा सवाल उठाती है। यह सवाल दरअसल व्यवस्था (स्वास्थ्य विभाग) और उसके अंतर्गत काम करने वालेअधिकारियों और डाक्टर होने की प्रामाणिक डिग्री रखने वाले सभी लोगों से है। आखिर क्यों ऐसा होता है कि अस्पताल में समुचित सुविधाएं नहीं मिलतीं, सुविधाएं व दवाएं हैं तो डाक्टर-नर्स-कर्मचारी में से कोई न कोई गैरहाजिर होता है। संयोगवश, ये तीनों मौजूद हों, तो मरीज से बदसलूकी का अंदेशा रहता है। इनके पास जाते हुए तीमारदार तक सहमा हुआ होता है। मेडिकल कालेज में जूनियर डाक्टरों के दु‌र्व्यवहार की खबरें अक्सर परेशान करती हैं। कभी-कभी प्रसव पीडि़ता को भी हमारी वैध और कल्याणकारी चिकित्सा व्यवस्था (डाक्टर-नर्स-कर्मचारी) बाहर का रास्ता दिखा देती है। सिस्टम की यह बेरुखी आम मरीज, खास कर गरीब ग्रामीणों को झोला छाप डाक्टरों की तरफ धकेलती है। जान का खतरा रहने के बावजूद गांवों में लोग बीमार पड़ने पर इन्हीं नीम हकीमों को याद करते हैं। अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सूबे के करीब 45000 राजस्व गांवों में इनकी संख्या 50 हजार से ऊपर है। सहरसा के सोनबरसा प्रखंड में सेंटर फार हेल्थ एंड रिसोर्स मैनेजमेंट (चार्म) द्वारा किए गए सर्वे में ऐसे कई दुखद तथ्य उजागर हुए हैं। इस ब्लाक के 54 राजस्व गांवों के 997 घरों में हुए सर्वे से पता चला है कि बीमार पड़ने पर 83 प्रतिशत लोग झोला छाप डाक्टरों के पास जाते हैं, जबकि मात्र तीन प्रतिशत सरकारी अस्पताल का सहारा लेते हैं। नीम हकीमों के पास इनके जाने की सबसे बड़ी वजह यह है कि वे 24 घंटे उपलब्ध रहते हैं। बाढ़ हो, कड़ाके की ठंड या तपती धूप, हर मौसम में बुलाने पर तुरंत हाजिर होते हैं। मानव सेवा का संकल्प और एमबीबीएस की डिग्री लेने वाले कितने डाक्टर साहब ऐसी सर्विस दे पाते हैं, कहना कठिन है। बिहार काउंसिल आफ मेडिकल रजिस्ट्रेशन से अब तक 39,800 से अधिक डाक्टरों ने निबंधन कराया है। इन चिकित्सकों की 80 प्रतिशत संख्या शहरों में है। ऐसी दशा में गांव तो नीम हकीमों के भरोसे ही रहेंगे। सरकार डाक्टरों को विशेष सुविधाएं देकर भी ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी ड्यूटी सुनिश्चित नहीं कर पाती। स्थिति में कुछ सुधार हुआ है, फिर भी झोलाछाप डाक्टरों से मुक्ति के लिए कई कड़े कदम उठाने की जरूरत है।स्त्र शुक्रवार 2 जुलाई, 2010 : आषाढ़ कृष्ण 6, विक्रम 2067 अनुभव को खरीदें नहीं, उसे दूसरों से मांग लें।

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपका अनुसंधान बहुत गहन है |आभार

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  2. राधारमण जी , नकली डिग्री या बिना डिग्री के डॉक्टरों को झोला छाप क्यों कहते है ?
    इसका हल क्या है ?
    क्या सरकार का रुरल डॉक्टर्स बनाने का फैसला गलत है ?
    कृपया इस पर भी प्रकाश डालें ।

    कृपया मेरे ब्लॉग पर विजिट करें और पढ़ें --पहले जिंदगी सरकती थी , अब दौड़ लगाती है ।

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