शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

यूपी में राष्ट्रीय औसत के चौथाई डाक्टर ही मौजूद

उत्तर प्रदेश का बिगड़ा स्वास्थ्य तंत्र झोलाछाप डॉक्टरों के लिए मुफीद साबित हो रहा है। गांव से लेकर कस्बों के लोग बीमार पड़ने पर ऐसे डॉक्टर की शरण में जाने को मजबूर हैं। कारण है सूबे में इलाज के लिए न पर्याप्त डॉक्टर हैं और न ही उचित चिकित्सीय तंत्र। कानून की नजर में झोलाछापों का इलाज करना भले ही अपराध हो लेकिन उनका धंधा खूब फल-फूल रहा है। आबादी के लिहाज से देश के सबसे बड़े प्रदेश में बीमारियां तो बेशुमार हैं, लेकिन उनसे निबटने के लिए मुकम्मल संसाधनों की भारी कमी है। आजादी के छह दशक बाद भी राज्य बीमारी से लड़ने में अक्षम ही साबित हो रहा है क्योंकि यहां न पर्याप्त डॉक्टर हैं और न ही पैरा मेडिकल स्टाफ। बदहाली का अंदाजा इससे ही लगाया जा सकता है कि यहां राष्ट्रीय औसत के मुकाबले तकरीबन बीस-पच्चीस फीसदी डॉक्टर ही मौजूद हैं। देश में प्रति एक हजार जनसंख्या पर एक डॉक्टर उपलब्ध है, जबकि यहां लगभग पांच हजार की आबादी पर एक डॉक्टर । स्वास्थ्य विभाग में कुल चिकित्सकों के स्वीकृत पद 13 हजार हैं जिसमें से तकरीबन चार हजार पद तब खाली हैं जबकि हाल के महीनों में बड़ी संख्या में नए डॉक्टर रखे गए हैं। डॉक्टरों के साथ ही इलाज में अहम भूमिका निभाने वाला पैरा मेडिकल स्टाफ भी पूरा नहीं है। फार्मेसिस्टों के लगभग तीन हजार, लैब टेक्नीशियन के चार सौ पद खाली पड़े हैं। सरकारी अस्पतालों के लिए 18 हजार नर्स चाहिए लेकिन स्वीकृत पद 4982 में भी 642 खाली चल रहे हैं। इतना ही नहीं डॉक्टर बनाने वाले चिकित्सा शिक्षकों की भी सूबे में पर्याप्त संख्या नहीं है। राज्य के मेडिकल कालेजों में चिकित्सा शिक्षकों के 36 फीसदी से ज्यादा पद रिक्त हैं। स्वास्थ्य केंद्रों की स्थिति भी यह है कि देश में 1.3 किमी व 5019 लोगों पर एक स्वास्थ्य केंद्र है जबकि उत्तर प्रदेश इस मामले में भी फिसड्डी है। यहां 3.4 किमी की औसत दूरी पर 7080 लोगों के लिए एक स्वास्थ्य केंद्र है। प्राइमरी हेल्थ सेंटर (पीएचसी) के मामले में भी उत्तर प्रदेश दसवें स्थान पर है। यहां 4.58 लाख की जनसंख्या पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) है, जबकि नियम के अनुसार इसे 1.20 लाख की जनसंख्या पर होना चाहिए। ज्यादातर पीएचसी में शुद्ध पेयजल की भी व्यवस्था नहीं है। तकरीबन आधे पीएचसी में बिजली नहीं है। अस्सी फीसदी में प्रसव कक्ष नहीं हैं। जहां तक सीएचसी की बात है, चालीस फीसदी में जांच के लिए लेबोरेट्री ही नहीं है। बिजली कभी-कभार आती है लेकिन आधों में जनरेटर की व्यवस्था नहीं है। ऐसे में सूबे की स्वास्थ्य सेवाओं का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। निजी क्षेत्र में नए-नए नर्सिग होम तो इधर-उधर खुलते जा रहे हैं लेकिन उनमें इलाज करा पाना सबसे बस की बात कहां है? ऐसे में गांव से लेकर शहर तक की गरीब जनता पास-पड़ोस के ऐसे डॉक्टर के पास ही पहले ही जाने को मजबूर है जिसका इलाज उसे सस्ता व आसानी से सुलभ है, भले ही उसके पास डॉक्टरी की डिग्री न हो। बस इसी बात का फायदा झोलाछाप खूब उठा रहे हैं(अजय जायसवाल,दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,2.7.2010)।

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