तराई में लहलहाने वाले और अपने औषधीय गुणों के कारण मधुमेह रोगियों के लिए मुफीद माने जाने वाले बीजासाल के पेड़ अब उत्तर प्रदेश में ढूंढ़े नहीं मिलते। सिर्फ बीजासाल ही नहीं,औषधीय विशिष्टताओं के कारण भारतीय जनमानस में प्रचलित औपचारिक व अनौपचारिक चिकित्सीय ज्ञान को समृद्ध करने वाली वनस्पतियों की कई प्रजातियां अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। उप्र राज्य जैव विविधता बोर्ड ने इन लुप्तप्राय प्रजातियों को बचाने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। चंद दशक पहले बरेली से लेकर महाराजगंज व गोरखपुर तक बीजासाल के पेड़ों का साम्राज्य था पर अब नजर नहीं आते। इस पेड़ की खूबी यह है कि इसकी लकड़ी से बने गिलास में रखे गए पानी के सेवन या फिर इसकी छाल को पानी में डुबोकर सुबह खाली पेट पीने से मधुमेह रोगियों के रक्त में शर्करा की मात्रा नियंत्रित हो जाती है। जैव विविधता पर मंडराता संकट भारत की परंपरागत चिकित्सा पद्धति को आधार देने वाले दरख्तों की प्रजातियों को लील रहा है। राज्य जैव विविधता बोर्ड के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा.रामजी श्रीवास्तव के मुताबिक कभी तराई के साथ ही उप्र के मैदानी इलाकों में बड़ी तादाद में पाये जाने वाले बालमखीरा (वैज्ञानिक नाम-काईजीलिया पिनाटा) के पेड़ों पर लगे फल से बनने वाली दवाएं उदर रोगों के लिए रामबाण हैं, लेकिन सूबे में इस प्रजाति के पेड़ों की संख्या अब बमुश्किल एक-चौथाई रह गई है। साल के जंगलों का अहम हिस्सा समझे जाने वाले असना (टर्मिनेलिया टोमनटोजा) के पेड़ भी गायब होते जा रहे हैं। असना की छाल में आक्जेलिक एसिड मिलता है जिसका औषधीय के साथ औद्योगिक उपयोग भी हैं। कभी लखनऊ के उतरेठिया इलाके और उसके आसपास पायी जाने वाली वनस्पतिक प्रजाति कलिहारी यौन रोगों के लिए प्रभावकारी है, लेकिन अब इसके दर्शन दुर्लभ हैं। हृदय और वात रोगों के लिए बेहद उपयोगी अर्जुन (टर्मिनेलिया अर्जुना)के पेड़ों की संख्या भी तेजी से कम होती जा रही है। नम भूमि में पनपने वाले इस पेड़ की छाल से आयुर्वेद में प्रचलित आसव अर्जुनारिष्ट और नागार्जुन नाभ्र रस जैसी दवा बनायी जाती है। अपने पत्तों के विशिष्ट आकार और खूबसूरत शिखा के कारण गैती/हाथी पौला (इंडोपेप्टाडेनिया अउधेंसिस) के मझोले आकार के पेड़ कभी बहराइच, श्रावस्ती, गोंडा, बलरामपुर की छटा में चार चांद लगाते थे। इसकी पत्तियां मवेशियों के चारे के काम आती हैं। अब इस प्रजाति के गिनती के पेड़ बलरामपुर की तुलसीपुर रेंज में एक नाले के किनारे बचे हैं जिन्हें वन विभाग संरक्षित कर रहा है(दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,6 जून,2010 में लखनऊ से राजीव दीक्षित की रिपोर्ट)।
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