पुरानी कहावत है-नीम हकीम, खतर-ए-जान। इनसे इलाज कराने का मतलब अपनी जिंदगी को खतरे में डालना। लेकिन इसके बावजूद झोला छाप डाक्टरों के नाम से मशहूर इन नीम हकीमों के हाथों में लाखों लोगों की जिंदगी की डोर है। खासकर ग्रामीण बिहार में तो इनकी तूती बोल रही है। दवा और सूई लिखकर इलाज करने के साथ कहीं-कहीं तो ये छोटे-मोटे आपरेशन तक कर डालते हैं। सस्ते इलाज की लालच में इनकी शरण में जाने वाले मरीज का हाल फिर वही हो जाता है-मर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा की। बाद में जब ये मरीज असली डाक्टर के पास पहुंचते हैं, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। हद तो यह है कि इन झोला छाप डाक्टरों की एक बड़ी संख्या ने सूबे में नर्सिग होम तक खोल रखे हैं, जिसमें एमबीबीएस डाक्टर विजिट करते हैं, आपरेशन करते हैं। सरकारी अस्पतालों के आसपास ऐसे नर्सिग होम की संख्या अधिक है। वार एगेंस्ट इंडियन पोपुलेशन एक्सप्लोजन (वाईप) नामक संस्था के एक सर्वे के मुताबिक प्रदेश में बिकने वाली दवाओं का करीब पचास प्रतिशत नीम हकीमों के नुस्खे पर बिकता है। वाईप के अध्यक्ष डा.गोपाल प्रसाद सिन्हा बताते हैं कि ये नीम हकीम बीमारियों के लक्षण के आधार पर मरीजों का इलाज करते हैं, लेकिन इस बात से पूरी तरह बेखबर रहते हैं कि दी जाने वाली दवा का साइड इफेक्ट क्या हो सकता है? ये नीम हकीम परिवार नियोजन के आपरेशन से लेकर प्रसव के केस में भी दखलअंदाजी करते हैं। इसके कारण परिवार नियोजन कार्यक्रम की बदनामी तो होती ही है, संस्थागत प्रसव की संख्या 50 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ पा रही है। गांवों में इनके वर्चस्व का हाल यह है कि किसी एमबीबीएस डाक्टर को वहां टिकने नहीं देते। एक वरिष्ठ डाक्टर के मुताबिक, यह भी सही है कि इन झोला छाप डाक्टरों का इस्तेमाल एमबीबीएस डाक्टर भी अपने स्वार्थ के लिए करते हैं। आपसी समझौते के तहत ये झोला छाप डाक्टर मरीजों की हालत बिगड़ने पर या आगे इलाज करने के लिए निजी क्लीनिक खोलकर बैठे योग्यता प्राप्त डाक्टरों के पास इन्हें रेफर कर देते हैं। प्रतिबंध के बावजूद चिकित्सा सेवा में इन नीम हकीमों के दखल का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सूबे के करीब 45000 राजस्व गांवों में इनकी संख्या 50 हजार से ऊपर है। स्वास्थ्य मंत्रालय के आकलन के मुताबिक देश में करीब छह लाख झोला छाप डाक्टर सक्रिय हैं। इस हिसाब से देखा जाए तो प्रदेश में अन्य राज्यों की तुलना में इनकी संख्या अधिक है, और इसमें लगातार इजाफा ही हो रहा है। झोला छाप डाक्टरों के खिलाफ हर मंच से मुखर रहने वाले बिहार राज्य स्वास्थ्य सेवा संघ के संयोजक डा.अजय कुमार का मानना है कि सुदूर गांवों में योग्य डाक्टरों की उपलब्धता बढ़ाए बिना इस समस्या पर काबू नहीं पाया जा सकता है। सरकार गांवों में स्वास्थ्य केन्द्रों का जाल तो जरूर फैला रही है, परन्तु चिकित्सकों की उपलब्धता के लिए कोई ठोस पहल नहीं हो रही। कई विशेषज्ञ कमेटियों और राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन(एनआरएचएम) ने ग्रामीण भत्ता देने की अनुशंसा की है, लेकिन इसपर अब तक अमल नहीं हो सका है। इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैंडर्ड(आईपीएचसी) के मुताबिक तीन हजार की आबादी पर एक डाक्टर की आवश्यकता के मापदंड पर अमल किया जाए तो सूबे की नौ करोड़ आबादी के लिए लगभग तीस हजार चिकित्सक चाहिए। बिहार काउंसिल आफ मेडिकल रजिस्ट्रेशन से अब तक 39,800 से अधिक डाक्टरों ने अपना निबंधन कराया है। इनमें से करीब 25 हजार डाक्टर सूबे में उपलब्ध हैं। ऐसे में चिकित्सकों की बहुत अधिक कमी नहीं है, परन्तु डा.कुमार के मुताबिक इन योग्यता प्राप्त चिकित्सकों की 80 प्रतिशत संख्या शहरों में है। इनमें से केवल 20 प्रतिशत ही गांवों में उपलब्ध हैं, जिसके कारण भी गांवों में लोगों को नीम हकीमों के भरोसे रहना पड़ता है(एम.ए.शाद,दैनिक जागरण,पटना,1.7.2010)।
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